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Apr 13, 2013

बस्तर की लोकथाएँ



बस्तर की लोकथाएँ- अनुकरणीय सत्प्रयास
- डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र
पुस्तक बस्तर की लोककथाएँ  में अविभाजित पूर्व बस्तर के वर्तमान सात जिलों के वनवासी अंचलों में प्रचलित आंचलिक भाषाओं, उन्हें बोलने वाले समुदायों, भाषायी विशेषताओं, आंचलिक भाषाओं के पारस्परिक संबन्धों-प्रभावों और इन आंचलिक भाषाओं की व्याकरणीय समृद्धता का विश्लेषण करता हुआ हरिहर जी का छब्बीस पृष्ठीय निवेदन अपने आप में एक संग्रहणीय आलेख हो गया है। न केवल भाषा प्रेमियों अपितु भाषाविज्ञानियों और शोधछात्रों के लिए भी यह प्राक्कथन बहुत ही उपयोगी बन गया है। संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं के संवहन की मौलिक विधा के रूप में वाचिक और श्रवण परम्पराओं ने लोककथाओं को जन्म दिया है। लिपि के विकास से बहुत पहले अपने अनुभवों, सन्देशों और शिक्षाओं के सम्प्रेषण तथा मनोरंजन के लिए पूरे विश्व के मानव समाज ने लोककथाओं की मनोरंजक विधा को अपनी-अपनी बोलियों में गढ़ा और विकसित किया। निश्चित ही लोककथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन न होकर समाज की बुराइयों और शिक्षाओं को वाचिक परम्परा के माध्यम से अगली पीढिय़ों को सौंपना भी था। इसीलिए, इन लोककथाओं में मनुष्य की स्वार्थ और धूर्तता जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों के विरुद्ध बुद्धिमत्तापूर्ण उपायों से किए जाने वाले संघर्षों से प्राप्त होने वाली विजय की कामना के साथ-साथ आंचल की विविध समस्याओं के समाधान के लिए भी कहानियाँ गढ़ी जाती रही हैं। कहानियाँ अपने अंचल और समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं। बस्तर की लोक कथाओं के माध्यम से बस्तर के जनजीवन, उनकी सरल परम्पराओं, जीवनचर्या और समस्याओं को प्रतिबिम्बित किया गया है। बस्तर की लोककथाओं की विशेषता इन कथाओं के भोलेपन और कथा कहने की शैली में दृष्टि गोचर होती है। इस नाते ये कथाएँ बस्तर के वनवासी समाज की अकिंचन जीवनशैली, उनकी सोच, और उनकी परम्पराओं का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं।
 इन सरल कहानियों के पात्र आम वनवासी के बीच से उठकर आते हैं इसीलिए कोस्टी लोककथा 'लेडग़ा' का राजकुमार भी शहर घूमने की इच्छा करता है और सम्पन्न होते हुए भी जीवन की आम समस्याओं से दो-चार होता है। लोक कथाओं में ऐसा भोलापन अकिंचन समाज से ही स्रवित होकर आ पाता है। राजघरानों की कुटिलताओं के किस्से भी आमआदमी के पास तक पहुँचते-पहुँचते हल्बी लोककथा राजा आरू बेल-कयना एवं पनारी लोककथा 'राजा की बेटी' के किस्सों की तरह कोई न कोई चमत्कारिक समाधान खोज ही लेते हैं। यह लोकजीवन की सरलता और जीवन में सुख की आकांक्षा का प्रतीक है। अतीन्द्रिय शक्तियों में आस्था, दैवीय चमत्कार, तंत्र-मंत्र और जादू-टोना पर विश्वास आदिम मनुष्य की भौतिक सामर्थ्य सीमा के अंतिम बिन्दु से प्रकट हुए वे उपाय हैं जो किसी न किसी रूप में सुसंस्कृत, सुसभ्य और अत्याधुनिक समाज में आज भी अपना स्थान बनाये हुए हैं। अबूझमाड़ी कथा 'गुमजोलाना पिटो' और दोरली कथा 'देवत्तुर वराम' के माध्यम से वनवासी समूहों द्वारा अतीन्द्रिय शक्तियों में आस्था प्रकट की गयी है जो मनुष्य को उसकी सीमित शक्तियों की आदिम अनुभूति की विनम्र स्वीकृति है।              
मानव समाज में धूर्तों के कारण मिलने वाले दु:खों और उनसे मुक्ति के लिए युक्ति तथा दैवीय न्याय की स्थापना हेतु पशु-पक्षियों के माध्यम से मनोरंजक शैली में 'सतूर कोलियाल' जैसी सरल-सपाट कहानियाँ गढ़ी गयी हैं जो बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ कुछ सीख भी देती हैं।   
 रक्त संबन्धों में विवाह किया जाना किसी भी विकसित और सभ्य समाज के लिए अकल्पनीय है तथापि कुछ जाति समूहों में रक्त सम्बन्धों में विवाह की परम्परा उन-उन समाजों द्वारा मान्य होकर स्थापित है। अबूझमाड़ की जनजातियों में ऐसे सम्बन्धों पर चिंता प्रकट करते हुए अबूझमाड़ी गोंडी लोककथा 'ऐलड़हारी अनी तम दादाल' के माध्यम से एक सुखद एवं वैज्ञानिक सन्देश देने का प्रयास किया गया है। रात में सोते समय दादी-नानी की सीधी-सरल कहानियाँ छोटे-छोटे बच्चों के लिए न केवल मनोरंजक होती हैं अपितु बालबुद्धि में संस्कारों का बीजारोपण भी करती हैं। मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने हमारी नयी पीढ़ी को संस्कारों से वंचित कर दिया है, पारिवारिक आत्मीय सम्बन्धों की बलि ले ली है और समाज को दिशाहीन स्थिति में छोड़ दिया है। आधुनिक संसाधनों और सिमटती भौगोलिक सीमाओं के कारण विभिन्न सभ्यताओं के पारस्परिक सन्निकर्ष के परिणामस्वरूप हमारी प्राचीन विरासतें समाप्त होने के कगार पर हैं। हम अपनी नयी पीढिय़ों को कुछ बहुत अच्छा नहीं दे पा रहे हैं, ऐसे में लोककथाओं के संकलन के माध्यम से अपनी विरासत के संरक्षण का प्रयास निश्चित ही कई दृष्टियों से प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है।    
लोकसाहित्य समाज की सहज और भोली अभिव्यक्ति ही नहीं है वह लोक जागरूकता का भी प्रतीक है। आधुनिक जीवनशैली और जीवन को सुविधायुक्त बनाने वाले संसाधनों ने हमारी सामाजिक संवेदनाओं को कुंठित कर दिया है जिसका सीधा दुष्प्रभाव लोकसाहित्य पर पड़ा है। हम पुराने का संकलन भर कर रहे हैं, नवीन का सृजन नहीं कर पा रहे। यह एक दु:खद और निराशाजनक स्थिति है। छोटे-छोटे बच्चे जो अभी पुस्तकें पढऩे के योग्य नहीं हुए हैं उनके लिए तो लोक कथाएँ और लोकगीत ही उनकी जिज्ञासाओं का रुचिकर समाधान कर सकने और संस्कारों का बीजारोपण कर पाने में सक्षम हो पाते हैं। इसीलिए मेरा स्पष्ट मत है कि आज नयी पीढ़ी में संस्काराधान के लिये नये सन्दर्भों में लोकसाहित्य के नवसृजन की महती आवश्यकता है।   
बस्तर की लोककथाओं के इस संकलन में गुण्डाधुर और गेंदसिंह जैसे भूमकाल के महानायकों की निष्फल तलाश अपने उन पाठकों को निराश करती है जो तत्कालीन शासन व्यवस्था द्वारा किए जाने वाले शोषण के विरुद्ध वनवासी समाज में स्वत: स्फूर्त उठे विद्रोह और उनकी वीरता की कथाओं में न केवल रुचि रखते हैं अपितु अपने अतीत में अपने पूर्वजों के गौरव को भी तलाश करते हैं। लोककथाएँ इतिहास को आगे ले जाती हैं, हमें गुण्डाधुर और गेंदसिंह को जि़न्दा रखना ही होगा। यद्यपि, प्रत्येक कहानी के अंत में हिंदी के पाठकों के लिए हिन्दी अनुवाद दिया गया है किंतु इस संकलन को और भी उपयोगी बनाने की दृष्टि से अगले संस्करण में मूल कहानी के प्रत्येक पैराग्रा$फ के बाद उसका हिन्दी में अनुवाद दिया जाना उन स्वाध्यायी भाषाप्रेमियों के लिए सुविधाजनक होगा जो नई-नई भाषाओं को सीखने में रुचि रखते हैं।  कथाओं के साथ-साथ इस पुस्तक में यदि बस्तर के जनजीवन को प्रदर्शित करने वाले सन्दर्भित रेखाचित्र भी दिये गये होते तो बस्तर से दूर रहने वाले पाठकों को बस्तर और भी उभर कर दिखायी दिया होता।
त्रुटिहीन प्रकाशन और मुखपृष्ठ की साज-सज्जा ने पुस्तक में चार चाँद लगा दिए हैं जिसके लिये नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया साधुवाद का पात्र है। लोककथा के इस संकलन के लिए आदरणीय लाला जगदलपुरी जी एवं हरिहर वैष्णव जी का सद्प्रयास अनुकरणीय है।
पुस्तक: बस्तर की लोककथाएँ।
सम्पादक द्वय: लाला जगदलपुरी एवं हरिहर वैष्णव।
प्रकाशन: लोक संस्कृति और साहित्य श्रंखला के अंतर्गत  नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया द्वारा प्रकाशित। 


संपर्क: शासकीय कोमलदेव जिला चिकित्सालय, कांकेर, उत्तर-बस्तर, छ.ग. 494334

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