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Apr 13, 2013

तालाबः जल संसाधन और प्रबंधन की परम्परा

तालाबः 
जल संसाधन और प्रबंधन की परम्परा
- राहुल सिंह

छत्तीसगढ़ की सीमावर्ती पहाडिय़ाँ उच्चता, प्राकृतिक संसाधनयुक्त रत्नागर्भा धरती सम्पन्नता, वन-कान्तार सघनता का परिचय देती हैं तो मैदानी भाग उदार विस्तार का परिचायक है। इस मैदानी हिस्से की जलराशि में सामुदायिक समन्वित संस्कृति के दर्शन होते हैं, जहाँ जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण, तालाबों के साथ विद्यमान है और इसलिए तालाब स्नान, पेयजल और अपासी (आबपाशी या सिंचाई) आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति के साथ जन-जीवन और समुदाय के वृहत्तर सांस्कृतिक संदर्भयुक्त बिन्दु हैं।
 अहिमन रानी और रेवा रानी की गाथा तालाब स्नान से आरंभ होती है। नौ लाख ओडिय़ा, नौ लाख ओड़निन के उल्लेख सहित दसमत कइना की गाथा में तालाब खुदता है और फुलबासन की गाथा में मायावी तालाब है। एक लाख मवेशियों का कारवां लेकर चलने वाला लाखा बंजारा और नायकों के स्वामिभक्त कुत्ते कुकुरदेव मंदिर सहित उनके खुदवाए तालाब, लोक-स्मृति में खपरी, दुर्ग, मंदिर हसौद, पांडुका के पास, रतनपुर के पास करमा-बसहा, बलौदा के पास महुदा जैसे स्थानों में जीवन्त हैं।
गाया जाता है-राम कोड़ावय ताल सगुरिया, लछिमन बंधवाय पार। खमरछठ (हल-षष्ठी) की पूजा में प्रतीकात्मक तालाब-रचना और संबंधित कथा में तथा बस्तर के लछमी जगार गाथा में तालाब खुदवाने संबंधी पारम्परिक मान्यता और सुदीर्घ परम्परा का संकेत है। सरगुजा अंचल में कथा चलती है कि पछिमहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाए थे और राजा बालंद, कर के रूप में खीना लोहा वसूलता और जोड़ा तालाब खुदवाता, जहाँ-जहाँ रात बासा, वहीं तालाब। उक्त है-सात सौ फौज, जोड़ा तलवा; अइसन रहे बालंद रजवा। विशेषकर पटना (कोरिया) में कहा जाता है- सातए कोरी, सातए आगर। तेकर उपर बूढ़ा सागर॥
तालाबों की बहुलता इतनी कि, छै आगर छै कोरी, यानी 126 तालाबों की मान्यता रतनपुर, मल्हार, खरौद, महन्त, नवागढ़, अड़भार, आरंग, धमधा जैसे कई गांवों के साथ सम्बद्ध है। सरगुजा के महेशपुर और पटना में तथा बस्तर अंचल के बारसूर, बड़े डोंगर, कुरुसपाल और बस्तर आदि ग्रामों में सात आगर सात कोरी- 147 तालाबों की मान्यता है, इन गांवों में आज भी बड़ी संख्या में तालाब विद्यमान हैं। छत्तीसगढ़ में छत्तीस से अधिक संख्या में परिखा युक्त मृत्तिका-दुर्ग यानी मिट्टी के किले या गढ़ जांजगीर-चांपा जिले में ही हैं, इन गढ़ों का सामरिक उपयोग संदिग्ध है किन्तु गढ़ों के साथ खाई, जल-संसाधन की दृष्टि से आज भी उपयोगी है।
भीमादेव, बस्तर में पाण्डव नहीं, बल्कि पानी के देवता हैं। जांजगीर और घिवरा ग्राम में भी भीमा नामक तालाब हैं। बस्तर में विवाह के कई नेग-चार पानी और तालाब से जुड़े हैं। कांकेर क्षेत्र में विवाह के अवसर पर वर-कन्या तालाब के सात भाँवर घूमते हैं और परिवारजन सातों बार हल्दी चढ़ाते हैं। दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय भी ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है।
यह रोचक है कि आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, लोनिया, मटकुड़ा, मटकुली, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब निर्माण में महत्त्वपूर्ण होती है और उनकी विशेषज्ञता तो काल-प्रमाणित है ही। छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के समय किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा खुदवाए गए उसके नाम स्मारक बहुसंख्य लंकेटर तालाब अब भी जल आवश्यकता की पूर्ति और राहत कार्य के संदर्भ सहित विद्यमान हैं।
छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा भी है, जिस अनुष्ठान (लोकार्पण का एक स्वरूप) के बाद ही उसका सार्वजनिक उपयोग आरंभ होता था। विवाहित तालाब की पहचान सामान्यत: तालाब के बीच स्थित स्तंभ से होती है। इस स्तंभ से घटते-बढ़ते जल-स्तर की माप भी हो जाती है। जांजगीर-चांपा जिले के किरारी के हीराबंध तालाब से प्राप्त स्तंभ पर खुदे अक्षरों के आधार पर यह दो हजार साल पुराना प्रमाणित है। इस प्राचीनतम काष्ठ उत्कीर्ण लेख से तत्कालीन राज पदाधिकारियों की जानकारी मिलती है। कुछ तालाब अविवाहित भी रह जाते हैं, लेकिन चिन्त्य या पीढ़ी पूजा के लिए ऐसे तालाबों के जल का उपयोग किया जाता है।
तालाबों के स्थापत्य में कम से कम मछन्दर (पानी के सोते वाला तालाब का सबसे गहरा भाग), नक्खा या छलका (लबालब होने पर पानी निकलने का मार्ग), गांसा (तालाब का सबसे गहरा किनारा), पैठू (तालाब के बाहर अतिरिक्त पानी जमा होने का स्थान), पुंछा (पानी आने व निकासी का रास्ता) और मेढ़-पार होता है। तालाबों के प्रबंधक अघोषित-अलिखित लेकिन होते निश्चित हैं, जो सुबह पहले-पहल तालाब पहुँचकर घटते-बढ़ते जल-स्तर के अनुसार घाट-घठौंदा के पत्थरों को खिसकाते हैं, घाट की काई साफ करते हैं, दातौन की बिखरी चिरी को इकट्ठा कर हटाते हैं और इस्तेमाल के इस सामुदायिक केन्द्र के औघट (पैठू की दिशा में प्रक्षालन के लिए स्थान) आदि का अनुशासन कायम रखते हैं। तालाबों के पारंपरिक प्रबंधक ही अधिकतर दाह-संस्कार में चिता की लकड़ी जमाने से लेकर शव के ठीक से जल जाने और अस्थि-संचय करा कर, उस स्थान की शांति- गोबर से लिपाई तक की निगरानी करते हुए सहयोग देता है और घंटहा पीपर (दाह-क्रिया के बाद जिस पीपल के वृक्ष पर घट-पात्र बाँधा जाता है) के बने रहने और आवश्यक होने पर इस प्रयोजन के वृक्ष-रोपण की व्यवस्था भी वही करता है। अधिकतर ऐसे व्यक्ति मान्य उच्च वर्णों के होते हैं।
तालाबों का नामकरण सामान्यत: उसके आकार, उपयोग और विशिष्टता पर होता है, जैसे पनपिया, निस्तारी और अपासी (आबपाशी) और खइया, नइया, पंवसरा, पंवसरी, गधियाही, सोलाही या सोलहा, पचरिहा, सतखंडा, अड़बंधा, छुइखदान, डोंगिया, गोबरहा, खदुअन, पुरेनहा, देउरहा, नवा तलाव, पथर्रा, टेढ़ी, कारी, पंर्री, दर्री, नंगसगरा, बघबुड़ा, केंवासी (केंवाची)। बरात निकासी, आगमन व पड़ाव से सम्बद्ध तालाब का नाम दुलहरा पड़ जाता है। तालाब नामकरण उसके चरित्र-इतिहास और व्यक्ति नाम पर भी आधारित होता है, जैसे- फुटहा, दोखही, भुतही, करबिन तालाब, छुइहा, टोनही डबरी, फूलसागर, मोतीसागर, रानीसागर, राजा तालाब, रजबंधा, गोपिया आदि। जोड़ा नाम भी होते हैं, जैसे- भीमा-कीचक, सास-बहू, मामा-भांजा, सोनई-रूपई। पानी-पोखर दिनचर्या का तो तलाव उछाल जीवन-मरण का शब्द है।
पानी और तालाब से संबंधित ग्राम-नामों की लंबी सूची हैं और उद, उदा, दा, सर (सरी भी), सरा, तरा (तरी भी), तराई, ताल, चुआँ, बोड़, नार, मुड़ा, पानी आदि जलराशि-तालाब के समानार्थी शब्दों के मेल से बने हैं। उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम के कुछ उदाहरण बछौद, हसौद, तनौद, मरौद, रहौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, बलौदा, मालखरौदा, चिखलदा, बिठलदा, रिस्दा, परसदा, फरहदा हैं। सर, सरा, सरी, तरा, तरी, के मेल से बने ग्राम नाम के उदाहरण बेलसर, भड़ेसर, लाखासर, खोंगसरा, अकलसरा, तेलसरा, बोड़सरा, सोनसरी, बेमेतरा, बेलतरा, सिलतरा, भैंसतरा, अकलतरा, अकलतरी, धमतरी है। तरई या तराई तथा ताल के साथ ग्राम नामों की भी बहुलता है। कुछ नमूने डूमरतराई, शिवतराई, पांडातराई, बीजातराई, सेमरताल, उडऩताल, सरिसताल, अमरताल हैं। चुआँ, बोड़ और सीधे पानी जुड़कर बने गाँवों के नाम बेंदरचुआं, घुंईचुआँ, बेहरचुआँ, जामचुआँ, लाटाबोड़, नरइबोड़, घघराबोड़, कुकराबोड़, खोंगापानी, औंरापानी, छीरपानी, जूनापानी जैसे ढेरों उदाहरण हैं। स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है तो जलराशि सूचक बंद के मेल से बने कुछ ग्राम नाम ओटेबंद, उदेबंद, कन्हाइबंद, बिल्लीबंद जैसे हैं। ऐसा ही एक नाम अब रायपुर का मुहल्ला टाटीबंद है। वैसे टाटा और टाटी ग्राम नाम भी छत्तीसगढ़ में हैं, जिसका अर्थ छिछला तालाब जान पड़ता है।

संदर्भवश, छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी का नाम महानदी, सरगुजा में महान नदी और फिंगेश्वर में सूखा नदी है तो एक जिला मुख्यालय का नाम महासमुंद है और ग्राम नाम बालसमुंद (बेमेतरा) भी है लेकिन रायपुर बलौदा बाजार-पलारी का बालसमुंद, विशालकाय तालाब है। जगदलपुर का तालाब, समुद्र या भूपालताल बड़ा नामी है। इसी तरह तालाबों और स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बाँधा आदि से मिल कर भी बनता है। तालाब अथवा जल सूचक स्वतंत्र ग्राम-नाम तलवा, झिरिया, बंधवा, सागर, रानीसागर, डबरी, गुचकुलिया, कुआ, बावली, पचरी, पंचधार, सरगबुंदिया, सेतगंगा, गंगाजल, नर्मदा और निपनिया भी हैं। जल-स्रोत या उससे हुए भराव को झिरिया कहा जाता है, इसके लिए झोड़ी या ढोढ़ी, डोल, दह, दहरा, दरहा और बहुअर्थी चितावर शब्द भी हैं।
कार्तिक-स्नान, ग्रहण-स्नान, भोजली, मृतक सँस्कार के साथ नहावन और पितृ-पक्ष की मातृका नवमी के स्नान-अनुष्ठान, ग्राम-देवताओं की बीदर-पूजा, अक्षय-तृतीया पर बाउग (बीज बोना) और विसर्जन आदि के अलावा पानी कम होने जाने पर मतावल, तालाब से सम्बद्ध विशेष अवसर हैं। सावन अमावस्या पर हरेली की गेंड़ी, भाद्रपद अमावस्या पर पोरा के दिन, तालाब का तीन चक्कर लगाकर पउवा (पायदान) विसर्जन और चर्मरोग निदान के लिए तालाब-विशेष में स्नान, लोक विधान है। विसर्जित सामग्री के समान मात्रा की लद्दी (गाद) तालाब से निकालना पारम्परिक कर्तव्य माना जाता है। ग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर, गाँवजल्ला लद्दी निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। पानी सूख जाने पर तालाब में पानी जमा करने के लिए छोटा गड्ढ़ा- झिरिया बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है। खातू (खाद) पालने के लिए सूखे तालाब का राब और कांपू मिट्टी निकालने की होड़ लग जाती है।
तालाब की सत्ता, उसके पारिस्थितिकी-तंत्र के बिना अधूरी है जिसमें जलीय वनस्पति- गधिया, चीला, रतालू (कुमुदनी), खोखमा, उरई, कुस, खस, पसहर, पोखरा (कमल), पिकी, जलमोंगरा, ढेंस काँदा, कुकरी काँदा, सरपत, करमता, सुनसुनिया, कुथुआ, जलीय जन्तु सीप-घोंघी, जोंक, संधिपाद, चिडिय़ा (ऐरी), उभयचर आदि और कभी-कभार ऊद व मगर भी होते हैं। मछलियों के ये नाम छत्तीसगढ़ में सहज ज्ञात हैं- डंडवा, घंसरा, अइछा, सोढि़हा या सोंढुल, लुदू, बंजू, भाकुर, पढिऩा, भेंड़ो, बामी, काराझिंया, खोखसी या खेकसी, झोरी, सलांगी या सरांगी, डुडुंग, डंडवा, ढेंसरा, बिजरवा, खेगदा, रुदवा, तेलपिया, ग्रासकाल। तालाब जिनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी जबान पर कटरंग, सिंघी, लुडुवा, कोकिया, रेछा, कोतरी, खेंसरा, गिनवा, टेंगना, मोहराली, सिंगार, पढिऩा, भुंडी, सांवल, बोलिया या लपची, केउ या रुखचग्घा, केवई, मोंगरी, पथर्री, चंदैनी, कटही, भेर्री, कतला, रोहू और मिरकल मछलियों के नाम भी सहज आते हैं।
जलीय जन्तुओं को देवतुल्य सम्मान देते हुए सोने का नथ पहनी मछली और लिमान (कछुआ) का तथ्य और उससे सम्बद्ध विभिन्न मान्यताएँ रायपुर के निकट ग्राम सरोना और कोटगढ़-अकलतरा के सतखँडा तालाब जैसे उदाहरणों में उसकी पारस्थितिकी, सत्ता की पवित्रता और निरंतरता की रक्षा करती हैं। इसी तरह ग्राम देवताओं में एक, तालाब के देवता तरिया गोसांइन भी हैं, जो ग्राम की जल-आवश्यकता की पूर्ति का ध्यान रखता है लेकिन तालाब के पारम्परिक नियमों की उपेक्षा या लापरवाही पर सजा भी देता है।
सामुदायिक-सहकारी कृषि का क्षेत्र- बरछा, कुसियार (गन्ना) और साग-सब्जी की पैदावार के लिए नियत तालाब से लगी भूमि, पारंपरिक फसल चक्र परिवर्तन और समृद्ध-स्वावलंबी ग्राम की पहचान माना जा सकता है। बंधिया में अपाशी के लिए पानी रोका जाता है और सूख जाने पर उसका उपयोग चना, अलसी, मसूर, करायर उपजाने के लिए कर लिया जाता है। आम के पेड़ों की अमरइया, स्नान के बाद जल अर्पित करने के लिए शिवलिंग, देवी का स्थान- माताचौंरा या महामाया और शीतला या नीम के पेड़, अन्य वृक्षों में वट, पीपल (घंटहा पीपर) और आम के पेड़ों की अमरइया भी प्रमुख तालाबों के अभिन्न अंग हैं।
झिथरी, मिरचुक, तिरसाला, डोंगा, पारस-पत्थर, हंडा-गंगार, पूरी बरात तालाब में डूब जाना जैसी मान्यता, तालाब के चरित्र को रहस्यमय और अलौकिक बनाती है तो पत्थर की पचरी, मामा-भाँजा की कथा, राहगीरों के उपयोग के लिए तालाब से बर्तन निकलना और भैंसे के सींग में जलीय वनस्पति-चीला अटक जाने से किसी प्राचीन निर्मित या प्राकृतिक तालाब के पता लगने का विश्वास, जन-सामान्य के इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति करता है।
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी डा. के.के. चक्रवर्ती जी के साथ दसेक साल पहले रायपुर से कोरबा जाने का अवसर बना। रास्ते में तालाबों पर चर्चा होने लगी। अनुपम मिश्र की पुस्तकों का भी जिक्र आया। छत्तीसगढ़ में तालाबों के विभिन्न पक्षों पर मेरी बातों को वे ध्यान से सुनते रहे, फिर रास्ते में एक तालाब आया, वहाँ रुक कर उन्होंने तालाब के स्थापत्य पर सवाल किया और बातों का सार हुआ कि मैं जितनी बातें कह रहा हूँ वह सब एक नोट बना कर उन्हें दिखाऊँ, मैंने हामी भरी, लेकिन मुझे लगता रहा कि इसमें लिखने वाली क्या बात है, लिख कर क्या होगा। मेरी ओर से बात आई-गई हुई। कोरबा पहुँच कर उन्होंने फिर याद दिलाई, कहा रात को ही लिख लूँ और दिखा दूँ। बचने का कोई रास्ता नहीं रहा तो मैंने अगली सुबह तक मोहलत ली और कच्चा मसौदा, जो पिछली पोस्ट तालाब में आया है, उन्हें दिखाया, चक्रवर्ती जी ने इसमें रुचि ली। काफी समय बाद स्वयं इसे फिर से देखा तो लगा कि यह औरों की रुचि का भी हो सकता है। बहरहाल, इस तरह लगभग बिना सोचे शुरुआत हुई। अब सचेत समझ पाता हूँ कि मेला, ग्राम देवता और तालाब तीन ऐसे क्षेत्र हैं, जिसमें निहित सामुदायिक-सांस्कृतिक जीवन लक्षण के प्रति मुझे आरंभ से आकर्षण रहा है। यहाँ तालाब पर कुछ और बातें-
-तालाबों के विवाह की परम्परा के साथ स्मरणीय है कि इस तरह का विवाह अनुष्ठान फलदार वृक्षों के लिए भी होता है, जिसके बाद विवाहित वृक्ष के फल का उपयोग आरंभ किया जाता है। तालाबों के कुँवारे रह जाने की तरह एक उदाहरण जिला मुख्यालय धमतरी के पास करेठा का है, जहाँ के ग्राम देवी-देवता अविवाहित माने जाते हैं, इस गाँव को कुंआरीडीह भी कहा जाता है। बहरहाल, सन 2011 में 12-13 जून को जांजगीर-चाँपा जिले के केरा ग्रामवासियों द्वारा राजापारा के रनसगरा तालाब का विवाह विधि-विधानपूर्वक कराया गया, जिसमें वर, भगवान वरुण और वरुणीदेवी को वधू विराजित कराया गया। इस मौके पर लोगों ने अस्सी साल पहले गाँव के ही बर तालाब के विवाह आयोजन को भी याद किया।
-सन 1900 में पूरा छत्तीसगढ़ अकाल के चपेट में था। इसी साल रायपुर जिले के एक हजार से भी अधिक तालाबों को राहत कार्य में दुरुस्त कराया गया। रायपुर के पास स्थित ग्राम गिरोद में ऐसी सूचना अंकित शिलालेख सुरक्षित है।
-छत्तीसगढ़ की प्रथम हिंदी मासिक पत्रिका छत्तीसगढ़ मित्र के सन् 1900 के मार्च-अप्रैल अंक का उद्धरण है- रायपुर का आमा तलाव प्रसिद्ध है। यह तलाव श्रीयुत सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत में 17000 रु. खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसकी ओर ध्यान देवे।
-शुकलाल प्रसाद पांडे की कविता तलाब के पानी की पंक्तियाँ हैं-
गनती गनही तब तो इहाँ ल छय सात तरैया हे,
फेर ओ सब माँ बँधवा तरिया पानी एक पुरैया हे।
न्हावन छींचन भइंसा-माँजन, धोये ओढऩ चेंदरा के।
ते मा धोबनिन मन के मारे गत नइये ओ बपुरा के॥
पानी नीचट धोंघट धोंघा, मिले रबोदा जे मा हे।
पंडरा रंग, गैंधाइन महके, अउ धराउल ठोम्हा हे।
कम्हू जम्हू के साग अमटहा, झोरहातै लगबे रांधे,
तुरत गढ़ा जाही रे भाई रंहन बेसन नई लागे।
-पानी-तालाब के वैदिक संदर्भ पर भी दृष्टिपात करते चलें। वैदिक साहित्य में छोटे गड्ढे का जल- स्रुत्य, नदी का जल- नादेय और तराई की नदियों का जल- नीप्य, कुएँ का जल कूप्य तो छोटे कुएँ का जल अवट्य कहा गया है। दलदली भूमि का जल सूद्य तो नहर का जल कुल्य है। अनूप्य और उत्स्य, जलीय स्थानों और जलस्रोतों से निकलने वाला जल है। बावड़ी का जल वैशंत, झील का जल हृदय तो तालाब के जल के लिए सरस्य शब्द प्रयुक्त हुआ है।
-तालाब, उनसे जुड़ी मान्यताएँ और एक-एक शब्द के साथ पूरी कथा है, नमूने के लिए मामा-भांजा, सागर और सरगबुंदिया। तालाब के मामा-भांजा नामकरण का कारण बताया जाता है कि किसी भांजे ने अपने नाम से तालाब खुदवाने के लिए अपने मामा को विश्वासपूर्वक जिम्मा दिया था, मामा ने साथ-साथ अपने नाम से भी एक तालाब खुदवा लेने के लिए भांजे का सहयोग चाहा, भांजे ने इसके लिए हामी भरी, तब मामा ने छलपूर्वक तालाब खुदवाने के लिए निचले हिस्से में, जहाँ पानी की अधिक सँभावना थी, अपने नाम से और भांजे के लिए उथले स्थान का निर्धारण कर लिया। मौके पर पहुँचने से भांजे को स्थिति का पता लगा, उसने इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया, लेकिन काम पूरा होने के बाद ऊँचाई पर खुदे भांजा तालाब में लबालब पानी भरा, लेकिन निचले हिस्से के मामा तालाब सूखा रह गया, क्योंकि इसमें कोई प्राकृतिक जल-स्रोत नहीं था। बिलासपुर के मामा-भांजा तालाब जोड़े के भांजा तालाब पर अब आबादी बस गई है और मामा तालाब को ही मामा-भांजा तालाब कहा जाने लगा है, जिसमें आसपास के घरों के निकास का गंदा पानी जमा होता है।
सागर, नरियरा ग्राम का विशाल तालाब है। इस तालाब में पारस पत्थर होने की किस्सा बताया जाता है- एक बरेठिन सागर तालाब में नहाने गई, वहाँ पैर के आभूषण, पैरी को दुरुस्त करने की जरूरत हुई, उसने घाट पर पड़ा पत्थर ले कर ठोंक-पीट किया और वापस घर आ गई। घर में ध्यान गया कि उस पैरी में सुनहरी चमक है। पूछताछ होने लगी। बरेठिन को तालाब वाली बात याद आई और यह बताते ही खबर जंगल की आग की तरह पूरे इलाके में फैल गई कि नरियरा के सागर तालाब में पारस पत्थर है, खोज होने लगी, लेकिन सब बेकार। बात अंग्रेज सरकार तक पहुँची। कुछ ही दिनों में अंग्रेज अधिकारी नरियरा आए, उनके साथ दो हाथी और तालाब की लंबाई की लोहे की जंजीर थी। हाथियों के पैर में जंजीर बाँधी गई और दोनों हाथियों को तालाब के आर-पार जंजीर को डुबाते हुए, तालाब की परिक्रमा कराई गई। जंजीर बाहर आई तो उसकी ढाई कड़ी सोने की थी, लेकिन इसके बाद भी उस पारस पत्थर को नहीं मिलना था तो वह नहीं मिला और अब भी यह आस-विश्वास बना हुआ है।
अब सरगबुँदिया, यानि मतलब एकदम साफ है, सरग+बुँदिया, सरग-स्वर्ग और बुँदिया-बूँदें, यानि स्वर्ग की बूँदें, अमृतोपम जल, ऐसा तालाब जिसका पानी साफ, मीठा हो। भाषाशास्त्र में हाथ आजमाते और तालाबों की खोज-खबर लेते यह मेरे लिए मुश्किल नहीं रह गया है। तालाबों की बात करते हुए अब मैं लोगों को अपनी इस स्थापना को मौका बना कर सगर्व बताता, सरगबुँदिया यानी पनपिया जिस तालाब का पानी, पीने के लिए उपयोग होता है। एक दिन मेरी बातें सुनकर किसी बुजुर्ग धीरे से बात सँभाली और मुझे बिना महसूस कराए सुधारा कि सरगबुँदिया में पानी का कोई सोता नहीं है, न रसन-आवक, बस स्वर्ग की बूँदों, बरसात के भरोसे है। देशज भाषा का सौंदर्य। जान गया कि अभी तालाबों पर जानकारियाँ ही जुटाना है, मेरी समझ इतनी नहीं बनी है कि उनकी साधिकार व्याख्या करने लगूँ।
-रायपुर के भूगोलविद डा. एन.के. बघमार, तालाब अध्ययन की दिशा में सतत सक्रिय हैं, उनके निर्देशन में श्री जितेन्द्र कुमार घृतलहरे ने रायपुर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों का भौगोलिक अध्ययन  शीर्षक से सन 2006 में शोध किया है। छत्तीसगढ़ में लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में रहे रामनिवास गुप्ता जी ने छत्तीसगढ़ में ताल-तलैये और देवालय, 21 वीं सदी में जल, कटघरे में हम शीर्षक से पुस्तिका सन 2005 में प्रकाशित कराई है। इस पुस्तिका में तत्कालीन बिलासपुर सम्भाग के तालाबों की जल संग्रहण क्षमता का अध्ययन के साथ मंदिर एवं वृक्षों की तालिका बनाई गई है, यद्यपि कई स्थानों पर आँकड़ों का जोड़ न होने और विसंगति से लगता है कि ये अंतिम संख्या है, किन्तु अनुमान के लिए ये आँकड़े पर्याप्त हैं। पुस्तिका के अनुसार 7802 ग्रामों में निर्मित 13381 तालाबों के जल भराव में 30 से 45 प्रतिशत तक कमी आई है। पुन: 13662 तालाबों पर स्थित कुल 70964 वृक्षों में, आम-42916, पीपल-4200, बरगद-3539, नीम-3570, बबूल-3381, जामुन-589, खम्हार-400, सेमर-683, तेंदू-2775, महुआ-2929, अन्य-5982 हैं। 13662 तालाबों के पर स्थित कुल 6167 मंदिरों में 3791 शिव मंदिर, 1881 हनुमान मंदिर और 495 अन्य मंदिरों के तत्कालीन जिलेवार आँकड़े दिए गए हैं।
-स्वच्छ जल के लिए निर्धारित मानक में पानी का रंग, कठोरता, अम्लता, घुलनशील ठोस के अलावा उसमें लौह, क्लोराइड, मैगनेशियम, मैगनीज, फ्लोराइड, मरकरी, जिंक की मात्रा आदि बिंदुओं पर परख की जाती है। अक्सर यह देखा गया है कि तालाबों का सौन्दर्यीकरण उनके लिए अनुकूल साबित नहीं होता और ऐसे प्रयासों में तालाब के स्थापत्य का ध्यान न रखा गया तो स्वच्छता का स्तर घटता जाता है। ऐसे उदाहरणों की भी चर्चा होती है, जिसमें सौन्दर्यीकरण के चलते निकास प्रभावित होने से अशुद्धि बढ़ी, तालाब का प्रयोग कम होने लगा, उपेक्षा हुई, साथ ही स्रोत प्रभावित होने के फलस्वरूप तालाब का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। ज्यों ज्यादातर कुएँ उपयोग न होने से बड़े कूड़ादान बन जाते हैं, उसी तरह उपयोगिता और अनुशासन कायम न रहे तो तालाबों का अघोषित सालिड वेस्ट डंपिंग स्टेशन बन कर, नई बसाहट के लिए प्लाट में तब्दील होते देर नहीं लगती। उदाहरण है- रायपुर नगर के मध्य का रजबंधा तालाब, जो कुछ दिन पहले तक रजबंधा मैदान रहा फिर अब यहाँ स्वतंत्रता सेनानियों का शहीद स्मारक भवन और प्रेस काम्प्लेक्स वाला रजबंधा व्यावसायिक परिसर है।
पारम्परिक सामुदायिक जीवन का केन्द्र और प्रतिबिम्ब तालाबों, उनकी पनीली यादों में अब आधुनिक जीवन-शैली की जरूरतें परिलक्षित होने लगी हैं।

सम्पर्क: संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्त्व, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय सिविल लाइन्स, रायपुर, मो. 09425227484
Email- rahulsinghcg@gmail.in,ब्लॉग: सिंहावलोकन http://akaltara.blogspot.in

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