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Apr 13, 2013

अनकही

जल संकट की आहट...


अपने बचपन को याद करती हूँ, तो याद नहीं आता कि कभी पानी की इतनी गंभीर समस्या नजर आई हो जैसी इन दिनों हम देख रहे हैं। वह शायद इसलिए कि आज से पाँच दशक पहले तक हमारे आस-पास  तालाब, कुएँ, पोखर, नहर, नदी आदि जल के विभिन्न स्रोत उपलब्ध रहा करते थे। इतना ही नहीं तब न पर्यावरण इतना प्रदूषित हुआ था, न जल -संकट की ऐसी भीषण समस्या नजर आती थी। धरती हरी-भरी थी, चारो ओर जँगल ही जँगल थे, कुएँ और तालाब इतने कि गिनती नहीं कर सकते थे। तब न आज की तरह वैज्ञानिक थे, जो बताते कि जल को कैसे संरक्षित किया जाए, मानसून के पानी को तालाब, पोखर कुएँ में संरक्षित करने की कला पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में सदियों से चली आ रही थी। बचपन में हमें प्रकृति के प्रति जागरूक करने वाली बातें किस्से कहानियों के माध्यम से बताए-सिखाए जाते थे- कि जल बिना  जीवन संभव नहीं है। हमें बचपन से ही प्रकृति के प्रति इतना संवेदनशील बना दिया जाता था कि रात में गलती से पेड़ पौधों को छू भी देते थे या कोई पत्ती तोड़ लेता था तो यह कहकर उनकी रक्षा के प्रति सचेत किया जाता था कि पेड़-पौधे भी रात में सोते हैं, उनको छुओ मत। इसी तरह तब गाँव में बड़, पीपल, नीम और आँवला जैसे कई पेड़ों की पूजा क्यों की जाती थी, आज उसका महत्त्व समझ में आता है। तब उन्हें बचाने का सबसे सुलभ रास्ता, उन्हें पूजनीय बना देना ही था। जाहिर है जो स्थान या वस्तु देव तुल्य बना दी जाए, उसे कोई भी कैसे नुकसान पँहुचा सकता है। यही स्थिति जल के स्रोतों पर भी लागू होती थी; इसलिए गाँव-गाँव में कुआँ, तालाब खुदवाने की सांस्कृतिक परम्परा सदियों से चली आ रही है। नया तालाब या कुआँ खोदने के बाद उनकी पूजा, विवाह आदि की परंपरा थी। (उदंती के इसी अंक में राहुल सिंह जी अपने आलेख के माध्यम से छत्तीसगढ़ के तालाबों के बारे में शोधपरक जानकारी दे रहे हैं, जिससे आपको पता चलेगा कि तालाबों का हमारे जीवन और हमारी संस्कृति से कितना गहरा संबंध है।)
यह तो सर्वविदित है कि पानी की गंभीर समस्या जो कभी सिर्फ गर्मी के मौसम में आया करती थी,  आजकल साल भर रहती है। इसका अंदाजा आप शहरों में नल की टोटियों के सामने साल भर लगने वाली लाइनों को देखकर लगा सकते हैं। गाँवों में भी कृषि सिंचाई की समस्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। मानसून कभी कम कभी ज्यादा भले ही होती है असली उपाय उन्हें संरक्षित करने की है, जिसकी ओर आज बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। यह भी सत्य है कि जल संकट से उबरने के लिए प्रति वर्ष हजारों सरकारी प्रयास होते हैं,  नई-नई योजनाएँ बनाती है पर नतीजें हमेशा ही निराशाजनक रहते हैं। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे योजनाकार हमारी धरती, हमारी प्रकृति में मौजूद जलवायु और भौगोलिक परिस्थिति से मेल खाती परम्परागत जल स्रोतों के संरक्षण संवर्धन के बजाय उन आयातीत तकनीकों का सहारा लेकर इस समस्या से उबरना चाहते हैं। प्राकृतिक जल सोतों के बजाय हम नलकूप, हैंडपंप लगा कर धरती का दोहन तो भरपूर कर रहे हैं;पर खाली होती धरती को फिर से भरने के लिए कोई उपाय नहीं करते। यदि हम तालाब, कुएँ और बावडिय़ों में मानसून के पानी को इकट्ठा नहीं करेंगे तो हैंडपंप और नलकूप से पानी कैसे ले पाएँगे। अफसोस की बात है कि हम प्रकृति से सिर्फ लेना जानते हैं देना तो हमने सीखा ही नहीं है। बैंक खाते में जब पैसा ही जमा नहीं कराएँगे तो निलालेंगे क्या और कैसे ?
अत: आज की प्रथम जरूरत हमारे परम्परागत जल स्रोतों को पुन: जीवित करने की है। याद कीजिए आज से कुछ दशक पहले तक सिर्फ गाँव ही नही शहरों में भी जगह- जगह कई तालाब और कुएँ नजर आते थे। परंतु अफसोस आधुनीकीकरण की अंधी दौड़ में जल आपूर्ति के इन अनुपम स्रोतों को हम नष्ट करते चले जा रहे हैं। शहरों के अधिकतर तालाब भूमाफियाओं के हवाले हो गए हैं और धीरे-धीरे समतल भूमि में तब्दील होते चले जा रहे हैं। जो तालाब कभी एक बहुत बड़े इलाके की जल-आपूर्ति करता था; आज वहाँ मल्टी स्टोरी भवन खड़े नजर आते हैं। कहीं जो थोड़े बहुत तालाब बच रह गए हैं, उनकी ओर प्रशासन का ध्यान ही नहीं जाता, शहर की सारी गंदगी वहीं बहकर इकट्ठा होती है और वह एक गंदे नाले का रूप ले लेती है या फिर कूड़ेदान  के रूप में तब्दील हो जाती है। नगर प्रशासन की ओर से अक्सर इन तालाबों के रख-रखाव,  उनको गहरा करने और उनके सौन्दर्य को बढ़ाने की योजनाएँ बनती हैं, पर बाधाएँ कहाँ नहीं हैं। कहीं राजनीति आड़े आती है तो कहीं नियम कानून।
यह तो हम सब जानते हैं कि जल आपूर्ति के लिए हम पूरी तरह मानसून पर निर्भर हैं; पर मानसून के इस जल को यदि हम सँजो कर नहीं रखेंगे तो भविष्य में जल की पूर्ति कैसे करेंगे। विभिन्न अध्ययनों के बाद मौसम वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रकृति के साथ निर्ममता से पेश आने का सबसे बड़ा संकट अगले दशक में आने ही वाला है और वह यह कि दुनिया में अगला युद्ध पानी के लिए होगा। प्रकृति की बदलती चाल अब हमें चेतावनी देने भी लगी है कि हमें अब चेत जाना चाहिए, अन्यथा प्रकृति मानव को सजा  जरूर देगी, अकाल, सूखा और प्रकृतिजनित अन्य आपदाओं के रूप में। प्रसिद्ध गाँधीवादी और जलयोद्धा अनुपम मिश्र जी का मानना है कि परम्परागत जलस्रोतो के संरक्षण के बल पर ही हम 21वीं सदी में पेयजल के संकट से उबर सकते हैं। उनका मानना है कि वर्ष 2050 में जब भारत की जनसंख्या डेढ़ अरब का आँकड़ा पार चुकी होगी तो देश के सामने जल-संकट एक बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित होगा। लेकिन देश के नीति नियंता इस मुद्दे पर गंभीर नजऱ नहीं आते। उनका कहना है कि पानी का कोई विकल्प नहीं हो सकता, इसकी पर्याप्त उपलब्धता के लिए व्यापक स्तर पर मुहिम चलाने की आवश्यकता है।
 ज्ञात हो कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2013 को अन्तर्राष्ट्रीय जल सलाहकार वर्ष के रूप में घोषित किया है इसे ही ध्यान में रखते हुए गाँधी शाँति प्रतिष्ठान ने मई 2013 से मई 2014 तक एक विशेष अभियान 'जल को जानें  चलाने का निर्णय लिया है। इस विशेष अभियान का उद्देश्य जल का महत्त्व, संबंधित विचार, स्रोतों की बुनियादी समझ, पानी के प्रति पारंपरिक व आधुनिक दृष्टि, चुनौती व समाधान जैसे मसलों को लोगों के मध्य ले जाना होगा। खासतौर पर शिक्षण संस्थाओं और युवाओं के बीच पानी की बात पहुँचाने का प्रयास किया जाएगा।  गाँधी शांति प्रतिष्ठान की तरह ही जल को लेकर सक्रिय  तरुण भारत संघ के राजेंद्र सिंह' जल जन जोड़ो  अभियान शुरू करने जा रहे हैं। उनके अनुसार पानी के प्रति समझ और जागरूकता की जरूरत गाँवों की बजाय शहरों को ज्यादा है; क्योंकि जनसंख्या का दबाव यहाँ ज्यादा है। अत: वहाँ पानी के अंधाधुंध दोहन को रोकने, उपचारित पानी के उपयोग को बढ़ाने, वर्षा जल-संचयन को अनिवार्य करने सहित कई उपायों पर समग्र अभियान चलाया जाएगा।
इस तरह के अभियान आज पूरे देश में हर शहर और हर गाँव में चलाए जाने की जरूरत है।  शिक्षण संस्थानों में बच्चों को इस गंभीर समस्या के प्रति जागरूक करना होगा। अपने परम्परागत स्रोतों को बचाने के लिए मुहीम चलानी होगी। सामाजिक संगठनों, संस्थाओं को आगे आकर सरकार पर दबाव बनाना होगा कि वे विकास के नाम पर देश को विनाश की ओर न ले जाएँ। हम जल संरक्षण के परम्परागत स्रोतों को अपना कर ही अपनी संस्कृति और प्रकृति की रक्षा कर सकते हैं। ...  तो आइए आने वाले जल संकट की आहट को पहचानें और सब मिलकर इस गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो जाएँ।      
                                                                                                            -डॉ. रत्ना वर्मा

1 comment:

अमित वर्मा said...

जल का महत्व हमारे जीवन में क्या महत्व रखता है इसका अंदाज़ा हमें अपनी राष्ट्र भाषा में गढ़े मुहावरों को देखकर कर सकते है आज जल की स्थिति देखकर हमारे चेहरे का पानी तो उतर ही गया है, मरने के लिए भी अब चुल्लू भर पानी भी नहीं बचा, अब तो शर्म से चेहरा भी पानी- पानी नहीं होता, हमने बहुतों को पानी पिलाया, पर अब पानी हमें रुलाएगा। सोचो तो वह रोना कैसा होगा, जब हमारी आँखों में ही पानी नहीं रहेगा। वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आँखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएँगे।

जल स्वयं में देवता, देवताओं का अर्पण और पितरों का तर्पण। जिन्दा को जल, जलने पर जल, मरने पर जल, कितना महत्वपूर्ण है जल। तभी तो आज भी प्रथम अनिवार्य आवश्यकता जल ही जीवन है। इस तथ्य को दुनिया की सभी सरकारें एवं सामाजिक संस्थाएँ आत्मसात् किये हुए हैं। आज के उपभोक्तावादी युग में जल का प्रबंधन एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में स्वीकृत हो रहा है।

पूर्वानुमान के तहत अगले विश्वयुद्ध का कारण पानी बताया जा रहा है। जलसंकट की चुनौती का सामना करना किसी एक के बूते की बात नहीं है। इसके लिए एक साधारण इन्सान से लेकर प्रशासन, स्वयंसेवी संगठन, मीडिया आदि के समन्वित प्रयासों की जरूरत है। ये सारे प्रयास जो गर्मी आने पर किए जा रहे हैं, पहले से लागू किये जाने चाहिए। अंतिम समय में सारे नियम- कायदे लागू करने का अर्थ यही है कि पूरे साल हमने / सरकार ने क्या किया ? जबकि हम देख रहे हैं कि हर साल बारिश से मिलने वाले पानी में लगातार कमी आ रही है। न तो हम और आप, न ही सरकार इन सभी परेशानियों का हल ढूंढ़ रही है। न तो बारिश में हम वृक्षारोपण करते हैं न बारिश के पानी को सहेजते हैं बल्कि विकास के नाम पर जंगलों की अधाधुंध कटाई कर इन्हें कंकरीट के जंगलों और सीमेंट की सड़कों में तब्दील करने में मस्त हैं। पानी का प्रबंधन नहीं कर पाना यानी आने वाली पीढ़ी के लिए सैकड़ों समस्याएं छोड़कर जाना। पानी के लिए हो रही इस फजीहत का कारण इतना ही है कि इसके प्रबंधन के लिए वाकई गंभीरता से कोई प्रयास किए ही नहीं जा रहे। यदि ऐसा होता तो तो कंकरीट के जंगलों और सीमेंटेड सड़कें बनाने से पहले कई सवाल उठाए जाते। सड़कों के किनारे खड़े घने छायादार पेड़ों की विकास के नाम कटाई नहीं होती और इनके बदले रोपी गई झाडियों का हिसाब मांगा जाता। हमारे शहर के आसपास तालाबों के किनारों तक मकान नहीं बन जाते और न ही कई जगह उन पर कालोनियां बस जाती।