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Apr 13, 2013

ग्रामीण अर्थव्यवस्था


समृद्धि से कोसो दूर हमारे गाँव
- राम शिव मूर्ति यादव
 'गरीबी बनाम अमीरीएवं 'ग्रामीण बनाम शहरीकी बहस बड़ी पुरानी है। सभ्यता के आरम्भ में यह गैप उतना नहीं रहा होगा, जितना समकालीन समाज में। कार्ल मार्क्स ने भी वर्ग-संघर्ष की अपनी परिभाषा प्रभु और सर्वहारा वर्ग या शोषक और शोषित के आधार पर ही दी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत हजारों वर्ष से गाँवों का देश रहा है। ग्राम्य व्यवस्था व राज्य व्यवस्था का यहाँ अद्भुत तादात्म्य देखने को मिलता है। भारतीय ग्राम्य व्यवस्था पर कभी राजनीति हावी नहीं रही, इसलिए वह स्वायत्त रूप से चलती रही है। वक्त के साथ अनेक थपेड़ों ने भारतीय संस्कृति पर हमला किया पर ग्राम्य व्यवस्था ने हजारों वर्षों से इस संस्कृति की रक्षा की। तभी तो पाश ने अपनी कविता में लिखा कि भारत नाम दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर नहीं बल्कि उन भूमिपुत्रों के नाम पर पड़ा है, जो आज भी सूरज की परछाइयों से समय मापते हैं। शहरों का विकास भी ग्राम्य व्यवस्था के फलने-फूलने पर ही हुआ पर आजादी पश्चात गाँव व शहर के बीच का अन्तराल बढ़ता गया। गाँवों की कीमत पर शहर फलने-फूलने लगे और नतीजन गाँव गरीबों का जमावड़ा हो गया और शहर अमीरों का। इसी के साथ 'इण्डिया  बनाम 'भारत  का मुहावरा चल निकला।
हमारा देश प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर है और हमारे युवा मानव संसाधन के क्षेत्र में अमेरिका-ब्रिटेन जैसे विकसित देशों तक अपनी सफलता की पताका फहरा रहे हैं, फिर भी आम आदमी उपेक्षित है। गाँवों के कल्याण के लिए तमाम योजनाएँ बनाई गई, पर राजनैतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति के अभाव में वे अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकीं। 1962 में लोकसभा में गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ सिंह गहमरी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में व्याप्त गरीबी की दास्तान सुनाते हुए कहा कि वहाँ गरीब गोबर से अनाज का दाना निकाल कर खाने को मजबूर हैं, तो नेहरू की आँखें भी छलक आईं थीं। शायद इसी विडम्बना पर कविवर धूमिल ने लिखा था- भाषा में भदेस हूँ,, कायर इतना कि उत्तर प्रदेश हूँ।  प्रधानमंत्री रहते हुए राजीव गाँधी ने भी स्वीकारा था कि केन्द्र से भेजे गए एक रूपए में से मात्र 15 पैसा ही अंतिम व्यक्ति तक पहुँचता है। स्पष्ट है कि सारा धन भ्रष्टाचार के नाले में जा रहा है। आजादी पश्चात् सरकारों की प्राथमिकता में शहरों का ही विकास रहा। गाँवों की कीमत पर शहरों को हर तरह की सुख-सुविधाओं से भरपूर करना एक तरह का आन्तरिक उपनिवेशवाद ही कहा जायेगा, जिसने तमाम समस्याओं को जन्म दिया। भूमण्डलीकरण के बहाने तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ गाँवों तक पहुँच रही हैं और परम्परागत कृषि व्यवस्था पर चोट कर रही हैं। जो किसान अपनी आजीविका के लिए कृषि कार्य करता था, उसे परम्परागत खेती छोड़कर बागवानी और अन्य नकदी फसलों की खेती करने के लिए लालच दिया जा रहा है। दूसरों के लिए ठेके पर खेती की इस प्रवृत्ति को बढ़ाने के कारण गेहूँ की पैदावार लक्ष्य से पीछे खिसकने लगी और नतीजन विदेशों से गेहूँ का आयात हो रहा है। किसानों को अपनी मनपसन्द फसल उगाने की बजाय रिटेल स्टोरों में बेचने के लिए उत्पाद पैदा करने को कहा जा रहा है। ठेके पर लहलहाती फसल चौपट हो जाती है तो किसानों की पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं होता। विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर कम दामों में किसानों की जमीन लेकर एक तरह से उन्हें पलायन के लिए मजबूर किया जा रहा है। स्पष्ट है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए किसान नागरिक नहीं उपभोक्ता है।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा गौण होती गई। गाँवों में बसने वाले किसानों, मजदूरों, शिल्पकारों को सरकार ने उनके भाग्य पर छोड़ दिया। बढ़ती महँगाई और बेरोजगारी के बीच जैसे-जैसे अमीरी-गरीबी का फासला बढ़ता गया, वैसे-वैसे किसानों की आत्महत्या, भूखमरी से मौत और सामाजिक विषमता जैसी प्रवृत्तियाँ बढ़ती गई। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों पर गौर करें तो देश में वर्ष 2002 तक औसतन हर 30 मिनट में एक किसान ने आत्महत्या की। वर्ष 2005 में 17131, वर्ष 2006 में 17060 तो 1997 से 2006 के बीच कुल 78737 किसानों ने आत्महत्या की। तस्वीर का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि ज्यादातर आत्महत्या करने वाले किसान समृद्ध प्रान्तों के हैं। अकेले महाराष्ट्र में वर्ष 1995 से अब तक 36428 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग दो करोड़ लोग जमीन से बेदखल किये जा चुके हैं और इनमें से केवल 54 लाख लोगों को ही पुनर्स्थापित किया गया है। स्पेशल इकानामिक जोन किस प्रकार स्पेशल एलिमिनेशन जोन में तब्दील हो रहे हैं, वह महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे सेज राज्यों में किसानों की आत्महत्या में 6.2 फीसदी की वृद्धि स्वयमेव दर्शाती है।
सबसे बड़ा अन्तर्विरोध तो यह है कि सरकार आर्थिक समृद्धि के गीत गा रही है जबकि देश का एक बड़ा तबका इस समृद्धि से कोसों दूर है। सबको विकास की एक ही लाठी से हाँकने के कारण जो अमीर हैं वे अमीर हो रहे हैं, और गरीब दिनों-ब-दिन गरीब हो रहा है। आधुनिक परिवेश में आर्थिक विकास की बात करने पर भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण का चित्र दिमाग में आता है। संसद से लेकर सड़कों तक जी.डी.पी. व शेयर-सेंसेक्स के बहाने आर्थिक विकास की धूम मची है और मीडिया भी इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। जिस देश के संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की गई हो, वहाँ सामाजिक विकास की बात गौण हो गई है। सरकार यह भूल रही है कि पूँजीवाद, समाजवाद या अन्य कोई वाद मात्र साधन है, साध्य नहीं। साध्य तो समग्र समाज के विकास में निहित है, न कि एक सीमित भाग के विकास में। यहाँ तक कि नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन ने भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में इंगित किया है कि- शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी आधारभूत सामाजिक आवश्यकताओं के अभाव में उदारीकरण का कोई अर्थ नहीं है। आर्थिक विकास में जहाँ पूजीपतियों, ,उद्योगपतियों, ,बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अर्थात् राष्ट्र के
मुट्ठी भर लोगों को लाभ होता है, वहीं भारत का बहुसंख्यक वर्ग इससे वंचित रह जाता है या नगण्य लाभ ही उठा पाता है। इस प्रकार ट्रिंकल डाउन का सिद्धान्त फेल हो जाता है। अत: सामाजिक विकास जो कि बहुसंख्यक वर्ग की आधारभूत आवश्यकताओं के पूरी होने पर निर्भर है, के अभाव में राष्ट्र का समग्र और चहुँमुखी विकास सम्भव नहीं है। एक तरफ गरीब व्यक्ति अपनी गरीबी से परेशान है तो दूसरी तरफ देश में करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। तमाम कम्पनियों पर करोड़ों रुपये से अधिक का आयकर बकाया है तो इन्हीं पूँजीपतियों पर बैंकों का भी करोड़ों रुपये शेष है। डॉ. अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री ने स्पष्ट इंगित किया है कि समस्या उत्पादन की नहीं, बल्कि समान वितरण की है। आर्थिक विकास में पूँजी और संसाधनों का केन्द्रीकरण होता है जो कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के खिलाफ है। फिर भी तमाम सरकारें सामाजिक विकास के मार्ग में अवरोध पैदा करती रहती हैं। जिस देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या नगरीय सुविधाओं से दूर हो, एक तिहाई जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे हो, लगभग 35 प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित हो, जहाँ गरीबी के चलते करोड़ों बच्चे खेलने-कूदने की उम्र में बालश्रम में झोंक दिये जाते हों, जहाँ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में हर साल हजारों किसान फसल चौपट होने पर आत्महत्या कर लेते हों, जहाँ बेरोजगारी सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी हो-वहाँ शिक्षा को मँहगा किया जा रहा है, सार्वजनिक संस्थानों को  औने-पौने दामों में बेचकर निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, सरकारी नौकरियाँ खत्म की जा रही हैं, सब्सिडी दिनों-दिन घटाई जा रही है, निश्चितत: यह राष्ट्र के विकास के लिए शुभ संकेत नहीं है।
 सरकार द्वारा जारी नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट पर गौर करें तो शहरी बनाम ग्रामीण का द्वन्द्व खुलकर सामने आता है। इसके अनुसार अभी भी ग्रामीण आबादी का पाँचवा हिस्सा (लगभग 14 करोड़) मात्र 12 रुपये रोजाना में जीवन जीने को अभिशप्त है। 19 फीसदी ग्रामीणों के पास अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए सालाना 365 रुपये भी नहीं जुड़ते। गाँवों का पाचवाँ हिस्सा मिट्टी से बनी दीवारों और छतों के नीचे रहने को विवश हैं तो 31 फीसदी ग्रामीण बमुश्किल छत या दीवार में से किसी एक को पक्का करने का इन्तजाम कर पाये हैं। उत्पादकता के बावजूद गाँव वाले 251-400 रूपये में भोजन का काम चला रहे हैं जबकि शहरी क्षेत्रों में भोजन पर 451-500 रुपये मासिक खर्च किये जा रहे हैं। इससे बड़ी विसंगति और क्या हो सकती है कि ग्रामीणों की आय का आधा से ज्यादा हिस्सा अर्थात 1 रुपये में 53 पैसे भोजन जुटाने पर खर्च हो रहा है जबकि शहरी बाबू लोग कमाई अधिक होने के बावजूद मात्र 40 पैसे खर्च कर रहे हैं। सरकार भले ही बड़े-बड़े दावे करे और ग्रामीणों के नाम पर सब्सिडी जारी करे, पर असलियत कुछ और ही है। तमाम सब्सिडी के बावजूद रसोई गैस सिर्फ़ 9 फीसदी ग्रामीणों के नसीब में है, तीन चौथाई ग्रामीण आबादी अभी भी गोबर व सूखी लकड़ी पर निर्भर हैं। 42 फीसदी ग्रामीण बिजली पर सब्सिडी के बावजूद अँधेरा दूर करने हेतु केरोसिन पर निर्भर हैं। शहरी बनाम ग्रामीण का सबसे ज्वलंत उदाहरण उनकी व्यय- शक्ति है। शहरी भारत जहाँ हर माह 1171 रुपये खर्च कर रहा है, वहीं ग्रामीण भारत मात्र 625 रुपये। यह स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। ऐसे में आर्थिक विकास के साथ-साथ आर्थिक विषमता की चौड़ी होती खाई को भी पाटना जरूरी है ; क्योंकि करोड़ों लोगों को फटेहाल रख कर राष्ट्र की समृद्धि का सपना नहीं देखा जा सकता। राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ सर्वेक्षण के आँकड़े गवाह हैं कि दुनिया की सबसे विशाल खेती व राशन प्रणाली की इतनी मजबूत व्यवस्था होने के बावजूद आज देश में 33 फीसदी वयस्क और तीन वर्ष से कम उम्र के 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। हालात यह हैं कि नेपाल, बांगलादेश व अफ्रीकी राष्ट्र भी इस मामले में हम से बेहतर हैं। एक तरफ  इस बात पर जश्न कि भारत के मुम्बई स्टाक एक्सचेंज व नेशनल स्टाक एक्सचेंज दुनिया के शीर्ष बारह शेयर बाजारों में शुमार हो चुके हैं, और वर्ष 2007 में भारत में करोड़पतियों की संख्या बीते वर्ष के एक लाख से बढ़कर 1,23,000 हो गई है, जो कि दुनिया में सर्वाधिक वृद्धि है, दूसरी तरफ उपरोक्त दर्शाई गई स्थिति स्वयमेव भूमण्डलीकरण व उदारीकरण के अर्न्तद्वन्द को स्पष्ट कर रही है। स्वतंत्रता की स्वर्णजयंती की पूर्व संध्या पर अपने उद्बोधन में तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन के शब्द हमें समाज का चेहरा दिखाते हैं-उदारीकरण से उपजी विषमता यूँ ही बढ़ती रही और धन का अश्लील प्रदर्शन जारी रहा तो समाज में सिर्फ अशांति फैलेगी। उथल-पुथल की इस आँधी में सिर्फ गरीब की झोपड़ी ही नहीं उड़ेगी, अमीरों की आलीशान कोठियाँ भी उजड़ जाएँगी।
 अमेरिका के चर्चित विचारक नोम चोमस्की ने भी हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में भारत में बढ़़ते द्वन्द्व पर खुलकर चर्चा की है। चोमस्की का स्पष्ट मानना है कि भारत में जिस प्रकार के विकास से आर्थिक दर में वृद्धि हुई है, उसका भारत की अधिकांश जनसंख्या से कोई सीधा वास्ता नहीं दिखता। यही कारण है कि भारत सकल घरेलू उत्पाद के मामले में जहाँ पूरे विश्व में चतुर्थ स्थान पर है, वहीं मानव विकास के अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों मसलन, दीर्घायु और स्वस्थ जीवन, शिक्षा, जीवन स्तर इत्यादि के आधार पर विश्व में 126 वें नम्बर पर है। आम जनता की आर्थिक स्थिति पर गौर करें तो भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के 54 सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट की मानें तो जैसे-जैसे भारत की विकास दर में वृद्धि हुई है, वैसे-वैसे यहाँ मानव विकास का स्तर गिरा है। आज 0-5 वर्ष की आयुवर्ग के भारतीय बच्चों में से लगभग 50 फीसदी कुपोषित हैं तथा प्रति 1000 हजार नवजात बच्चों में 60 फीसदी से ज्यादा पहले वर्ष में ही काल-कवलित हो जाते हैं। स्पष्ट है कि उपरी तौर पर भारत में विकास का जो रूप दिखायी दे रहा है, उसका सुख मुट्ठी भर लोग ही उठा रहे हैं, ; जबकि समाज का निचला स्तर इस विकास से कोसों दूर है।
अब समय आ गया है कि गरीब, किसान, ,मजदूर,, दलित, ,पिछड़े और आदिवासी वर्गों में व्यापक चेतना तथा जागरूकता पैदा की जाए? जिससे वे अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सरकारों को बाध्य कर सकें याद कीजिए 1789 में पेरिस में हुई पहली राज्य क्रान्ति, जहाँ लोग राजा से रोटी माँगने के लिए 18 कि.मी. दूर वर्साय तक पहुँच गये थे। अमेरिका में अश्वेतों के लिए ऐतिहासिक मार्च कर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 1963 में सफलता अर्जित की तो भारत में गाँधी जी ने जनादेश यात्राओं के दम पर अंग्रेजों को भारत छोडऩे पर मजबूर कर दिया। इस परम्परा को समय-समय पर आजमाया गया। वस्तुत: सामन्तवादी समाज और पूँजीवादी व्यवस्था के लोकतांत्रिक मूल्यों से टकराव का दुष्परिणाम छोटे किसानों, मजदूरों, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को ही प्राय: भुगतना पड़ा है। यह इस बात का भी परिचायक है कि 9 प्रतिशत से ज्यादा की आर्थिक विकास दर और सेंसेक्स की ऊँचाइयों के साथ विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देखने से पहले सामन्तवादी मूल्यों में जकड़े समाज की मुक्ति का मार्ग भी ढूँढऩा होगा। स्वयं रिजर्व बैंक के गर्वनर वाई.वी.रेड्डी ने चेतावनी दी है कि 9 प्रतिशत सालाना की विकास दर भारत के खेतिहर और गैर-खेतिहर परिवारों के बीच मौजूद विषमता को और बढ़ा देगी।
 आज जरूरत है कि राष्ट्र की वास्तविक समस्याओं को उनके मूल परिप्रेक्ष्य में देखा जाय। ग्रामीण व शहरी वर्ग के अन्तर को कम किया जाय। ग्रामीणों की कीमत पर शहरी क्षेत्र का विकास और गरीबों की कीमत पर अमीरी का जश्न तमाम आर्थिक विकास के बावजूद राष्ट्र को रसाताल में ही ले गा। कभी हिन्दू विकास दर कही जाने वाली 4 प्रतिशत की भारतीय अर्थव्यवस्था आज 9 प्रतिशत पर खड़ी है पर सरकार की गलत नीतियों के चलते  द्वन्द्व बढ़ता ही जा रहा है पर व्यवस्था के पहरूये आँख व कान बन्द कर सो पड़े हैं। आम लोगों का उनकी जरूरतों की तरफ से ध्यान हटाने के लिए वे सदैव नाना प्रकार के स्वांग रचते रहते हैं। कभी मन्दिर-मस्जिद, कभी राष्ट्रवाद, कभी साम्प्रदायिकता, कभी कश्मीर तो कभी आतंकवाद की बात उठाकर लोगों को गुमराह किया जाता है जिससे मूल मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। जरूरत है कि सबके साथ समान व्यवहार किया जाये, सबको समान अवसर प्रदान किया जाये और जो वर्ग सदियों से दमित-शोषित रहा है उसे संविधान में प्रदत्त विशेष अवसर और अधिकार देकर आगे बढऩे का मार्ग प्रशस्त किया जाये, तभी इस देश में अमीरी-गरीबी की खाई कम होगी, इण्डिया बनाम भारत का द्वन्द्व खत्म होगा, सामाजिक न्याय व सामाजिक लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त होगा और भारत एक समृद्ध राष्ट्र के रूप में विश्व के मानचित्र पर अपना अग्रणी स्थान बना सकेगा।


लेखक के बारे में-  20 दिसम्बर 1943 को सरांवा, जौनपुर (उ.प्र.) में जन्म। काशी विद्यापीठ, वाराणसी से 1964 में समाज शास्त्र में एम.ए.। वर्ष 1967में  खण्ड प्रसार शिक्षक (कालांतर में 'स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी (पदनाम परिवर्तित) के पद पर चयन। आरंभ से ही अध्ययन-लेखन में अभिरुचि। उत्तर प्रदेश सरकार में वर्ष 2003 में स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति पश्चात् सम्प्रति रचनात्मक लेखन व अध्ययन, बौद्धिक विमर्श एवं सामाजिक कार्यों में रचनात्मक भागीदारी।
 साहित्य, लेखन और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में चर्चित नाम। सामाजिक व्यवस्था एवं आरक्षण (1990) नामक पुस्तक प्रकाशित। लेखों का एक अन्य संग्रह प्रेस में। भारतीय विचारक, नई सहस्राब्दि का महिला सशक्तीकरण: अवधारणा, चिंतन एवं सरोकार, नई सहस्राब्दि का दलित आंदोलन: मिथक एवं यथार्थ सहित कई चर्चित पुस्तकों में लेख संकलित।
 देश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं: में विभिन्न विषयों पर लेख प्रकाशित। यदुकुल ब्लॉग (http://www.yadukul.blogspot.com) का 10 नवम्बर 2008 से सतत् संचालन।
संपर्कः स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी (सेवानिवृत्त)
तहबरपुर, पो.- टीकापुर, आजमगढ़ (उ.प्र.)276208,

1 comment:

अमित वर्मा said...

‘भारत- निर्माण’ ‘अतुल्य- भारत’ तथा ‘इंडिया विज़न- २०२०’ जैसे आकर्षक और लोकलुभावन नारों के बीच आज हमें २१वीं सदी में आये एक दशक से ज्यादा हो चुका है | क्या वाकई हम अपने आप को उपरोक्त आदर्शवादी और आशावादी सपने को वास्तविक धरातल पर पाते है ??
कहा जाता है की मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता होता है | इतिहास साक्षी है हमारे ‘भाग्य निर्माण’ का और ‘भारत निर्माण’ का | भारत गावों का देश, जहाँ क़रीब ६ लाख गावं और गावों का भाग्य निर्माता, भारतीय ग्रामीण किसान | हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि तथा उसकी मजबूती का मूलाधार ग्रामीण कृषक | आज नयी सदी के भारत का ब्रिटिश नीति ‘इंडिया’ अपने भाग्य निर्माता का मूल्याकन नहीं करना चाहता ........और करे भी क्यों ?..........क्योंकि गुलाम मानसिकता वाले राष्ट्र का मूल्यांकन करे कौन ??
आज जब हम अपनी प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा का सिंहावलोकन करे तो पाते है कि इस सांस्कृतिक समृध्दि के पीछे एक मजबूत आर्थिक- सामजिक अवसंरचना (Infrastructure) का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है | तभी हम संसार की प्राचीनतम सजीव सभ्यता एवं संस्कृतियों में से है |
वर्तमान परिदृश्य में हमारी समाजगत जटिलता के मूल में, सांस्कृतिक समन्वय एवं ग्रामीण सामाजिक अधोसंरचना तथा एक राष्ट्र की अवधारणा की केन्द्रीय भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता है | फिर भी आज सबसे ज्यादा उपेक्षित और तिरस्कृत यही पक्ष ”भारत” है | हमारी दिव्आयामी मानसिकता तथा उससे उपजी दिव् राष्ट्र की अवधारणा ......जिसमे पहला पक्ष ‘भारत’ और दूसरा पक्ष ‘इन्डिया’ |
आज हमारे सामने की द्वन्द की स्थिति है, जिसमे यही दोनों पक्ष आमने सामने है और उसमे भी ‘इन्डिया’ का पक्ष ‘भारत’ पर हावी है |
निष्कर्ष सिर्फ इतना ही नहीं होगा की इंडिया सिर्फ एक Economic Hub के रूप में विकसित होता एक बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार है ........बल्कि निष्कर्ष ये भी होगा कि भारत गरीबी भुखमरी और गुलामी की तरफ बढ़ रहा है | आज यह गुलामी हमारी मानसिक और बौद्धिक गुलामी का प्रतीक बन रही है|
आज हमारे हाँथों में मोबाइल फ़ोन तो है पर श्रम करने की ताकत नहीं, विकसित बनने की चाह तो है मगर चेतना दृढ़ संकल्पित नहीं, आज भारत साक्षरता प्रतिशत में तो वद्धि कर रहा है पर सुशिक्षित समाज की अवकल्पना से मीलो दूर है .......क्या यही है २१वीं सदी का भारत ?