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Oct 1, 2024

रत्नकुमार साँभरिया की दो लघुकथाएँ

1. फूल
ओह! आज तो मन्दिर जाने में देर हो गई ।दादी माँ ने दीवार घड़ी की ओर देखा। वे उतावली में गमले में लगे गुलाब के फूल को तोड़ने के लिए आगे बढ़ीं, तो उनका पाँचेक साल का पोता जिद कर बैठा कि फूल वह लेगा । दादी माँ ने जब उसे फूल न लेने के लिए कहा, तो वह रो-रोकर जिद पकड़ गया। वे उसको दुलारती हुई कहने लगीं-बेटे ,मैं तुम्हें ऐसे ही फूल मँगवा दूँगी; लेकिन ये अपने घर के गुलाब हैं, मैंने इनको भगवान् के लिए रखा हुआ है।”

रोते-रोते बच्चे की साँस फूलने लगी थीं। दादी माँ की पूजा और बच्चे की ज़िद को लेकर पूरा परिवार दो खेमों में बँट गया था । कुछ का मानना था -बच्चे भगवान् का रूप होते हैं । फूल…। परिवार के दूसरे लोग कुपित थे कि दादी माँ की पूजा में विघ्न पड़ा तो, भगवान् नाराज़ होंगे ।

दादी माँ ने जब फूलों की ओर देखा, तो उनकी आँखें वहीं रुक गईं। फूलों का व्यथित मन मानों कह रह था-आदमी भी कितना नासमझ है ! वह अपने हाथों बनाए भगवान् के सामने खुद गिड़गिड़ाता है, हमें सूख-सूखकर मरने के लिए उसके चरणों में फेंक आता है ।

दादी माँ मानो सोकर जागीं । फूल लेकर बच्चे के हाथ में थमाया। और आँसुओं से धुले उसके गालों को चूमने लगी।




2. अन्तर

घोड़े की पीठ पर दिनभर पड़ी चाबुकें नील बनकर उभर आईं थीं। उसके एक–एक रोएँ में लहू चुहचुहा रहा था। वह टीस के मारे बार–बार पैर पटकता था, गर्दन झटकता था। घोड़ा पीठ के असहनीय दर्द को आँसुओं में बहा देना चाहता था, भूखी कुलबुलाती अंतड़ियों ने उसे चारे में थूथन गड़ाने के लिए विवश कर दिया।

एकाएक घोड़े की गीली आँखें अपने मालिक की ओर घूमीं। वह घोड़े के पास ही चारपाई डाले बैठा था और चाबुक से छिली अपनी हथेली पर मेहंदी लगा रहा था। घोड़े का मन व्यथित हो गया। उसकी आँखें डबडबा आईं। वह चारा छोड़कर थोड़ा आगे बढ़ा। घोड़ा चाबुक से आहत अपने मालिक की हथेली को अपनी नर्म–नर्म जीभ से सहलाने लगा था।

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