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Oct 1, 2024

कविताः आदर्श स्त्री

 -मंजूषा मन

हर ख़्वाहिश के साथ

थोड़ा मर जाती है स्त्री।

स्त्री के भीतर का थोड़ा हिस्सा

हर बार मर जाता है,

ख़्वाहिश के मरने से।

 

ऐसे ही थोड़ा- थोड़ा मरकर

एक दिन

स्त्री पूरी मर जाती है।

फिर स्त्री में

कहीं नहीं बचती स्त्री।

 

रह जाती है बस

एक मिट्टी की गुड़िया

संवेदनाओं से रिक्त।

नहीं करती

किसी बात का विरोध,

नहीं रूठती कभी,

न कभी करती है जिद,

कुछ माँगती भी नहीं,

जो कहो सब करती है।

 

आदर्श स्त्री

समझी जाती है

मरी हुई स्त्री।

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