- डॉ. महेश परिमल
देश में 2.49 लाख करोड़ का होगा जंक फूड उद्योग, विश्व में भले ही जंक फूड का कारोबार घटा हो, पर हमारे देश में यह बहुत ही तेजी से बढ़़ रहा है। इसके पीछे बहुत ही वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह है भारत में विभिन्न माध्यमों में दिखाए जाने वाले जंक फूड के लोक-लुभावन विज्ञापन। इसका पूरा फायदा बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उठा रहीं हैं। यह वजह तो हमारे सामने है, पर हम कुछ भी नहीं कर सकते। इस दिशा में सरकार जागेगी अवश्य, पर हमेशा की तरह देर से। दूसरी सबसे बड़ी वजह है, जो हमारे बिलकुल करीब है। हम रोज ही उससे दो-चार होते ही हैं। पर हमें वह दिखाई नहीं देती। देगी भी नहीं; क्योंकि यह एक ऐसा व्यामोह है, जिसमें हम सब उलझे हुए हैं। हम चाहकर भी उससे छुटकारा नहीं पा सकते।
दूसरी वजह पर चर्चा करने के पहले एक बार अपने मोहल्ले या कॉलोनी के गेट पर सुबह-सुबह खड़े हो जाएँ। यह संभव न हो,तो आप दिन में एक बार कॉलोनी के गेट पर आने वालों की सूची ही देख लें। आप पाएँगे कि आने वालों में अधिकतर आयातित नाश्ता या भोजन लाने वाले विभिन्न उत्पादन कंपनियों के कर्मचारी ही होंगे। आखिर ये क्या हो रहा है? क्या लोगों ने घर पर नाश्ता या भोजन बनाना छोड़ दिया? या घर में खाना बनाने वाली या कामवाली बाइयों ने हड़ताल कर दी? क्या अब माँ के हाथ का खाना बच्चों को अच्छा नहीं लगता? या खाना बनाने वाले रामू चाचा के हाथों पर अब वह दम नहीं रहा। उनके बनाए भोजन पर अब उँगलियाँ चाटने का मन नहीं करता? वह खाना जिसे बनाने में माँ खुद को झोंक देती थी, अब वही खाना क्यों हमें अरुचिकर लग रहा है? कमी कहाँ रह गई है, कभी सोचा आपने? फास्ट फूड का यह व्यापार आज इसीलिए लगातार बढ़ रहा है; क्योंकि पहली वजह पर तो कभी न कभी काबू पा ही लिया जाएगा; लेकिन दूसरी बड़ी वजह आज आपके सामने है, इसे आप शायद कभी काबू नहीं पा पाएँगे।बड़ा शहर हो या छोटा शहर, आज वहाँ तुरंत घर के दरवाजे पर आने वाला खाना सभी को रुचिकर लग रहा है। आपने भी कभी न कभी तो उस आयातित भोजन को चखा ही होगा। कितना मसालेदार, कितना तैलीय, कितना कुरकुरा और कितना लजीज होता होगा। इसका अंदाजा तो आपने अवश्य लगाया होगा। उस मसालेदार और कथित लजीज भोजन के सामने माँ, बहन या पत्नी के हाथों बना नाश्ता या भोजन काफी फीका लगता होगा ना? आप कहेंगे कि मुझे यह सब बिलकुल भी पसंद नहीं, मैं सादा भोजन करने में विश्वास करता हूँ। पर घर की देहरी पर जब आयातित भोजन लाने वाला कर्मचारी आ खड़ा होता है, तो आप भी थोड़ी देर के लिए ललचा तो जाते ही होंगे। अगर आप अपनी जिद पर अड़े रहे, तो फिर बच्चों को क्या जवाब दोगे? वह तो अपनी खुशी में आपको शामिल करना चाहते हैं; पर आपको उनकी खुशी सुहाती नहीं है। आप बच्चों के सामने बुरे बन जाएँगे। भविष्य में बच्चे आपको दकियानूसी मानेंगे और फिर वे घर में मँगाना बंद कर बाहर से ही वह आयातित भोजन ग्रहण करके आएँगे। तब आप क्या करेंगे? आप कितनी भी कोशिश कर लें, यह मायाजाल आपको उलझाकर ही रहेगा। आप पार्टी में भी जाकर अनजान बन सकते हैं। भीड़ में अकेले हो सकते हैं। आप अपनी सादगी का राग वहाँ नहीं अलाप सकते। आपको कदम-कदम पर इसका सामना करना ही होगा।यह सच है कि आजकल बच्चों को माँ के हाथ का भोजन अच्छा नहीं लगता। हर माँ की यही शिकायत होती है कि मेरा बच्चा रोज टिफिन ऐसे ही वापस ले आता है। मैं कितना भी अच्छा बनाऊँ, पर इसे तो अपने दोस्तों का ही खाना अच्छा लगता है। बच्चों के दोस्तों की मम्मी ऐसा क्या बनाती है, जो मेरे बच्चे को अच्छा लगता है? इसका राज यदि कभी जानने का अवसर मिलता है, तो बच्चे के दोस्त की मम्मी कह देती है कि उसने तो अपनी माँ या सास से सीखा है। मेरे बच्चे मेरे हाथ का खाना कभी जूठा नहीं छोड़ते। पर इसके पीछे का रहस्य कोई नहीं जानता। या तो वे भी आयातित नाश्ते या भोजन के प्रेमी हैं, या फिर उन्होंने अपने यहाँ कोई मोटे वेतन वाला कुक रखा है। जो सभी के लिए उनके अनुसार रुचिकर नाश्ता या भोजन बनाता है।
वास्तव में आज महिलाओं का रसोईघर से नाता टूटता जा रहा है। वे रसोई घर में जाकर भोजन बनाने के काम को बहुत ही छोटा मानने लगी हैं। उनका सोचना यही है कि इस काम के बजाए यदि हम दूसरा काम करेंगे, तो हमें अपनी तरह से जीने का अवसर मिलेगा और हम अपनी जिंदगी को ज्यादा ही अच्छी तरीके से जी लेंगी। रसोईघर से नाता टूटने का आशय यही है कि आप अपने भोजन से घर के सदस्यों को संतुष्ट नहीं कर पा रहीं हैं। ऐसे में घर का पुरुष एक दिन कहे कि आज मैं सभी के लिए भोजन बनाऊँगा, तो एक साथ विरोध के कई स्वर मुखर हो जाएँगे। आप रहने दीजिए पापा, आपके भोजन का स्वाद हमको पता है। आपको बनाना हो, तो अपने लिए बना लो, पर हम आपके हाथ का भोजन ग्रहण नहीं करेंगे। इस विरोध के सामने पापा का कद बहुत ही छोटा हो जाता है। पापा सोचते हैं, मैं इनके हाथों का खाना पूरे साल भर खा सकता हूँ, भले ही वह मुझे अच्छा न लगे, पर आज जब मैं सबके लिए अपनी पसंद का भोजन बनाना चाहता हूँ, तो विरोध के इतने स्वर मुखर हो गए? आखिर कहाँ कमी रह गई मेरे संस्कार में?वास्तव में आजकल रसोईघर में जो भोजन तैयार हो रहा है, उसमें समर्पण का पूरी तरह से अभाव है। फोन पर बातचीत के साथ या फिर उससे निकलने वाले गानों की मधुर धुनों के बीच जो भोजन तैयार हो रहा है, उसमें मसाले तो सभी हैं, पर उस समर्पण का पूरी तरह से अभाव है, जो होना चाहिए। इसके साथ ही हम याद करें, बरसों पहले हमारे लिए भोजन बनाती माँ को। वह भोजन बनाते समय यही सोचती रहती थी कि आज मैं जो भोजन बनाऊँगी, उससे मेरे बच्चों का पेट अच्छे से भरेगा, वे भरपेट भोजन करेंगे। यह भोजन भले ही मेरे लिए न बचे, पर मेरे बच्चों को कम न पड़े, ईश्वर यही दया करना। इस भोजन को ग्रहण कर मेरे बच्चे स्वस्थ रहें, मेरी यही कामना है। सोचो, इस विचार के साथ तैयार किया जाने वाला भोजन भला कैसे अरुचिकर हो सकता है? आज की पीढ़ी इस समर्पण को शायद ही समझ पाएगी।
यह भी सच है कि आजकल की माँ भी बहुत व्यस्त हो गई हैं। वे कई भूमिकाओं में विभाजित होती हैं। घर के काम के अलावा उनके पास बहुत से ऐसे काम हैं, जो समाज के लिए अति आवश्यक हैं। उन कामों को संपादित करना भोजन बनाने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि वे ऐसा न करें, तो सोशल मीडिया में वे सभी हाशिए पर आ जाएँगी; इसलिए घर के सदस्यों के लिए भोजन बनाने से भी अधिक समय महत्त्वपूर्ण कामों को करने में लगाती हैं। कामकाजी महिलाओं की तो बात ही न पूछो, उन्हें तो पल भर के लिए चैन नहीं। उन्हें कदम-कदम पर चुनौतियों का सामना करना होता है। रोज नई चुनौतियाँ उन्हें रसोईघर से दूर कर देती हैं। ऐश्वर्यशाली जीवन जीने वाली महिलाएँ केवल रसोईघर तक ही सीमित नहीं हैं, बाकी सभी जगह उनकी उपस्थिति अनिवार्य है। ऐसे में कैसे बन पाएगा रुचिकर भोजन? हम इस आयातित भोजन में ही अपना शेष जीवन देखते भर रह जाएँगे। साथ ही अनजाने में फास्ट फूड ग्रहण कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मोहरे बन जाएँगे। बीमार होकर डॉक्टरों के दरवाजे खटखटाएँगे। मानसिक रोग का शिकार होकर मनोचिकित्सक की देहरी पर अपना माथा टेकेंगे। इसके बाद भी हम तथाकथित बाबाओं, साधु-महात्माओं के दरबार में जाने का एक मौका भी नहीं छोड़ेंगे। ये समाज की सच्ची सच्चाई है, जिस पर कोई सरकार कभी रोक नहीं लगा पाएगी। हम ही इस पर अंकुश लगा सकते हैं, क्या आप इसके लिए तैयार हैं? बोलो….
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1 comment:
सार्थक, सटीक विश्लेषण करता आलेख। बधाई सुदर्शन रत्नाकर
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