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Feb 1, 2022

कविता - धूप, हवा, सूरज, और कोहरा

 - डॉ. सुधा गुप्ता

1-धूप

1

सुबह  बस

ज़रा-सा झाँक जाती

दोपहर आ

छत के पीढ़े बैठ,

गायब होती धूप ।

2

जाड़े की धूप

पुरानी सहेली-सी

गले मिलती

नेह-भरी ऊष्मा  दे

अँकवार भरती ।

3

झलक दिखा

रूपजाल में फँसा

नेह बो गई

मायाविनी थी धूप

छूमन्तर हो गई ।


2-हवाएँ

1

भागती आई

तीखी ठण्डी हवाएँ

सूचना लाई

शीत-सेना लेकर

पौष ने की चढ़ाई ।


3-सूरज

1

मेरे घर में

मनमौजी सूरज

देर से आता

झाँक, नमस्ते कर

तुरत भाग जाता ।

2

भोर होते ही

मचा है हड़कम्प

चुरा सूरज-

चोर हुआ फ़रार

छोड़ा नहीं सुराग।

3

सूरज-कृपा

कुएँ- से आँगन में

धूप का धब्बा

बला की शोखी लिये

उतरा, उड़ गया।




4- कोहरा

1

शीत –ॠतु का

पहला कोहरा लो

आ ही धमका

अन्धी हुई धरती

राह बाट है खोई ।


6 comments:

Anita Manda said...

छत का पीढ़ा, धूप का मानवीकरण, बहुत सुंदर।

शिवजी श्रीवास्तव said...

मनभावन ताँका।सुधा जी की लेखनी को नमन

प्रियंका गुप्ता said...

वाह! क्या शानदार बिंबों का प्रयोग हुआ है। सादर नमन सुधा जी को और बहुत बधाई भी

Satya sharma said...

बहुत ही सुंदर 🙏

ऋता शेखर 'मधु' said...

बहुत सुंदर बिम्ब प्रयोग। आ0 सुधा जी को बधाई व नमन !

सहज साहित्य said...

उत्तम रचनाएँ