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Feb 1, 2022

अनकही - शोर मत करो देवता तपस्या में लीन हैं

- डॉ. रत्ना वर्मा

आस्था मानव जीवन को सम्बल देती है। दुनिया में अलग अलग- अलग धर्म के लोगों की अपनी अलग- अलग आस्थाएँ  होती हैं। पिछले दिनों मनु की नगरी मनाली के नौ गाँव के लोगों की अनोखी आस्था ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। जहाँ मकर संक्रांति की सुबह से देव आदेश लागू हो गए। इस आदेश के अनुसार 42 दिन तक कूल्लू के गोशाल गाँव के साथ आस– पास के अन्य आठ गाँवों के मंदिरों में न पूजा होगी, न घंटियाँ बजेंगी। देवालय की घंटियाँ बाँध दी गई हैं और मंदिर के कपाट विधिपूर्वक बंद कर दिये गए हैं। वहाँ के लोगों की मान्यता है कि गाँव के आराध्य देव गौतम व्यास ऋषि और कंचन नाग देवता इन दिनों विधिपूर्वक स्वर्ग प्रवास के लिए चले गए हैं। इस दौरान देवता तपस्या में लीन रहेंगे, जिसके चलते मंदिर के प्रांगण सहित गाँव का माहौल शांत रहेगा। गाँव के लोग इन दिनों न तो टीवी चलाएँगे, न रेडियो सुनेंगे, यहाँ तक कि वे कुकर में खाना भी नहीं बनाएँगे। इस दौरान गाँव के आराध्यदेव पर मिट्टी छानकर मृदालेप की विधि पूरी की जाएगी। 42 दिन बाद मृदा लेप हटाई जाएगी और देव कार्यक्रम में देवता साल भर की भविष्यवाणी से अवगत करवाएँगे। मृदा लेप हटाने से भविष्यवाणी में यदि कुमकुम निकला तो घाटी वासी खुशी से झूम उठेंगे, जबकि कोयला व बाल निकलने पर उनकी दिक्कतें एक बार फिर बढ़ जाएगी। इन्हें आज के वैज्ञानिक युग में भले ही अंधविश्वास कहेंगे लेकिन घाटी के लोगों के लिए यह परंपरा का हिस्सा है।
आप सब अभी भूले नहीं होंगे जब दो साल पहले मार्च में कोरोना की वजह से पूरे देश ही नहीं दुनिया भर में लॉकडाउन लगाया गया था, तब चारो तरफ से यह खबर आ रही थी कि पर्यावरण शुद्ध हो गया है, आसमान नीला दिखाई दे रहा है। प्रदूषण की वजह से जो पर्वत और घाटियाँ नज़र नहीं आती थीं, वे दिखाई देने लगी थीं आदि- आदि। यही नहीं लोगों के सर्दी खाँसी और साँस की बीमारियों में आश्चर्यजनक रूप से कमी आई थी। जाहिर है लॉकडाउन के कारण ये सब परिवर्तन नज़र आ रहा था, क्योंकि तब प्रदूषण में भारी कमी आई थी। विकास की गाड़ी तब अवश्य थोड़ी थम सी गई थी, पर प्रदूषण की आँधी थम गई थी। इस परिवर्तन को पूरी दुनिया ने महसूस किया था। और तब यहाँ तक कहा जाने लगा था कि यदि पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखना है तो देश में प्रति वर्ष एक माह का लॉकडाउन अनिवार्य कर देना चाहिए। ये तो हुई आज की दुनिया की बात आज जबकि हमारी पूरी दुनिया का पर्यावरण हद से ज्यादा इतना बिगड़ चुका है, हमने अपनी धरती को अपने ही हाथों इतना प्रदूषित कर दिया है कि इसके लिए लाख जतन करने के बाद भी हम पर्यावरण को सुधार नहीं पा रहे हैं । आप खुद सोचिए जब धरती इतनी प्रदूषित भी नहीं थी- हवा शुद्ध थी, चारों तरफ हरियाली थी, तब भी हमारे पूर्वजों को भविष्य की चिंता थी कि यदि हमने अपनी धरती को अपने आस- पास बहने वाली हवा को शुद्ध रखने का जतन नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियाँ शुद्ध हवा के लिए तरस जाएँगी।  
अस्था को बहुत लोग अंधविश्वास के रूप में देखते हैं परंतु आस्था मनुष्य में सकारात्मकता के भाव को दर्शाता है, आस्था ही व्यक्ति को आशावान बनाती है। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण भले ही कुछ लोग आपकी आस्था का गलत फायदा उठाते हों, पर देखा जाए, तो आपका धर्म चाहे वह कोई भी हो, वह सदैव सद्भाव और जनकल्याण का संदेश ही देता है।  एक जागरूक व्यक्ति किसी भी बात पर तभी  विश्वास करता है, जब वह उसे अपने ज्ञान की कसौटी पर खरा पाता है।  यही कारण है कि आदिकाल से चली आ रही आस्था या परंपरा पर अमल करता है। पर कभी- कभी हमारी ये परंपराएँ रूढ़िवादी हो जाती हैं और अपने मूल उद्देश्य से भटककर अंधविश्वास में बदल जाती हैं। ऐसी परंपराएँ  समाज के एक वर्ग विशेष को खोखला करते चली जाती है, जो किसी भी समाज के लिए नुकसानदेह साबित होती हैं। 

अब मनाली के गोशाल गाँव के लोगों की आस्था की बात करें, तो पुराने समय में अवश्य शिखर पर्वतों पर ऋषि मुनियों ने अपने ज्ञान- ध्यान की साधना के लिए शांत वातावरण की तलाश की होगी और जब तक वे तपस्या में लीन रहते थे  तब तक लोगों से शोर न करने की बात कही गई होगी। धीरे-धीरे वहाँ के लोगों ने इस आस्था को अपने जीवन में अपना लिया और फिर यह परंपरा बन गई, जिसका पालन लोग आज तक करते आ रहे हैं। कितना सुखद है यह सोचना और महसूस करना कि 42 दिन के लिए ही सही वहाँ शोर प्रदूषण नहीं होता ( इस दौरान लोग वहाँ कुकर में खाना भी नहीं बनाएँगे क्योंकि सीटी बजने से शोर होगा)। काश ऐसी परंपरा हमारे देश के प्रत्येक शहर और गाँव में लागू हो जाए । हम प्रचार प्रसार के लिए चौक- चौराहों में बड़े- बड़े पोस्टर लगाते हैं, अपने प्रिय नेताओं के कटऑउट लगा कर उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हैं । क्या कभी ऐसा हो सकता है हमें वहाँ यह लिखा हुआ पढ़ने के लिए मिले कि हार्न मत बजाइये हमारे इष्ट देवता तपस्या में लीन हैं। 
हम सब जानते हैं कि धरती की शुद्धता और जीवन को बचाए रखने के लिए मानव ने समय- समय पर कई  नियम कायदे बनाए, जिनका प्रचलन आज भी जारी है। जैसे वृक्षों की पूजा, नदियों की पूजा, तालाब की पूजा, अन्न की पूजा । इस बात को आसानी से इंसान को  समझाने का सबसे अच्छा उपाय उसके प्रति आस्था को जगाना होता है । परंपराएँ हमारे सामाजिक जीवन का एक अमूल्य हिस्सा हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती हैं। किसी भी परंपरा की शुरूआत समाज की खुशहाली के लिए प्रारंभ की जाती है।  अतः आवश्यकता एक ऐसी आस्था को फिर से जगाने की है, जो धरती की हवाओं में घुलते जा रहे जहर को लोगों की साँसों में घुलने बचा सके । यह सब तभी संभव है जब धरती का प्रत्येक इंसान अपनी जीवन शैली में बदलाव लाए ‘मैं’ का भाव हटाकर ‘हम’ की भावना को आत्मसात करें, बिल्कुल उन गोशाल के गाँव वासियों की तरह जो अपने तपस्या में लीन देवता के लिए 42 दिन तक मंदिर की घंटियाँ भी नहीं बजाते।  
हमें प्रचलित रूढ़ियों की वैज्ञानिकता पर शोध -कार्यों को बढ़ावा देना पड़ेगा, ताकि प्रचलित मान्यताओं को वैज्ञानिक निकष पर कसकर समझा सकें।  आज के समय में हमारे पास बहुत सारे संसाधन है , जिनसे हम प्रचलित मान्यताओं के सत्य को परखकर प्रमाणित कर सकते हैं।

5 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

मेरे लिए सर्वथा नवीन जानकारी।लोक आस्थाओं का अपना महत्त्व है,संस्कृति के मूल मे आस्थाएँ ही हैं।सुंदर आलेख हेतु बधाई।

विजय जोशी said...

अद्भुत. अद्भुत. पहली बार वर्णित सत्य से साक्षात्कार हुआ। पर्यावरण की कीमत पर प्रगति सारहीन है तथा इसे पारंपरिक तरीके से सुलझाया जा सकता है. इसे नितांत सहज व सरल उपायों द्वारा हल किया जा सकता है, यह संदेश बहुत सार्थक तरीके से उद्घाटित हुआ है आपके संपादकीय आलेख में। इसके अभाव में कोरोना जैसी विपदाएं कहीं स्थायी न बन जाएं। जागो भारत जागो। साधुवाद सहित हार्दिक बधाई। सादर

रेखा श्रीवास्तव said...

नवीन जानकारी, आस्था में कूछ न कुछ अनुभव जुड़ा होता है।

प्रतिमा said...

सामायिक तुलनात्मक वर्णन.विश्वास के साथ ही परम्पराओं के सत्यता का आकलन करने से अंधविश्वास बनाने के प्रयास करने वालों को हमारी भारतीय संस्कृति की असलियत को समझने की जरूरत है.

sujata said...

बहुत ही सुंदर, सुंदर आलेख के लिए अनेकानेक बधाई