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Feb 1, 2022

प्रेरक- धरती पर पैर धरो धीरे

 - निशांत

(वसंत ऋतु में) “जरा धीरे चलो मेरे भाई, धरती मैया पेट से है” – उत्तर अमेरिकी की आदिवासी उक्ति

अपने लोक जीवन और पारंपरिक ज्ञान से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। पृथ्वी माता के प्रति सम्मान की अनेक कथाएँ भारतीय मानस में जीवित हैं। हजारों सालों तक भारत के आदिवासी सिर्फ इसलिए पिछड़े रह गए;  क्योंकि धरती माता के शरीर पर लोहे के हल और कुदाल चलाना उन्हें स्वीकार नहीं था। अपने मतलब भर की लकड़ी वे जंगल से लेते थे, जिसका उपयोग केवल जलावन के लिए होता था। अभी भी बहुतेरी आदिवासी संस्कृतियाँ अपने झोपड़ों में लकड़ी के दरवाजे-खिड़कियाँ नहीं लगातीं। कोई क्या चुरा के ले जाएगा?

आजकल कार्बन फुटप्रिंट की बहुत चर्चा होती है। इसका सम्बन्ध ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से है। इसके बारे में मैंने अभी विस्तार से नहीं पढ़ा है। बस इतना जानता हूँ कि आधुनिकता और विकास की अंधी दौड़ में धरती को रौंदनेवाले पैर उसे स्थाई क्षति पहुँचा रहे हैं। जितना अधिक विकास, उतना अधिक कार्बन उत्सर्जन। जितना अधिक कार्बन उत्सर्जन, उतना ही बड़ा कार्बन फुटप्रिंट। अमेरिकियों और यूरोपियों के कार्बन फुटप्रिंट भारतीयों और अफ्रीकियों के कार्बन फुटप्रिंट की तुलना में न केवल कई गुने बड़े हैं;  बल्कि धरती को गहरे तक चोटिल करते हैं।

धरती की रक्षा करने का केवल एक ही उपाय है। उसपर कम भार डालो। उसे मत रौंदो।

पिछले सौ सालों में ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करने और संचय करने की होड़ में हम बहुत कुछ भूलते जा रहे हैं। हमारी संस्कृतियों ने हमें हमेशा यह सिखाया कि जितना हम पाते हैं, उससे ज्यादा लौटाने की हमारे ऊपर नैतिक जिम्मेदारी स्वतः बनती है। धरती को गहरे तक खोदकर उससे बहुमूल्य रत्न, धातुएँ, और अयस्क निकाले जा चुके हैं। नदियाँ नगरों के सीवेज और रसायनों से भरी हुई हैं। जंगलों से पेड़ और प्राणी नदारद हो रहे हैं। प्राकृतिक दृश्यों को मनमाफिक रूप दे दिया गया है। कहते हैं कि आज धरती से जितना लिया जा रहा है उसके लिए भविष्य में एक धरती कम पड़ेगी।

इन मसलों पर इतना कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है कि इससे किसी को अनभिज्ञता नहीं है। हमें समस्याओं की जानकारी है लेकिन प्रत्यक्ष उपायों को हम नज़रंदाज़ कर रहे हैं। कचरे को रिसाइकल करना, इलेक्ट्रिक कार खरीदना या साईकिल चलाना ज़रूरी लेकिन फैशनेबल विकल्प हैं। इनसे ज्यादा भी बहुत कुछ किया जा सकता है।

मितव्ययता और अपरिग्रह कुछ-कुछ एक जैसे सिद्धांत प्रतीत होते हैं। मितव्ययता याने अपने खर्चे कम करना। अपरिग्रह याने अपनी ज़रूरतें कम करना। मुझे अपरिग्रह का विचार भाता है। यह जैन दर्शन का एक रत्न है। देखिये भगवान् महावीर ने इस विषय पर क्या कहा है:-

“चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि।

अन्नं वा अणुजाणाइ एव्रं दुक्खाण मुच्चइ॥”

अर्थात् जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता। और…

“जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई।

दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं॥”

ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।’ पहले केवल दो मासा सोने की जरूरत थी, बाद में वह बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक पहुँच गई, फिर भी पूरी न पड़ी! 

अपरिग्रह का अर्थ अभाव में जीने से नहीं है. इच्छाओं में कमी होने से उपभोग एवं उपयोग में भी कमी आती है। जिसके परिणामस्वरूप संसाधनों का दोहन और उनपर निर्भरता कम होती जाती है। इसका प्रभाव हमारे पर्यावरण और वातावरण पर भी पड़ता है। गाँव-देहात की हवा यूँ ही शुद्ध तो नहीं होती! वहाँ विकास के चरण नहीं पड़े तो विकास के दुष्परिणामों से भी वे दूर हैं।

अपरिग्रह या मिनिमलिज्म का दर्शन सरल और स्थाई है। रिसाइकलिंग का अपना महत्त्व है;  लेकिन अपरिग्रह का पालन करने पर उसकी ज़रुरत भी नहीं पड़ती. पर्यावरण या वातावरण को नुकसान पहुँचाए बिना भी बहुत से पदार्थों का निर्माण और उपयोग किया जा सकता है लेकिन समझदारी इसी में है कि ज़रूरतें ही कम कर दी जाए। ऐसा करने के बहुत से तरीके संभव हैं और उनमें से कुछेक पर यहाँ बिंदुवार चर्चा की जाएगी।

* सीमित खरीददारी – अधिक से अधिक उपभोग की लालसा के फलस्वरूप बहुतेरी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, जिन्हें हम खरीदते हैं। कम खरीदने की आदत विकसित करना 

* अन्न का निरादर न करें – अमेरिका जैसे देश में लोगों को कम खाने की नसीहत दी जाती है, जो अपने देश में बेमानी है। इसके बावजूद हमारे यहाँ बड़े पैमाने पर अन्न की बर्बादी होती रहती है। सरकारी नीतियों के कारण होनेवाली बर्बादी की बहुत चर्चा होती है पर घरों और पार्टियों में बर्बाद किये जाने वाले अन्न की भी सीमा नहीं है। अन्न के उत्पादन में बहुत बड़ी मात्रा में संसाधनों और मानव श्रम की खपत होती है। मैं अक्सर ही रेस्टौरेंट्स और पार्टियों में लोगों को खाने से भरी हुई प्लेटें कचरे के डिब्बे में डालते देखता हूँ। यह बहुत दुखदायी है।

* शाकाहार अपनाएँ – अन्न उपजाने की तुलना में मांस के उत्पादन में ऊर्जा कई गुना अधिक प्रयुक्त होती है। शाकाहार अपनाने के अपने बहुत से आधार और फायदे हैं।

* पैकेजिंग कम करें – आजकल चीज़ों को लपेटने और पैक करने में अंधाधुंध सामग्री का उपयोग किया जाता है।  किसी भी सामान को खरीदने से पहले इसपर विचार करना तो संभव नहीं है;  लेकिन ऐसे प्रयास किए जा सकते हैं कि कंपनियों को हलकी पैकेजिंग के लिए प्रेरित किया जा सके. कंपनियों को पैकेजिंग वापस लेकर कुछ उपहार देने का विकल्प रखना चाहिए।


* गाड़ी कम – पैदल ज्यादा – साइकिल चलाए हुए आपको कितना समय हो गया? शायद आपके पास साइकिल न हो। मेरे पास भी नहीं है;  लेकिन मैं कभी-कभार यूँ ही किसी की साइकिल माँगकर ज़रा दूर तक चला लेता हूँ। पब्लिक ट्रांसपोर्ट की दशा बेहतर हो, तो मैं उसे अपनाने में गुरेज़ न करूँ। पैदल खूब चलता हूँ। बाइक पूल या कार पूल भी अच्छी चीज़ है। सबसे बढ़िया तो है, घर में बैठना और मज़े से बच्चों के साथ खेलना, पढ़ना, टी वी देखना, ब्लॉग चैक करना।

* घर कितना भी बड़ा हो, उसमें बेतहाशा खरीदकर बाहरी हुई चीज़ें देखना नहीं सुहाता। जितनी ज्यादा चीज़ें, उतना ज्यादा कबाड़. व्यवस्थित रखने का खर्चा और भारी-भरकम बिल अलग से। छोटा घर – संसाधनों की कम बर्बादी। बिजली-पानी की कम खपत।

ये सब तो कुछ उदाहरण और उपाय हैं। असली चीज़ तो है मानसिकता और मनोवृत्ति में परिवर्तन लाना। सभी करें तो कितना अच्छा हो। जीवन की गुणवत्ता के पैमाने पर हमारा देश बहुतेरे विकसित देशों से पीछे है। कहा जाता है कि हमारे नागरिकों में सिविक सेन्स भी नहीं है और आदेशों का उल्लंघन करना हमारी फितरत है। कुछ बातें सही हैं पर दोष-दर्शन से क्या होगा। पहल तो सभी को करनी ही पड़ेगी। आखिर हमारे भविष्य का सवाल है।

इस आलेख की प्रेरणा  मिली थी जहाँ से मिली हैं उस पोस्ट में दिए गए कुछ बिन्दुओं को यहाँ पुनःप्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि वे सामयिक हैं और इस आलेख की प्रकृति के अनुरूप भी हैं।  

छोटे-छोटे कदम ही हमारी पृथ्वी माँ को बचा सकेंगे। यह हमारी जिम्मेवारी है कि यह काम सुचारु रूप से हो। क्योंकि किसी ने सच कहा है कि-

‘We have not inherited this planet from our parents. But have merely borrowed it from our children’

यह पृथ्वी हमें अपने पूर्वजों से नहीं मिली है। यह हमारे पास वशंजों की धरोहर है।

यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम वशंजों की धरोहर, उन्हें ठीक प्रकार से उन्हें वापस दे सकें।  क्या आप जानना चाहते हैं कि आप इसमें किस तरह से सहयोग कर सकते हैं। बहुत कुछ – देखिए आप क्या कर सकते हैं:

1. आप समान ऐसे पैकेटों में खरीदिए जो फिर से प्रयोग हो सकें और उन्हें बार बार प्रयोग करें।

2. शॉपिंग पर अपना बैग ले जाएँ।

3. पेपर को बेकार न करें। दोनों तरफ प्रयोग करें।

4. हो सके तो, लिफाफों को फाड़कर, अन्दर की तरफ सादी जगह को, लिखने के लिये प्रयोग करें।

5. सारे बेकार कागजों को पुनर्चक्रण (recycling) के लिए इकट्ठा करें।

6. प्लास्टिक के पैकेटों का कम प्रयोग करें। सब्जी, फल या मांस को सुरक्षित रखने के लिये प्लास्टिक की जरूरत नहीं।

7. उन उत्पादनों को लें, जो हर बार पुनः फिर से भरने वाले पैकटों में मिलते हों। यदि आपकी प्रिय वस्तु ऐसे पैकेटों में न आती हो, तो कम्पनी को इस तरह के पैकेटों में बेचने के लिये लिखें।

8. खाने की वस्तुओं को हवा-बन्द बर्तनों में रखें। उन्हें चिपकती हुई प्लास्टिक में रखने की जरूरत नहीं।

9. पेट्रोल बचाएँ, प्रदूषण कम करें।

10. अपने सहयोगियों और पड़ोसियों के साथ कार पूल कर प्रयोग करने का प्रयत्न करें।

11. बिना बात बिजली का प्रयोग न करें – बत्ती की जरूरत न हो, तो बन्द कर दें।

12. पेड़ों, जंगलों के कटने को रोके। इनके कटने के खिलाफ लोगों को जागरूक करें।

13. पुनरावर्तित (recycled) वस्तुओं का प्रयोग करें।

14. ऐसे बिजली के उपकरण प्रयोग करें, जो कम बिजली खर्च करते हों। इस समय इस तरह के नये तकनीक पर बने बल्ब आ रहें हैं। उनका प्रयोग करें।

15. पर्यावरण-मित्रवत् उत्पादकों (environment friendly products) का प्रयोग करें।

आप इन पन्द्रह बिन्दुओं में से, कितने बिन्दुओं का पालन करते हैं। मैं इसमें सब तो नहीं, पर अधिकतर का पालन करता हूँ। (हिन्दी जे़न से)


1 comment:

शिवजी श्रीवास्तव said...

भौतिक विकास की अंधी दौड़ पर्यावरण को लगातार क्षतिग्रस्त कर रही हम स्वयं धरती के शत्रु बने हैं।जागरूक करते सुंदर आलेख हेतु निशांत जी को बधाई।