दर्द कतरा कतरा
- प्रेम गुप्ता ‘मानी’
किसी के जागने, न जागने से न दिन
ठहरता है न रात...पर पता नहीं क्यों हर इंसान के भीतर अमरबेल की तरह एक लालसा
पनपती रहती है कि काश! वह समय को अपनी मुट्ठी में जकड़ पाता... इस सच के बावजूद कि
समय रेत की वह दीवार है, जिसे पानी का सहारा देकर कुछ पल के
लिए तो खड़ा किया जा सकता है पर स्थायित्व नहीं दिया जा सकता...।
रीमा इस
सच को स्वीकार तो करती है, पर बावजूद इसके मन को नहीं समझा पाती। एकांत में उसके भीतर सोई इच्छा
हमेशा फन उठा कर उसे डसने की कोशिश करती है, पर वह है कि उस
नामुमकिन में भी मुमकिन की कल्पना करके सुख की तलाश कर लेती है। उसे लगता है जैसे
वह समय-सीमा से परे है और उसका इकलौता बेटा और दोनों बेटियाँ विवाहित होने के बाद
भी उसके आँचल की छाँव के नीचे दुबके बैठे हैं और वह कभी उन्हें दुलरा रही है तो
कभी डांट रही है...और वक्त पड़ने पर उनकी गलतियों को छुपाने के लिए मोर्चा भी
सम्हाल रही है...। यह अहसास उसके पास तब तक सिमटा रहता है जब तक उसे पता नहीं लगता
कि उसका आँचल पूरी तरह गीला है और उसे सुखाने के लिए आसपास कोई नहीं है ।
इस समय
भी यही अहसास उसे टीस रहा है। रात आधी से अधिक बीत चुकी है पर उसकी आँखों में नींद
का एक नन्हा-सा कतरा भी नहीं...। बित्ते भर आँगन के ऊपर लम्बा-चौड़ा आसमान पसरा था
और उसके चंदोबे में टंके थे ढेर सारे लकदक करते तारे...और चाँद...? वह तो कब से बादलों
की ओट लेकर लुकाछिपी का खेल ‘खेल’ रहा
था। चिक्कीयानीरीमा के पोते को चाँद का यह
खेल बहुत पसंद है। जब कभी भी वह छत पर उसके साथ लेटता है, चाँद
को अपनी तोतली आवाज़ में पुकारता है...चाँद के साथ खेलने के लिए मचलता है और फिर
किशन-कन्हैया की तरह ही उससे जिद करता है कि वह चाँद को लाकर उसे खेलने के लिए दे
दे...। रीमा उसे बहलाने के लिए खुद भी चाँद को पुकारती है, उसे
नीचे आने का आदेश देती है और फिर जब इत्तेफ़ाकन चाँद बादलों की ओट में जाता है ,तो चिक्की के मुँह में दूध की
बोतल लगा कर कहती है, ‘चलो...जल्दी से दूध पी लो...। चंदा
अभी अपनी खूब लम्बी सीढ़ी से उतर कर नीचे आ रहा है...। जल्दी से दूध पी लो,
नहीं तो वह दुबारा अपनी छत पर वापस चला जाएगा...।’
सहसा
रीमा चिंहुक पड़ी। उसका पूरा आँचल गीला था और आसपास सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं था।
उसे नींद नहीं आ रही थी तो वह कमरे से निकल कर आँगन में आ गई और वहीं पड़ी छोटी-सी
चारपाई पर निढाल-सी गिर गई।
उस छोटे
से आँगन से सटे दो कमरे थे । एक में
चिक्की के दादा सो रहे थे तो दूसरे में बहू-बेटे चिक्की के साथ...। वैसे ज़्यादातर चिक्की उसी के पास सोता था पर इधर एक हफ्ते से
उसकी खराब तबियत की बात कहकर बहू सुधा उसे अपने पास ही सुला रही थी । यहाँ तक कि दिन
में भी वह तरस गई थी चिक्की को खिलाने के लिए...।
भीतर, कमरे से चिक्की के रोने की आवाज़ आई ,तो वह बेचैन हो उठी । पता नहीं सच में उसकी तबियत खराब थी या वह उनके लिए
हुडक़ रहा था...? सुधा उसे सुलाने की भरपूर कोशिश कर रही थी
पर वह था कि रोये ही चला जा रहा था।
बहुत
देर तक उन्होंने अपने को ज़ब्त किया पर जब रहा नहीं गया तो उठ कर बंद दरवाज़े के पास
आ गई, ‘सुधा...ऐ सुधा... चिक्की को मुझे दे दो...मैं सुला दूँगी...।’
भीतर
से चिक्की के रोने के सिवा और कोई आवाज़
नहीं आई तो उन्होंने दरवज़ा भड़भड़ा दिया, ‘बहुत देर से रो रहा है बच्चा,
देखूँ कहीं पेट में दर्द-वर्द तो नहीं है...।’
इस बार
बेटे की तेज़ आवाज़ उनके कलेजे को चीर गई, ‘माँ... आधी रात तक खुद तो
जागती रहती हो, दूसरों की नींद भी खऱाब करती हो...। एक तो
चिक्की की आदत बिगाड़ दी, दूसरे उसे हम लोगों के पास रहने भी
नहीं देती...। अरे बच्चा है...रात-बिरात तो रोएगा ही...और अगर पेट में दर्द होगा
तो तुमसे ज़्यादा अच्छी तरह हम लोग समझ लेंगे...।’
सहसा
उन्हें लगा जैसे उनके पैर ज़मीन से जम गए हैं और आवाज़ गले में घुट रही है...।
उन्होंने अपने को सम्हालने की बहुत कोशिश की पर अचानक चिक्की के दादा की दहाड़ सुनकर बिखर गई, ‘कितनी बार तुमसे
कहा है कि इतनी बेहयाई ठीक नहीं, पर तुम हो कि...खा लिया
जूता...? चलो...चल कर खुद भी सो और मुझे भी सोने दो...।’
चिक्की
के दादा उन्हें लगभग घसीटते हुए कमरे में ले गए और चारपाई पर हल्का-सा धकेल दिया...। कपड़े
की किसी बेजान गुडिय़ा-सी वह चारपाई पर ढुलक गई और फिर आँसुओं की नि:शब्द धार जो एक
बार गालों की ढलान से होकर छाती पर उतरी, वह तभी थमी जब भीतर
का सोता लगभग सूख-सा गया । उन्होंने एक बार बड़ी हसरत
से चिक्की के दादा की ओर देखा, पर वहाँ तो हमेशा की तरह सन्नाटा था और वे पूरी तरह नींद के आगोश में थे।
उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ...कोई किसी के दर्द से इतना तटस्थ कैसे रह सकता है...? चिक्की के दादा जानते थे कि
वह चिक्की के बिना नहीं रह सकती, फिर भी...?
सुधा
उनसे डरती है या उनका लिहाज करती है, यह वो नहीं जानती, पर इतना पता है कि अगर वे एक बार कह दें ,तो वह मना
नहीं करेगी...पर वे क्यों कहने लगे...? उन्होंने तो कभी अपने
बच्चों को नहीं दुलराया, तो पोते के लिए भला क्यों समझेंगे
उसका दर्द...?
उनकी
अपनी ज़िन्दगी खुद एक मशीन की तरह रही...एक ऐसी मशीन जो रुपया उगलते-उगलते खुद एक
खुरदुरा काग़ज़ बनकर रह गई...। काग़ज़ में जिस तरह शब्दों का स्पर्श न हो वह कोश ही
रहता है...न कोई अर्थ...न संवेदना...। एक नामी कंपनी में जनरल मैनेजर का पद...मोटी
तनख्वाह, पर काम का बोझ इतना कि सिर उठाने की फुर्सत नहीं...। ऑफिस के काम से महीने
के पच्चीस दिन कभी इस शहर, तो कभी उस शहर...बाकी बचे दिन
थकान उतारने में ही निकल जाते...। वक्त बीत रहा था और साथ ही सबके मन रीत रहे थे,
पर उन्हें यह सब जानने की फुर्सत नहीं थी...। ऑफिस से मिली अपनी
आलीशान कोठी के स्टडी रूम में किताब के पन्ने पलटते-पलटते वे खुद एक किताब बन के
रह गए थे...। रीमा कभी अपना दु:ख दर्द उन पन्नों पर दर्ज़ करने की कोशिश करती तो
पन्ने फडफ़ड़ाकर बंद हो जाते और वह पल भर हतप्रभ रहने के बाद घर के खिडक़ी दरवाज़ेको
बंद करने में जुट जाती...। वो नहीं चाहती थी कि कोई बाहर का उसके भीतर झाँके...।
पैसों
की कमी नहीं थी ,सो उन्होंने तीनों बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी। दोनों बेटियों को
इंजीनियर बनाया और दोनों ने अपने पसंद के लडक़े से शादी करके अपना घर बसा लिया...एक
ने अमेरिका में तो दूसरी ने ब्रिटेन में...। ज़्यादा पढ़ी न होने के बावजूद उसके
पास दुनियादारी की अच्छी समझ थी...। बेटियों ने ग़लत राह नहीं पकड़ी थी। जो भी किया,
अपने पापा की रज़ामंदी से... और उन्होंने भी अपनी रज़ामंदी ही दी...।
यह जानते हुए भी कि बेटियाँ उनसे बहुत दूर चली जाएँगी, वह कर
ही क्या सकती थी...? विरोध उसे उनसे और दूर कर देगा, वह यह अच्छी तरह समझती थी। जिन
पौधों को माँ बड़े प्यार और जतन से सींचती है, उसका फल कोई
अनजान पूरे अधिकार के साथ झटक ले जाता है, दुनिया का यही
दस्तूर है। उसके लिए यह क्या कम है कि हफ्ते-दो हफ्ते में बेटियाँ फोन करके उनका
हालचाल लेती रहती हैं और दो साल में एक बार सपरिवार घूम जाती हैं...।
दोनों
बेटियों के इतनी दूर चले जाने के कारण वह भीतर से इतना टूट गई थी कि एकांत में
उसने ईश्वर के सामने रो-रोकर विनती की कि उसके सबसे छोटे और इकलौते बेटे अशोक को
उससे दूर न जाने दे...। ईश्वर ने उसकी पुकार सुन ली और बेटा अशोक डॉक्टरी की पढ़ाई
की ओर झुक गया । अब वह फिर से अपने को भरी-पूरी महसूस करने लगी...और उस दिन तो
भीतर तक जैसे लबालब भर गई जिस दिन उनके घर बैण्ड बजा, दोनों बेटियाँ
सपरिवार घर आईं और अशोक के पापा भी रिटायर होकर घर के हो गए।
अशोक ने
जब डॉक्टर सुधा से शादी करने की बात कही थी, तो दोनों पति-पत्नी फूले नहीं समाए
थे। अभी तक पूरी बिरादरी में किसी की बहू डॉक्टर नहीं थी पर उनकी ?
खूब
धूमधाम से अशोक की शादी हुई। रुपया पानी की तरह बहाया। अब किस बात की चिंता...? किसके लिए जोडऩा...?
बेटा-बहू दोनों डॉक्टर...रुपयों की कमी होगी क्या...?
शादी के
चंद दिनों बाद ही दोनों बेटियाँ अपने आशियाने लौट गईं और बेटा-बहू अस्पताल के अपने
जॉब पर...। रात के ग्यारह बजे तक घर खाली हो जाता, पर सारा दिन काम और इंतकाार के
बीच उन्हें लगता कि घर कितना भरा-भरा है और साथ ही वो भी...।
इस भरे
अहसास के बीच ही एक दिन उन्होंने अशोक के पापा के सामने अपने मन की बात रख दी, ‘सुनिए...आपकी
पेंशन से तो घर चल ही रहा है तो क्यों न आपके प्रोविडेंटफण्ड और एल.आई.सी का जो
रुपया मिला है उससे कहीं पास में ही इन दोनों के लिए अपना अस्पताल बनवा दिया
जाए...? ये दोनों इस तरह नौकरी करते हुए खटते हैं, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता...। आप देखते तो हैं कि सुबह नौ बजे के गए-गए
रात के ग्यारह बजे तक लौटते हैं, तिस पर टाइम-बेटाइम बुलावा,
सो अलग...। दोनों का न ठीक से खाना न पीना...। अपना अस्पताल होगा तो
कम-से-कम अपने अंडर में आठ-दस डॉक्टर रख कर खुद भी आराम से रहेंगे...और आप भी वहीं
बैठ जाया कीजिएगा...समय भी कट जाएगा और ऑफिस भी सम्हाल लीजिएगा...।’
अपनी
बात कह कर वो खुद हँसी पर अशोक के पापा थोड़ा गंभीर हो गए, ‘तुम्हारी बात सही
है, पर अस्पताल बनाना क्या इतना आसान है...? सारी जमा-पूँजी निकल जाएगी...। अभी आधी ज़िन्दगी बाकी है...। खाना-पीना,
हारी-बीमारी तो है ही...साथ ही कितने कारूरी खर्चे भी...।
हाउस-टैक्स, वाटर-टैक्स, बिजली वगैरह
के बिल...सभी खर्चे इसी जमा-पूँजी से तो करता हूँ...। अगर सब बचत खर्च कर दी तो
इनका क्या होगा...?’
‘ज़्यादा चिंता क्यों करते हैं...? बेटा है तो नैय्या
पार लगाने को...। हमने इतना किया है तो क्या वह थोड़ा भी नहीं करेगा...? हारी-बीमारी की तो चिंता ही नहीं, बीमार पड़े तो
बेटे के अस्पताल में भर्ती...।’ वह एक बार फिर ठठाकर हँस
पड़ी । यद्यपि उन्हें लगा जैसे जीवन में उन्मुक्त होकर वह पहली बार हँसी हैं पर फिर
भी...?
‘अच्छा...सोचने का थोड़ा वक़्त दो...।’
पर
उन्हें सोचने का अधिक वक्त नहीं मिला । पता लगते ही माँ के साथ बेटा भी इस कदर
उनके पीछे पड़ गया कि प्लाट लेकर उन्हें अस्पताल बनवाने की शुरुआत करनी ही पड़ी।
घर के पास कोई प्लाट खाली नहीं था; इसलिए मन मार कर बीस किलोमीटर
दूर ही प्लाट खरीदना पड़ा। आगे चलकर जब बेटे के पास गाड़ी हो जाएगी तो यह दूरी भी
नाममात्र की रह जाएगी। सहसा वे चिंहुक पड़ी। पास के मंदिर का शंख बज रहा था। सुबह
के चार बज गए थे और उन्हें पता भी नहीं चला। यद्यपि चिक्की सो गया था पर उसके सोने के बाद भी वे
सारी रात जागती रही थी। उनकी आँख एक पल के लिए भी नहीं झपकी।
झटके से
वे पलंग पर बैठ गई। उन्होंने चिक्की के
दादा की ओर देखा, फिर अपने हाथों को देख कर मन-ही-मन भगवान को प्रणाम किया। रोज़ उनका यही
नियम था। मंदिर का शंख बजते ही उठ जाती थी, फिर नित्यक्रिया
से खाली होकर स्नान-ध्यान, पूजा और रसोई...। ज़िन्दगी के ये
महत्त्वपूर्ण पल होते उनके लिए पर इधर, उनके भीतर भी यह पल
जैसे सिमट गया था। नहा-धोकर वे अपनी और
चिक्की के दादा की चाय प्याली में निकाल लेती, बाकी
केतली में छोड़ कर कमरे में आ जाती।
चिक्की के दादा ने इस परिवर्तन को लक्ष्य किया था, पर
बोले कुछ नहीं थे और वे ? भीतर जो कुछ रीत रहा था उससे वो
अनजान नहीं थी...।
लगभग छह
महीने होने को आ रहा है...अस्पताल लगभग तैयार है, बस शुभारम्भ होने की देर
है...। सुधा और अशोक तो रोका अपनी ड्यूटी पर चले जाते हैं और चिक्की के दादा मजदूर-मिस्त्री से काम
करवाने...। पूरा पैसा उन्हीं का था पर प्लाट उन्होंने अशोक के नाम खरीदा था...यह
सोच कर कि उनके न रहने पर कोई झंझट न हो या दोनों दामाद किसी प्रकार की दावेदारी न
करें...। सारी ज़िन्दगी उन्होंने बहुत कुछ देखा था...रिश्तों को दूर होते हुए,
बिखरते हुए...। इसी से उनको कोई ख़ास$फर्क
नहीं पड़ता था पर वे...?
ज़िन्दगी
बस उनके अपने परिवार तक सीमित थी। दूर के रिश्ते दुनियादारी के चलते कब के बिखर गए
थे पर अपने छोटे से परिवार को वे पूरी तरह समेट के रखना चाहती थी । इसी से उनसे जो
बन पड़ता था, वे करती थी...धन से, मन से और बूढ़े तन से भी...।
पर इधर
अस्पताल के तैयार होते ही उन्हें लगा जैसे उनकी हथेली छोटी पड़ गई हो । वे नन्हें
से चिक्की तक को समेट नहीं पाई...। एक हफ़्ते से अस्पताल के उद्घाटन की तैयारी चल
रही थी। इस दिन के लिए उन्होंने क्या-क्या सोचा था पर और कुछ मिलना तो दूर,चिक्की भी उनके
हाथों से फिसल गया ।
सुधा ने
बड़ी नम्रता से उनसे कहा, ‘माँ जी, आप बुरा न मानिएगा...। जब तक नौकरी थी,
हम लोग शाम को लौट कर यहीं आते थे, पर अब...?
रोका-रोका इतनी दूर से आना तो सम्भव होगा नहीं न...। चिक्की को आपकी इतनी आदत रहेगी तो वहाँ हुडक़
जाएगा । इसी लिए मैं चाहती हूँ कि वहाँ जाने से पहले हम लोग उसे पूरी तरह परचा
लें...।’
‘पर बहू, वह हम लोग से अलग क्यों होगा...? मानती हूँ अस्पताल बहुत दूर है और रोज-रोज न तुम लोग का आना ठीक होगा और न
हम लोगों का...। लेकिन वहाँ तुम्हारे बाबूजी ने अलग से चार-पाँच कमरे बनवा दिए हैं
न...उसी में हम दोनों रह कर चिक्की की देखभाल कर लेंगे...।’
‘पर उसे तो अशोक स्टाफ क्वार्टर बना रहे हैं...। कम्पाउण्डर, नर्सें, सफ़ाई कर्मचारी रात-दिन वहीं रहेंगे ,तो अस्पताल में हर काम की सही देखभाल होती रहेगी...और आप सोचिए, इस मकान का क्या होगा...?’
वे पल
भर को सोच में पड़ गई फिर तुरंत ही उत्साहित होकर बोली, ‘अरे इसे बेच
देंगे...। तुम लोगों के बिना क्या हमारा मन लगेगा...?’
‘लगाना तो पड़ेगा माँ जी...वहाँ अस्पताल में आप लोगों को परेशानी होगी...।
मरीजों का दिन भर आना-जाना, उनकी चीख-पुकार...हमारी
व्यस्तता...। आप कहाँ इस पचड़े में पड़ रही हैं...? अशोक भी
कह रहे थे कि माँ-बाबूजी का यहीं ठीक है...। आखिर इतने वर्षों से यहाँ हैं,
आदत भी तो यहीं की है...। अरे हफ्ते-पंद्रह दिनों में हम लोग आते
रहेंगे...। फिर फोन की सुविधा तो है ही...।’
‘आप उसकी फिक्र न कीजिए...। उसके लिए एक नौकरानी का इंतज़ाम कर लिया है...।’
‘कब...?’ उन्हें लगा जैसे एक चटके हुए बाँध की तरह
उनकी आँखें फट गई हैं और बाहर कभी भी बाढ़ आ सकती है।
उस सारा
दिन और सारी रात वो रोती रही थी और उधर
चिक्की उनके लिए हुडक़ता रहा था। सुधा और अशोक रोज उसे लेकर अस्पताल निकल
जाते उद्घाटन की तैयारी के लिए और वे बुत की तरह उसे देखती रह जाती। उन्होंने जिद
भी नहीं की। जानती थी कि रेत की तरह अब सारे सपने मुट्ठी से फिसल गए हैं और इन
सबकीज़िम्मेदार वही हैं...। चिक्की के दादा
भी इसीलिए उनसे काफी नाराज़ थे...। अगर वे उन्हें न समझाती, जिद न करती तो यह
दिन कभी न देखना पड़ता...। चिक्की को
आवाज़ देते समय उनकी दहाड़ से ही उन्हें अनुमान हो गया था । अशोक ने शायद उन्हें
भी यही तसल्ली दी है जो सुधा ने उन्हें दी थी, पर अब क्या हो
सकता था...? बेटे ने झटका दिया ,पर वे
तो माँ हैं...। यह झटका क्या प्रसव-पीड़ा से बड़ी है...?
तसल्ली
के बस यही शब्द बचे थे उनके पास, पर वे भी सिर्फ़ अपने लिए...। चाह कर भी वे
इसे चिक्की के दादा के आगे नहीं परोस
सकती। ज़्यादातर खामोश रहने वाले वे भीतर से कितने कठोर हैं, यह उनसे बेहतर कौन जानता है...। जब तक सब शांत है, तब
तक ठीक है...पर अगर फटे तो ज्वालामुखी की तरह सब कुछ तहस-नहस कर डालेंगे, यह वे अच्छी तरह जानती हैं...। इसी लिए उद्घाटन वाले दिन भी जब वे नहीं गए
तो अशोक और सुधा ने उन्हें बहुत मनाया, पर वे एक शब्द नहीं
बोली...। जानती थी कि बच्चों से वे भले कुछ न कहें, पर उनके
बोलते ही पूरी तरह फट पड़ेंगे...। उन्होंने भी तबियतखऱाब होने का बहाना कर दिया था
।
जीवन
में न चाहते हुए भी बहुत कुछ बदल जाता है...। आदमी सोचता क्या है और हो क्या जाता
है...। शायद दुनिया का यही दस्तूर है...। सारे रिश्ते-नाते स्वार्थ की डोर से बंधे
होते हैं...। स्वार्थ के टूटते ही रिश्ते भी टूट कर बिखर जाते हैं...। उनके बेटे
और बहू ने भी यही किया तो क्या अनोखा किया...? एकांत में ये शब्द तसल्ली के
लिए काफ़ी थे भी और नहीं भी पर?
अस्पताल
में पूरी तरह शिफ्ट होकर जाते हुए अशोक और सुधा ने उनका पैर छूते हुए कहा भी तो था, ‘माँ, बाबूजी...एक बार आकर अस्पताल तो देख लेते...। वहाँ का रख-रखाव, डॉक्टर, नर्सें और तसल्ली के लिए चिक्की की नौकरानी
भी...।’
चिक्की
के दादा कुछ नहीं बोले थे। बस चुपचाप दीवार की ओर मुँह किए किताब के पन्नों पर
आँखें गड़ाए बैठे रहे थे, पर वे हौले से हँसी थी, ‘देख लूँगीबेटा..जल्दी क्या
है...। आखिर मरते समय हम दोनों खाली झोली लेकर किस अस्पताल में जाएँगे...? मुफ्त में इलाज तो मेरा बेटा ही करेगा न...।’
बिना
कुछ और बोले दोनों चले गए थे और वे उसी तरह मूर्तिवत् बैठी रह गई थी । न दुखी हुई, न रोई...बस सूनी
आँखों से पति की पीठ देखती रही...। जानती थी...और खूब जानती थी कि ऊपर से कठोर
दिखने वाला यह आदमी इस वक्त भले ही पूरी तटस्थता से किताब पढ़ने का बहाना कर रहा है,
पर उन्होंने आज हलके से भी उन्हें स्पर्श किया या तसल्ली देने की
कोशिश की तो उनके भीतर सहसा ही बर्फ़-सा जम गया दर्द कतरा-कतरा बन कर आँखों के
रास्ते टपक जाएगा और तब वे खुद को भी बहने से बचा नहीं पाएँगी...।
सम्पर्क:
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Email- premgupta.mani.knpr@gmail.com,
www.manikahashiya.blogspot.in,
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