पारिजात, हरसिंगार और बाओबाब
- कालूराम शर्मा
हाल ही में मेरे
संस्थान के साथी ने ईमेल के जरिए जानना चाहा कि ‘ये पारिजात की क्या कहानी है?’
मैंने तुरंत जवाब दिया कि यह एक साधारण पेड़ है जिसे अपनी कॉलोनी
में भी देख पाएँगे। साथ ही मैंने पारिजात के फूलों का कैमरा चित्र भी भेज दिया। अब
उनकी बारी थी। उन्होंने कहा, ‘नहीं, इसकी
बात मैं नहीं कर रहा हूं। मैं तो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के पारिजात के पेड़ की
बात कर रहा हूँ। कहा जाता है कि यह इकलौता पेड़ है जिसमें फूल, फल और बीज नहीं बनते।’
उन्होंने
उस पेड़ को लेकर जिलाधिकारी द्वारा वहाँ लगाए गए शिलालेख का चित्र भी मुझे भेजा, जिसमें इस पेड़ को
पारिजात कहा गया है। मान्यता है कि दुनिया में ऐसा कोई और पेड़ नहीं है। गौरतलब है
कि बाराबंकी के जिलाधिकारी भी किंवदंतियों के आधार पर इस बात की पुष्टि करते हैं
और उन पारम्परिक मान्यताओं को बढ़ावा देते लगते हैं।
जब उस ‘पारिजात’ चित्र देखा तो उलझन में पडऩे की मेरी बारी थी। एक विशाल आकार का पेड़
जिसका तना काफी मोटा प्रतीत होता है। इंटरनेट पर पता चला कि बाराबंकी का वह ‘पारिजात’ एक विशाल पेड़ है,
जिसके चारों ओर तार की बागड़ लगाई गई है और यह पेड़ एक धार्मिक आस्था का स्थान बना
हुआ है। इसको लेकर कई लोकोक्तियाँ भी प्रचलित हैं। जैसे, यह
पेड़ समुद्र मंथन के दौरान मिला था, इसकाज़िक्र गीता में
मिलता है इत्यादि।
जब मैं
पारिजात की पहेली को सुलझाने को बैठा तो कई बातें सामने आईं। उन्हीं बातों को यहाँ
साझा कर रहा हूँ।
आम तौर
पर हरसिंगार, प्राजक्ता, शेफाली, शिउली,
पारिजात इत्यादि के नाम से जाना जाने वाला यह पेड़ 10 से 15फीट की ऊँचाई पाता है और इसमें मलाई के रंग के
फूल आते हैं जो बेहद खुशबूदार होते हैं। हर कोई जानता है कि ये रात को खिलते हैं
और भोर होने के साथ ही ज़मीन पर गिर जाते हैं। पारिजात बरसात के दिनों में खिलना प्रारम्भ करता है और सितंबर- अक्टूबर के आखिर में फूलना
बंद कर देता है। दिलचस्प बात यह है कि पारिजात को पश्चिमी बंगाल में राज्य पेड़ का
दर्जा दिया गया है। इसका वानस्पतिक नाम है निक्टेंथसआर्बरट्रिस्टिस (Nyctanthesarbortristis) है।
पारिजात
और बाओबाब
इंटरनेट
की साइट्स पर बाराबंकी पारिजात के चित्र को देखकर पहेली को सुलझाने में मदद मिली।
चित्र को देखकर ऐसा लगता है कि बाराबंकी पारिजात दरअसल बाओबाब नामक पेड़ है, जिसका वानस्पतिक
नाम एडंसोनियाडिजीटेटा (Adansoniadigitata) है और यह पारिजात (निक्टेंथस) से काफी अलग है। यह बाराबंकी के
अलावा भारत के अन्य स्थानों पर भी पाया जाता है। इसकी चर्चा थोड़े विस्तार में
करते हैं।
लोकोक्तियों
के मुताबिक यह पेड़ बाराबंकी के अलावा दुनिया में और कहीं नहीं मिलता। मान्यता तो
यह भी है कि इस पेड़ में न तो फल बनते हैं और न ही बीज। और इसकी कलम भी नहीं लगाई
जा सकती;इसीलिए इसे एक विशिष्ट दर्जा प्राप्त है।
वनस्पति
शास्त्री के हवाले से आगे बल देकर यह भी कहा गया है कि यह एक नर पेड़ है, इसके जैसा और कहीं
नहीं। इस पेड़ में कुछ संख्या में फूल कभी-कभार ही खिलते हैं। पता चलता है कि उस
इलाके में इस पेड़ में गहरी आस्था है। इस पेड़ की पूजा होती है और पर्यटकों व
श्रद्धालुओं का आना-जाना बना रहता है।
बाराबंकी
में स्थित जिस पेड़ को लेकर यह सब कहा गया है वास्तव में वह अफ्रीकी मूल का एक
पेड़ है जो भारत में और भी कई जगहों पर पाया जाता है। अगर आप मध्यप्रदेश के
ऐतिहासिक स्थल मांडवजाएँ,तो आपको यहाँ विशाल पेड़ देखने को मिलेंगे ,जो
प्रतीत होते हैं मानो इन्हें उखाडक़रउल्टा खड़ा कर दिया गया है। इंदौर के होल्कर
विज्ञान महाविद्यालय के प्रोफेसर किशोर पँवार के अनुसार यह पेड़ उनके महाविद्यालय
में भी है। इसी प्रकार से इंदौर-उज्जैन के बीच साँवेर में भी इस पेड़ के दर्शन किए
जा सकते हैं। गुजरात के सूरत, कच्छ और बड़ौदा में इस पेड़ के
मिलने का उल्लेख है। महाराष्ट्र में यह वाशी के निकट देखा गया है। चैन्ने में
जीवशास्त्रीय संरक्षण के लिए समर्पित थिओसॉफिस्टसोसायटीगार्डन में भी इस पेड़ के
मिलने की सूचना है।
बताया
जाता है कि व्यापारी और मुगल शासक समुद्र के रास्ते इसके फलों को भारत में लाए और
यहाँ इसे रोपा गया। मांडव में इस पेड़ को खुरासानी इमली के नाम से जाना जाता है।
इसी प्रकार से गुजराती में ‘गोरखआंबली’ कहा जाता
है। अंग्रेजी में इसे ‘मंकीब्रेड’ व ‘बाओबाब’ के नाम से जाना जाता है।
दरअसल, जब इसकी पत्तियाँ
झड़ जाती हैं तो लगता है मानो जड़ें आसमान में लहरा रही हो। इसीलिए इस पेड़ को ‘अपडाउनट्री’ भी कहा जाता है। मांडव में आप बस स्टेशन
पर गुमटियों और ठेलों पर नज़र दौड़ाएँगे,तो बड़े-बड़े चूहे के
आकार के फल बिकते हुए मिल जाएँगे। कहते हैं कि खुरासानी इमली का बीज खुरासान का
बादशाह ईरान से मांडव लेकर आया था। इसलिए इसका नाम ‘खुरासानी’
पड़ा।
अफ्रीका
में इस पेड़ का नाम ‘बाओबाब’ मिलता है। बाओबाब का अफ्रीका के आर्थिक
विकास में काफी योगदान रहा है। इसलिए इसे वहां ‘दी
वर्ल्डट्री’ की उपमा से नवाज़ा गया है। वहाँ के लोग आज भी इस
पेड़ को सम्मान की नकार से देखते हैं। इसे वहाँ जीवनदायी पेड़ माना गया है।
पत्ती, फल, फूल
हरसिंगार
के विपरीत इस पेड़ की ऊँचाई 5 से 30 मीटर तक हो
सकती है और तने का व्यास 7 से 11 मीटर
तक हो सकता है। यह एक पतझड़ी पेड़ है जिस पर पत्ते चार-पाँच महीने के लिए ही टिकते
हैं। बरसात के दिनों में इस पर बड़ी-बड़ी संयुक्त हस्ताकार (पॉमेट) पत्तियाँ दिखती
हैं। शुष्क मौसम में इसके पत्ते झड़ जाते हैं और फिर यह एकदम ठूँठ जैसा लगता है।
बाओबाब
में फूल भी आते हैं और फल भी लगते हैं। जुलाई के महीने में सफेद रंग के फूल आते हैं
जो नीचे की ओर झूलते रहते हैं। फूल की पँखुडिय़ाँ सफेद और मांसल होती हैं जिसके
भीतर वाले चक्र में पुंकेसर होते हैं।
फूलों
में तेज़गंध होती है जो कमोबेश इंसानों को पसंद नहीं आती है। ये रात को खिलते हैं
और एकदम सफेद रंग के चलते जंतुओं को आसानी से दिखाई दे जाते हैं। गंध भी जंतुओं को आकर्षित करने में योगदान देती है।
बाओबाब के फूलों का परागणचमगादड़ करते हैं। परागण और निषेचन की प्रक्रिया के बाद
फल बनना प्रारम्भ होते हैं। फल का ऊपरी आवरण पीले-भूरे रंग का
होता है जो छूने पर मखमली अहसास देता है। पेड़ पर फल ऐसे लगते हैं मानो मरे हुए
चूहे लटक रहे हो। इसीलिए किसी ने इसे ‘डेडरैटट्री’ की उपाधि दे डाली।
इस पेड़
का तना खोखला और स्पंजी होता है। इसी वजह से इसकी लकड़ी का इस्तेमाल फर्नीचर वगैरह
में तो नहीं होता ;मगर पूरा का पूरा पेड़ औषधीय महत्त्व रखता है। इसके पेड़ के तने में बड़ी
मात्रा में शुद्ध पानी भरा रहता है और यह पानी वर्षा के अभाव वाले महीनों में पीने
के काम आता है। इस पेड़ के तने में वार्षिक वलय स्पष्ट नहीं बनती है इसलिए इसकी
आयु का निर्धारण कार्बन डेटिंग से किया जाता है। बाओबाब पेड़ की आयु तीन से चार
हजार वर्ष तक होती है। कुछ पेड़ छहहज़ार वर्ष पुराने भी देखे गए हैं।
यह
पृथ्वी पर काफी प्राचीन समय से है। अफ्रीका के 33 देशों में इस पेड़ के सबसे
प्राचीन स्ट्रेन मिलते हैं मगर कहना मुश्किल है कि यह किस देश का देशज है। दरअसल,
बाओबाब की उत्पत्ति का मामला विवादास्पद है जिस पर वनस्पति शास्त्री
सदियों से विचार-विमर्श कर रहे हैं। हाल ही में डीएनएडेटिंग तकनीक से इस मामले में
कुछ-कुछ स्पष्टता हुई है। 2009 में मॉलीक्यूलरइकॉलॉजी में
प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि इसकी उत्पत्ति पश्चिमी अफ्रीका में कहीं हुई है।
जिस
पेड़ को कृष्ण ने अश्वत्थ कहा है, लगता है वह बाओबाब ही है। जैसे, गीता के दसवें अध्याय में कहा गया है ‘अश्वत्थ: सर्व
वृक्षाणाम्’। फिर 15वें अध्याय में इसी
पेड़ के बारे में कहा गया है ‘ऊर्ध्वमूलमध:
शाखमश्वर्थप्राहुरव्ययम्। छंदासियस्यपर्णानियस्तं स वेदक्ति।’ अर्थात जिसकी जड़ें ऊपर की ओर व शाखाएं नीचे की ओर होती हैं!
डाक
टिकट में पारिजात
पारिजात
को लेकर एक डाक टिकट भी डाक विभाग द्वारा जारी किया गया है। इस टिकट में हिन्दी और
अंग्रेज़ी में पारिजात ही लिखा हुआ है,लेकिन जो चित्र है वह बाओबाब के
पेड़, पत्तियों और फूल का प्रकाशित किया गया है। टिकट पर यदि
इस पेड़ का अंग्रेज़ी या वानस्पतिक नाम लिखा होता तो स्पष्टता हो सकती थी।
एक और
बात पर हमें गौर करना होगा। कहा जा रहा है कि बाराबंकी के उस पेड़ पर फूल लगने का
ब्यौरा तो मिलता है, मगर फल नहीं बनते। इसे एक रहस्य के रूप में बताया जा रहा है। वास्तव में
बाओबाब के फूल द्विलिंगी होते हैं यानी पुंकेसर और स्त्रीकेसर दोनों एक ही फूल में
होते हैं। उस पेड़ में फल न लगने की बात को दूसरे कोण से देखने की आवश्यकता है। इन
फूलों का परागण चमगादड़ के द्वारा किया जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उस क्षेत्र
में चमगादड़ हो ही नहीं और फूलों का परागण ही न हो पाता हो।
बाराबंकी
में जिस पेड़ को पारिजात कहा जा रहा है दरअसल वह बाओबाब है। अगर स्थानीय लोग इसे
पारिजात कहते हैं तो कोई हर्ज नहीं। मगर यदि शिलालेख पर इस पेड़ के वानस्पतिक नाम
का जिक्र हो तो आमजन को इस पेड़ के और पहलुओं के बारे में संदर्भ ग्रंथों के ज़रिए
समझने में मदद मिलेगी। मैंने जितनी भी वनस्पति शास्त्र की पुस्तकों का अध्ययन किया
उनमें पारिजात पेड़ का सम्बन्धबाओबाब से कतई नहीं मिलता।
इस पेड़
के बारे में जिलाधिकारी की ओर से शिलालेख पर जो वर्णन किया गया है वह मात्र पौराणिक
आधार पर है। जिलाधिकारी के कर्तव्य में यह भी शामिल है कि वे संविधान के मूल्यों
जिसमें वैज्ञानिक नजरिए को पोषित करना शामिल हैं, में अपनी भूमिका अदा करेंगे।
यह विडंबना है कि वे स्वयं ही अवैज्ञानिक जानकारी दे रहे हैं। बाराबंकी में
वनस्पति शास्त्र के डिग्रीधारी तमाम लोग भी जाते होंगे। क्या कभी उनका ध्यान इस ओर
नहीं गया? शायद हमारी शिक्षा व्यवस्था समाज में व्याप्त
मान्यताओं, रूढ़ियोंपर उंगली
उठाने का माद्दा पैदा नहीं कर पा रही है। विज्ञान शिक्षा अगर सवाल उठाने और जड़ें
जमा चुकी उन कथित मान्यताओं पर छात्रों को विमर्श के अवसर नहीं देती तो, ज़ाहिर है, हमें नए सिरे से रणनीति बनाने की ज़रूरत
है। (स्रोत फीचर्स)
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