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Oct 24, 2017

कितने अँधेरे और कब तक?

कितने अँधेरे 
और
कब तक?
 - रत्ना वर्मा


 हाल ही में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने मन की बात कार्यक्रम में दीपावली की शुभकामनाएँ देते हुए कहा कि देशवासी दीवाली का दीया जलाकर गरीबी, निरक्षरता और अंधविश्वास के अंधकार को दूर करने का संकल्प लें।
बात बिल्कुल सच्ची है। यदि प्रत्येक देशवासी मिट्टी का एक-एक दिया जलाकर और पटाखे न फोड़ऩे का संकल्प लेते हुए उजालों का यह पर्व मनाएँ, तो देश भर में जलाए जाने वाले पटाखों के धुएँ से होने वाले प्रदूषण से तो मुक्ति मिलेगी ही, साथ ही रोशनी के नाम पर घर-घर जलाए जाने वाले बिजली की जगमगाती झालर वाले लट्टुओं पर जो बिजली खर्च होती है, उसमें भी बचत होगी; लेकिन इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में ऐसा होता कहाँ है?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा लोगों की सेहत और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए दिल्ली-एनसीआर में दिवाली के मौके पर पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के बाद पटाखा कारोबारियों ने नए-नए तरीके ईजाद कर लिये हैं। उन्होंने सामान बेचने की बजाय गिफ्ट करने का तरीका ढूँढ निकाला है। इसके अलावा वे ऑनलाइन पटाखा बेचने व घर पहुँच सेवा की तैयारी में हैं, जबकि दिल्ली के बाद मुम्बई हाई कोर्ट ने भी रिहायसी इलाकों में पटाखा बेचने पर सख्त पाबंदी लगा दी है।  इस संदर्भ में न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.के. सिकरी जी ने भी कहा है कि हमें कम से कम एक दिवाली पर पटाखे मुक्त त्योहार के रूप में मनाकर देखना चाहिए।
अब तो पटाखों के बाद इलेक्ट्रॉनिक रोशनी पर भी प्रतिबंध लगाने की याचिका दायर करनी पड़ेगी। आजकल तो लोगों में अपने घर को रंग- बिरंगे लट्टुओं से सजाने की जैसी प्रतिस्पर्धा-सी चल पड़ी है। मानों वे कह रहे हों कि देखों मेरे घर की रोशनी तुम्हारे घर से ज्यादा और सुन्दर है। पिछले दिनों चायनीज़बल्बों के कारण लोगों के आँखों की रोशनी कम हो जाने की शिकायतें और अन्धेपन की घटनाओं के बाद चायनीज़ बल्बों पर प्रतिबंध लगाने की बात उठी थी।  ऐसे में दीवाली के अवसर पर जगमगाने वाली छोटे छोटे बल्बों की ये झालरें आँखों के लिए कितनी सुरक्षित हैं यह भी जानना होगा।
दरअसल आज हमारे पर्व- त्योहार और परम्पराएँ अब मेल-मिलाप और पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने वाले नहीं ;बल्कि दिखावा और बाज़ारवाद को बढ़ावा देने वाले अवसर बन गए हैं। अखबारों, टीवी, और मोबाइल में विज्ञापन ही विज्ञापन भरे होते हैं। जहाँ देखो वहाँ छूट। ये त्योहार अब हमारी सांस्कृतिक खुशियों का उत्सव न होकर खरीदी-बिक्री और लेन-देन का अवसर बन गए है।
उजालों का संदेश देने दीपावली का यह पर्व प्रति वर्ष आता है। हम अपने- अपने घरों की साफ- सफाई कर पूरे घर की गंदगी को बाहर करते हैं।  पर क्या हम अपने मन के भीतर और अपने आस-पास की गंदगी और अँधियारे को दूर कर उजाला फैला पाते हैं? क्या जीवन में चारो तरफ छाए बाहरी अँधेरे को दीये की रोशनी से भगाने का प्रयास करते हैं? क्या इन दीयों और लट्टुओं की रोशनी हमारे आस- पास छाए गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, और आतंकवाद जैसे राक्षस की काली छाया को जरा भी मिटा पाई है?
ऐसे भयानक वातारवण में मुझे अपने बचपन की दीपावली याद आती है। गाँव के वे घर, जिनकी मिट्टी की दीवारों को छुही में नील डालकर सुन्दर पुताई की जाती थी और दरवाजे के दोनों ओर सुन्दर रंगीन फूल-पत्तियों से चित्रकारी होती थी। गाँव में अधिकतर घर तब खपरैल वाले होते थे। कुम्हार खपरैल बनाता था, उससे हर साल घरों के खपरैल की मरम्मत हो जाती थी। दीपावली के समय यही कुम्हार दीये बनाकर रखता था। तब लट्टुओं की रोशनी तो कल्पना में भी नहीं थी। पूरा घर-आँगन ही नहीं पूरा गाँव, गाँव की गलियाँ और चौबारे,सब दीयों की रोशनी से झिलमिलाते थे। इस समय किसान की फसल खेतों में लहलहाती रहती है और कीटों का प्रकोप भी उन्हें झेलना पड़ता है; लेकिन फसल को चौपट करने वाले ये माहू कीट हजारों की तादाद में जगमगाते तेल के दियों की रोशनी से आकर्षित होकर मर जाते हैं। यानी इनपर कीटनाशकछिड़कने की आवश्यकता ही नहीं होती।
इसी प्रकार आज उदाहरण दिया जा रहा है कि विदेशों की तर्ज़ पर खुले मैदान में गाँव शहर से कुछ दूर मैदानी इलाके में जाकर आतिशबाजी की जाए... तो ऐसा कहने वालों पर हँसी आती है कि इसमें विदेशों की बात क्यों आ रही है। यह तो हमारे भारत की अपनी परम्परा रही है। लक्ष्मी पूजा के दिन हम शाम को सपरिवार लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं, और फिर परिवार और गाँव के बड़े- बुज़ुर्गों से आशीर्वाद लेने जाते हैं। दूसरे दिन गोवर्धन पूजा पर दिन में गाय की पूजा कर उन्हें खिचड़ी खिलाते हैं फिर गोधूलि वेला में पूरा गाँव एक जगह इकट्ठा हो जाता, तब सारे बच्चे मिलकर पटाखे फोड़ते और आतिशबाजी का आनंद लेते हुए गोधन का इंतजार करते हैं। यह परम्परा तो आज भी गाँवों में जारी है। शहरवासी जरूर यह सब नहीं जानते, और यही वजह है कि उन्हें अपने अपने घरों के सामने आतिशबाजी करनी पड़ती है।
इस त्योहार की यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है कि लक्ष्मी के आगमन के बहाने लोगों ने अनेक बुराइयों को अपना लिया है। अपनी समृद्ध परम्परा और संस्कृति का उपहास उड़ाते लोग शराब और जुएमें डूब जाते हैं। जितनी चादर उतना पाँव पसारने के बजाये दिखावे में जरूरत से ज्यादा खर्च करते हैं ,जो स्वयं और उनके परिवार के लिए भविष्य में अनेक परेशानियों का कारण बनता है।
ऐसे में अब जरूरी हो गया है कि अपने भीतर फैले अँधेरे को दूर करते हुए अधिक धुआँ छोड़ऩेवाले तथा भयंकर शोर करने वाले पटाखे फोडऩे की घातक परम्परा को समाप्त करके खुशियाँ मनाने के अन्य तरीके तलाशे जाएँ। हम सबका यह नैतिक कर्त्तव्य बन जाता है कि देश में फैली विभिन्न कुरीतियों से दूर रहते हुए गरीबी, अज्ञानता, निरक्षरता जैसे मन के अंधकार को दूर कर इस महान पर्व के उजियारे को युग-युगांतर तक फैलाते चलें।                              

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