उनके सपने पूरे होने से पहले ही टूट जाते हैं !
- मधु अरोड़ा
दिव्या जैन पत्रकार हैं और उन्होंने 1986 से 2005 तक स्वतंत्र लेखन कार्य किया है। मुंबई एवं मुंबई से बाहर अखबारों एवं पत्रिकाओं में उनके काफी महत्वपूर्ण विषयों पर 300 से अधिक लेख छप चुके हैं। उन्होंने 1981-90 के दौरान सामाजिक समस्याओं पर तीन ऑडियो विजुअल भी बनाएं। पिछले 15 सालों से वे महिलाओं की पत्रिका 'अंतरंग संगिनी' का संपादन व प्रकाशन कर रही हैं? जनसत्ता सबरंग में उन्होंने एक साल तक देह व्यापार करने वाली महिलाओं के जीवन पर आधारित कॉलम 'बदनाम जिंदगियां' लिखा है। प्रस्तुत है इन्हीं दो विषयों को ध्यान में रखते हुए उनके साथ बातचीत के अंश-
यह कैसे हुआ कि आपने पत्रकारिता या लेखन के लिए रूपजीवियों का क्षेत्र चुना?
- समाजशास्त्र में एम.ए. होने से मेरा सामाजिक समस्याओं से सरोकार रहा। ये समस्याएं लगातार मेरे दिमाग को मथती रहती थीं कि वेश्याएं क्या होती हैं? इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी। पत्रकारिता करते करते ब्लिट्स के लिये देवदासी पर लेख लिखना था, सो मैटर जमा किया। पीएचओ कर्नाटक जाते हैं देवदासी प्रथा रोकने के लिये। मैं अपने लेख के लिये डॉ. गिलाडा के पास फोटो लेने गई। बातचीत के दौरान जब उन्हें पता चला कि मैं पत्रकार हूं तो उन्होंने मेरे सामने नौकरी का प्रस्ताव रखा। उनके ऑफर पर मैं सप्ताह में दो बार जाने के लिये तैयार हो गई। डॉ. गिलाडा मीडिया में काफी रहे उन्होंने धीरे-धीरे मुझसे पूछा कि क्या मैं महिलाओं के लिये पत्रिका निकाल सकती हूं। हम दोनों ने तय किया कि for and by रूप से लिखा जाये। हमने सखी- सहेली पत्रिका शुरु की। इसे हम उन लोगों को पढ़कर सुनाते थे ताकि उन्हें पता चले कि उनके बारे में क्या लिखा है?
इन महिलाओं से संवाद के बाद आपके अनुभव कैसे रहे?
- मैं पहली बार जब एक लड़की के पास गई। बात करते-करते वह लड़की इतनी दुखी हो गई कि रो पड़ी। उसे रोता देखकर मैं भी रो पड़ी। उसने बताया कि उसे इस धंधे में किस तरह लाया गया और अब वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकती। मैंने उसके साथ उसका दुख बांटा। उसने पूछा कि आप दोबारा कब आयेंगी? इस तरह उनसे संबंध बना और वे मुझे दीदी कहने लगीं। इसी तरह एक पढ़ी- लिखी लड़की के पिताजी की कैंसर से मौत होने के बाद सौतेली मां ने उसे बेच दिया और अंतत: वह इस धंधे में आ गई। देखो न। हमारा इमोशन हमें बहुत परेशान कर देता है। मुझे लगा कि इस सामाजिक समस्या को इम्तेहान के लिये पढ़ा था, पर जब इनसे रुबरु हुई तो मुझे अपने सारे सवालों का उत्तर मिल गया।
जब आप इनसे मिलने जाती थीं, तो इन लड़कियों का रुख कैसा रहता था?
- उनका रुख अच्छा रहता था। मैं वहां निजी रुप से नहीं बल्कि संस्था के जरिये जाती थी। रैपो संस्था के सदस्यों द्वारा बनाया हुआ था। मैं भावनात्मक रुप से जुड़ी, अलग बात है। मैं अकेली जाती तो शायद मुश्किल होती। सामाजिक कार्यकर्ता सफेद कोट पहनते थे। मुझे एक पल के लिये लगा कि मैं भी सफेद कोट पहनूं पर मुझे न किसी ने ऐसा कहा और मैंने भी इस विचार को मन से निकाल दिया। इस तरह के कार्य से जुडऩे के लिये खुद को तैयार करना बहुत बड़ी बात थी। कई संस्थाएं कोशिश करती हैं कि इन महिलाओं के बच्चों को कोई गोद ले ले तो उनकी जिंदगी बदल जाये। दरअसल सामाजिक कार्यकर्ता भी उनके साथ इस तरह संवेदनशील थे कि यदि हम यह न रखें तो काम कैसे करें? हमने जिन महिलाओं को ताई बनाया वे हमारी सामाजिक कार्यकर्ता बन गई हैं। प्रेरणा संस्था इनके बच्चों के लिये काम करती हैं।
कभी पुरुष सामाजिक कार्यकर्ताओं का ईमान डिगता है?
- हां, कभी- कभार ऐसा हो जाता है। भावनाओं पर इन्सान का काबू नहीं रह पाता। लेकिन यह सोचना होगा कि क्या वे ऐसे संबंध को निभा पायेंगे? ये तो पुरुष को सोचना होगा कि जिस दलदल से निकालकर महिला को सामाजिक कार्यकर्ता बनाया है, उसे पुन: उसी दलदल में धक्का न दिया जाये।
उनका जीवन और उनकी समस्याएं और समाधान हम घरेलू औरतों से किस प्रकार भिन्न है?
- वे भी समाज का तबका ही हैं। भावना के तौर पर हममें और उनमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन उनका शोषण कैसे होता है और हम किस तरह तुलना करते हैं, यह जुदा बात है। जहां तक सोच के फर्क की बात है तो फिल्म अभिनेत्री किसी भी तरह के पोज देती है, जरुरत पडऩे पर किसी भी हद तक चली जाती है। मॉडल के अनुसार यदि अच्छा शरीर है तो दिखाने में क्या हर्•ा है? भावनात्मक स्तर पर उनके भी सपने हैं, पर ये बात दीगर है कि उनके सपने पूरे होने के पहले ही टूट जाते हैं। इन्हें तो मजबूरन इस व्यवसाय में डाला गया है। पर हीरोइन के साथ तो यह दिक्कत नहीं है, पर वे भी बदन दिखाने के लिये लाखों रुपये लेती हैं। पैमाना तो पैसा कमाना ही है न! इन्हें हम सभ्य समाज में जोड़ देते हैं। लेकिन इनके लिये तो निकलने का रास्ता ही नहीं है।
आप इस बात को कहां तक मानती हैं कि औरत औरत की दुश्मन है?
- बिल्कुल गलत है यह बात। दलाल के साथ महिला होती हैं जो भगाकर लाई लड़की को कनविन्स करती हैं। ऐसे ही दहेज के मामले में भी औरत औरत की दुश्मन है, गलत है। इसमें भी पुरुष का हाथ है। अन्यथा सास या ननद की क्या म•ााल जो बहू को जला दे। कहीं न कहीं उसमें देवर, ससुर या तथाकथित पति की मंशा रहती है।
आप महिलाओं के दोयम जीवन के लिये किसको दोषी ठहराती हैं?
- समाज को। मूल रुप से हमेशा से पुरूष प्रधान समाज रहा है। उसने स्त्री को यही दर्•ाा दिया है जहां लड़की पैदा होती है वहां यही माना जाता है कि वंश पुरूष चलाता है। इस सोच के साथ ही स्त्री को जीना है। दोयम जीवन के लिये औरत नहीं बल्कि पुरुष ही जिम्मेदार है। पंजाब हरियाणा में असंतुलन है तो शादी के लिये लड़कियां आयेंगी कहां से? कई समाजों में स्वीकृति है पर कितने प्रतिशत?
आपके नजरिये से इन परिस्थितियों से कैसे उबरा जा सकता है?
- यह तो मानसिकता बदलने वाली बात है। यह काम कौन करेगा? अब आप देखिये, लड़के माता- पिता के दबाव में आकर शादी तो कर लेते हैं पर खुद में बदलाव नहीं ला पाते। इस प्रकार लड़की पर शादी के लिये माता- पिता का दबाव। फिर शादी के बाद पुत्र प्राप्ति की इच्छा का बलवती होना। मुझे लगता है कि बच्चों के पालन पोषण में ही भेद रेखा खींच दी जाती है। लड़की को लड़की होने का एहसास बचपन से ही करा दिया जाता है। Do’s और Donts का दौर शुरु हो जाता है। इस एहसास के साथ लड़की जब बड़ी होती है तो कई सवाल उसके मन में आते हैं। इन सवालों के जवाब बहुत कम मां- बाप समझा पाते हैं। अधिकतर लड़कियां समझौता कर लेती हैं। नींव तो भेद भाव की है, लेकिन एक बात है परिवर्तन पुरूष मानसिकता में लाना ही होगा। महिलाओं में परिवर्तन आ रहे हैं।
आपकी पत्रिका अंतरंग संगिनी प्रेरणास्रोत है ?
- प्रेरणा तो नहीं, शुरुआत कहेंगे। पहले मैं बनाती थी। 1989 के बाद यह काम छोड़ दिया। मैंने 1994 में यह पत्रिका शुरु की। इसके लिये 1993 से चिंतन- मनन चल रहा था। इस समय मेरे मन में विचार आता था कि महिलाओं पर लेख कम आते हैं, आते भी हैं तो संपादक काट देते हैं। वे बलात्कार के मुद्दे को न्यूज के रुप में चटखारे लेकर छापते हैं। तब राहुलदेव, विश्वनाथजी से बातचीत की। उन्होंने कहा कि पत्रिका निकालो, पर निकलते रहना चाहिये यह बहुत जरुरी है। इस तरह मित्रों के सहयोग से, विचार- विमर्श से 1994 से यह पत्रिका शुरु हुई। धीरे- धीरे यह तय हो गया कि एक गंभीर मुद्दे पर यह पत्रिका आधारित रहेगी। If and buts को ध्यान में रखते हुए कोशिश जारी रही। संघर्ष बयान नहीं किया जा सकता। सच कहूं तो बंद करना शुरु करने से ज्यादा कठिन है। अब तो पत्रिका बंद करने का अर्थ है खुद को शून्य करना। कुछ लोगों के अनुसार पत्रिका में यदाकदा कहानी कविता डालकर कमर्शियल बनाओ पर मैं इससे सहमत नहीं हूं। कविताओं कहानियों के लिये कई पत्रिकाएं हैं। निर्णायकों के अनुसार संगिनी एक मुद्दे को लेकर चलती है।
आपको सावित्री फुले सम्मान मिला, इससे कोई अतिरिक्त जिम्मेदारी का अहसास हुआ?
- जब तक अकेले कार्य करती रही, कार्य बंद करने के लिये स्वतंत्र थी। सुधाजी के साथ मेरी काफी शेयरिंग है। सम्मान प्राप्त करने के बाद दायित्व और बोध बढ़ जाता है। लोगों ने इतना उत्साहित किया है कि इसे जारी रखना है। संगठन से जुड़ी महिलाएं हैं, उनका सहयोग है। कभी- कभी हालात से हार जाती हूं पर उत्साह बढ़ाने के लिये काम करने लगती हूं। ज्यादा लोगों तक पत्रिका पहुंचानी है तो बंद कैसे कर सकती हूं।
अपने इतर लेखन के विषय में कुछ कहेंगी?
- देखिये, मेरे अलग- अलग काम मेरी रुचि के हैं। मैंने जो ज़िन्दगी 15 सालों में जी है, उससे मुझमें एक •ाज्बा पैदा हुआ है। मेरे जीवन का लक्ष्य संगिनी है। इसके बिना मेरा जीवन शून्य है। देह व्यापार की महिलाओं के लिये जरुर कुछ करना चाहूंगी भविष्य में। घर की जिम्मेदारियों की वजह से ज्यादा कुछ नहीं कर पा रही। लेखन के लिये संवेदनशील होना बहुत जरुरी है। अब यदि मैं उन महिलाओं से संवेदना के स्तर पर न मिलूं तो उनके मन की बात नहीं निकाल सकती। उनके साथ वैसा ही होना पड़ता है। मैं कुछ अलग काम करना पसंद करती हूं। मैं प्रयास संस्था से बहुत प्रभावित हूं।
प्रयास संस्था under trial and women के लिये कार्य करती है। जो लड़कियां रिमांड होम से आती हैं, उन्हें यहां प्रशिक्षित किया जाता है। मैं इसे ज्यादा सही मानती हूं। बजाय कि लड़कियों को उठाकर लाना और आतंक फैलाना। मैं मानती हूं कि काम हम भले ही धीरे-धीरे करें पर तरीके से करें। उनका पुनर्वसन इस प्रकार करें कि उन्हें वापस लौटना न पड़े। यह जो काम हो रहा है उसमें वे मुख्य धारा में आ जाती हैं ताकि दूसरी महिलाओं के सामने उदाहरण रख सकें।
पता - एच1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड
पूर्व मुंबई- 400097 मोबाइल- 0983395921
ईमेल- shagunji435@gmail.com
परिचय: दिव्या जैन
जन्म- 5.11.1950 मुंबई में। शिक्षा- मुंबई विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए, सेंट जेवियर्स इंस्टिट्यूट ऑफ कम्यूनिकेशन्स के प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम में 1979 से 1984 तक संबद्ध। फोटोग्राफी में विशेष रुचि। यूनिसेफ, एसएनडीटी महिला विद्यापीठ तथा यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन के सौजन्य से दहेज प्रथा, झोपड़पट्टी के लोगों पर तथा सड़क के बच्चों पर तैयार ऑडियो विजुअल बेहद सराहे गये। पिछले उन्नीस साल से अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती में लेखन जारी।
महिला विषयों में गहरी रुचि। महिलाओं की त्रैमासिक पत्रिका 'अंतरंग संगिनी' का तेरह साल से लगातार प्रकाशन, संपादन। समाजसेवा के क्षेत्र में, खासकर महिला जीवन से जुड़े मुद्दों को लेकर सक्रिय। सम्मान- * पत्रकारिता के लिए 1996 में सवेरा भाषा जनसंचार अकादमी की ओर से पुरस्कृत । * सन 2000 में युथ ऑर्गनाइजेशन फॉर यूनिटी की ओर से 'हव्वा की बेटी' पुस्तक के लिये सम्मान। * राजभाषा हिन्दी के विकास हेतु प्रयासरत स्वैच्छिक संस्था महावीर सेवा संस्थान प्रतापगढ़ (उ. प्र.) की ओर से 1999 में हिंदी सेवा को दृष्टिगत रखते हुए 'साहित्य शिरोमणि' की सम्मानोपाधि। * रमणिका फाउन्डेशन ट्रस्ट की ओर से- 12 दिसम्बर, 2003 में स्त्री विमर्श पत्रकारिता, सावित्रीबाई फुले सम्मान।
पता - संपादक, अंतरंग संगिनी, फ्लैट नं.2, दूसरा माला, बी- गोविंद निवास, सरोजनी रोड, विले पार्ले (प.), मुंबई- 400056. फोन- 26143617, मो.9892508118
- मधु अरोड़ा
मैं पहली बार जब एक लड़की के पास गई। बात करते-करते वह लड़की इतनी दुखी हो गई कि रो पड़ी। उसे रोता देखकर मैं भी रो पड़ी। उसने बताया कि उसे इस धंधे में किस तरह लाया गया और अब वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकती।
यह कैसे हुआ कि आपने पत्रकारिता या लेखन के लिए रूपजीवियों का क्षेत्र चुना?
- समाजशास्त्र में एम.ए. होने से मेरा सामाजिक समस्याओं से सरोकार रहा। ये समस्याएं लगातार मेरे दिमाग को मथती रहती थीं कि वेश्याएं क्या होती हैं? इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी। पत्रकारिता करते करते ब्लिट्स के लिये देवदासी पर लेख लिखना था, सो मैटर जमा किया। पीएचओ कर्नाटक जाते हैं देवदासी प्रथा रोकने के लिये। मैं अपने लेख के लिये डॉ. गिलाडा के पास फोटो लेने गई। बातचीत के दौरान जब उन्हें पता चला कि मैं पत्रकार हूं तो उन्होंने मेरे सामने नौकरी का प्रस्ताव रखा। उनके ऑफर पर मैं सप्ताह में दो बार जाने के लिये तैयार हो गई। डॉ. गिलाडा मीडिया में काफी रहे उन्होंने धीरे-धीरे मुझसे पूछा कि क्या मैं महिलाओं के लिये पत्रिका निकाल सकती हूं। हम दोनों ने तय किया कि for and by रूप से लिखा जाये। हमने सखी- सहेली पत्रिका शुरु की। इसे हम उन लोगों को पढ़कर सुनाते थे ताकि उन्हें पता चले कि उनके बारे में क्या लिखा है?
इन महिलाओं से संवाद के बाद आपके अनुभव कैसे रहे?
- मैं पहली बार जब एक लड़की के पास गई। बात करते-करते वह लड़की इतनी दुखी हो गई कि रो पड़ी। उसे रोता देखकर मैं भी रो पड़ी। उसने बताया कि उसे इस धंधे में किस तरह लाया गया और अब वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकती। मैंने उसके साथ उसका दुख बांटा। उसने पूछा कि आप दोबारा कब आयेंगी? इस तरह उनसे संबंध बना और वे मुझे दीदी कहने लगीं। इसी तरह एक पढ़ी- लिखी लड़की के पिताजी की कैंसर से मौत होने के बाद सौतेली मां ने उसे बेच दिया और अंतत: वह इस धंधे में आ गई। देखो न। हमारा इमोशन हमें बहुत परेशान कर देता है। मुझे लगा कि इस सामाजिक समस्या को इम्तेहान के लिये पढ़ा था, पर जब इनसे रुबरु हुई तो मुझे अपने सारे सवालों का उत्तर मिल गया।
जब आप इनसे मिलने जाती थीं, तो इन लड़कियों का रुख कैसा रहता था?
- उनका रुख अच्छा रहता था। मैं वहां निजी रुप से नहीं बल्कि संस्था के जरिये जाती थी। रैपो संस्था के सदस्यों द्वारा बनाया हुआ था। मैं भावनात्मक रुप से जुड़ी, अलग बात है। मैं अकेली जाती तो शायद मुश्किल होती। सामाजिक कार्यकर्ता सफेद कोट पहनते थे। मुझे एक पल के लिये लगा कि मैं भी सफेद कोट पहनूं पर मुझे न किसी ने ऐसा कहा और मैंने भी इस विचार को मन से निकाल दिया। इस तरह के कार्य से जुडऩे के लिये खुद को तैयार करना बहुत बड़ी बात थी। कई संस्थाएं कोशिश करती हैं कि इन महिलाओं के बच्चों को कोई गोद ले ले तो उनकी जिंदगी बदल जाये। दरअसल सामाजिक कार्यकर्ता भी उनके साथ इस तरह संवेदनशील थे कि यदि हम यह न रखें तो काम कैसे करें? हमने जिन महिलाओं को ताई बनाया वे हमारी सामाजिक कार्यकर्ता बन गई हैं। प्रेरणा संस्था इनके बच्चों के लिये काम करती हैं।
कभी पुरुष सामाजिक कार्यकर्ताओं का ईमान डिगता है?
- हां, कभी- कभार ऐसा हो जाता है। भावनाओं पर इन्सान का काबू नहीं रह पाता। लेकिन यह सोचना होगा कि क्या वे ऐसे संबंध को निभा पायेंगे? ये तो पुरुष को सोचना होगा कि जिस दलदल से निकालकर महिला को सामाजिक कार्यकर्ता बनाया है, उसे पुन: उसी दलदल में धक्का न दिया जाये।
उनका जीवन और उनकी समस्याएं और समाधान हम घरेलू औरतों से किस प्रकार भिन्न है?
- वे भी समाज का तबका ही हैं। भावना के तौर पर हममें और उनमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन उनका शोषण कैसे होता है और हम किस तरह तुलना करते हैं, यह जुदा बात है। जहां तक सोच के फर्क की बात है तो फिल्म अभिनेत्री किसी भी तरह के पोज देती है, जरुरत पडऩे पर किसी भी हद तक चली जाती है। मॉडल के अनुसार यदि अच्छा शरीर है तो दिखाने में क्या हर्•ा है? भावनात्मक स्तर पर उनके भी सपने हैं, पर ये बात दीगर है कि उनके सपने पूरे होने के पहले ही टूट जाते हैं। इन्हें तो मजबूरन इस व्यवसाय में डाला गया है। पर हीरोइन के साथ तो यह दिक्कत नहीं है, पर वे भी बदन दिखाने के लिये लाखों रुपये लेती हैं। पैमाना तो पैसा कमाना ही है न! इन्हें हम सभ्य समाज में जोड़ देते हैं। लेकिन इनके लिये तो निकलने का रास्ता ही नहीं है।
आप इस बात को कहां तक मानती हैं कि औरत औरत की दुश्मन है?
- बिल्कुल गलत है यह बात। दलाल के साथ महिला होती हैं जो भगाकर लाई लड़की को कनविन्स करती हैं। ऐसे ही दहेज के मामले में भी औरत औरत की दुश्मन है, गलत है। इसमें भी पुरुष का हाथ है। अन्यथा सास या ननद की क्या म•ााल जो बहू को जला दे। कहीं न कहीं उसमें देवर, ससुर या तथाकथित पति की मंशा रहती है।
आप महिलाओं के दोयम जीवन के लिये किसको दोषी ठहराती हैं?
- समाज को। मूल रुप से हमेशा से पुरूष प्रधान समाज रहा है। उसने स्त्री को यही दर्•ाा दिया है जहां लड़की पैदा होती है वहां यही माना जाता है कि वंश पुरूष चलाता है। इस सोच के साथ ही स्त्री को जीना है। दोयम जीवन के लिये औरत नहीं बल्कि पुरुष ही जिम्मेदार है। पंजाब हरियाणा में असंतुलन है तो शादी के लिये लड़कियां आयेंगी कहां से? कई समाजों में स्वीकृति है पर कितने प्रतिशत?
आपके नजरिये से इन परिस्थितियों से कैसे उबरा जा सकता है?
- यह तो मानसिकता बदलने वाली बात है। यह काम कौन करेगा? अब आप देखिये, लड़के माता- पिता के दबाव में आकर शादी तो कर लेते हैं पर खुद में बदलाव नहीं ला पाते। इस प्रकार लड़की पर शादी के लिये माता- पिता का दबाव। फिर शादी के बाद पुत्र प्राप्ति की इच्छा का बलवती होना। मुझे लगता है कि बच्चों के पालन पोषण में ही भेद रेखा खींच दी जाती है। लड़की को लड़की होने का एहसास बचपन से ही करा दिया जाता है। Do’s और Donts का दौर शुरु हो जाता है। इस एहसास के साथ लड़की जब बड़ी होती है तो कई सवाल उसके मन में आते हैं। इन सवालों के जवाब बहुत कम मां- बाप समझा पाते हैं। अधिकतर लड़कियां समझौता कर लेती हैं। नींव तो भेद भाव की है, लेकिन एक बात है परिवर्तन पुरूष मानसिकता में लाना ही होगा। महिलाओं में परिवर्तन आ रहे हैं।
आपकी पत्रिका अंतरंग संगिनी प्रेरणास्रोत है ?
- प्रेरणा तो नहीं, शुरुआत कहेंगे। पहले मैं बनाती थी। 1989 के बाद यह काम छोड़ दिया। मैंने 1994 में यह पत्रिका शुरु की। इसके लिये 1993 से चिंतन- मनन चल रहा था। इस समय मेरे मन में विचार आता था कि महिलाओं पर लेख कम आते हैं, आते भी हैं तो संपादक काट देते हैं। वे बलात्कार के मुद्दे को न्यूज के रुप में चटखारे लेकर छापते हैं। तब राहुलदेव, विश्वनाथजी से बातचीत की। उन्होंने कहा कि पत्रिका निकालो, पर निकलते रहना चाहिये यह बहुत जरुरी है। इस तरह मित्रों के सहयोग से, विचार- विमर्श से 1994 से यह पत्रिका शुरु हुई। धीरे- धीरे यह तय हो गया कि एक गंभीर मुद्दे पर यह पत्रिका आधारित रहेगी। If and buts को ध्यान में रखते हुए कोशिश जारी रही। संघर्ष बयान नहीं किया जा सकता। सच कहूं तो बंद करना शुरु करने से ज्यादा कठिन है। अब तो पत्रिका बंद करने का अर्थ है खुद को शून्य करना। कुछ लोगों के अनुसार पत्रिका में यदाकदा कहानी कविता डालकर कमर्शियल बनाओ पर मैं इससे सहमत नहीं हूं। कविताओं कहानियों के लिये कई पत्रिकाएं हैं। निर्णायकों के अनुसार संगिनी एक मुद्दे को लेकर चलती है।
आपको सावित्री फुले सम्मान मिला, इससे कोई अतिरिक्त जिम्मेदारी का अहसास हुआ?
- जब तक अकेले कार्य करती रही, कार्य बंद करने के लिये स्वतंत्र थी। सुधाजी के साथ मेरी काफी शेयरिंग है। सम्मान प्राप्त करने के बाद दायित्व और बोध बढ़ जाता है। लोगों ने इतना उत्साहित किया है कि इसे जारी रखना है। संगठन से जुड़ी महिलाएं हैं, उनका सहयोग है। कभी- कभी हालात से हार जाती हूं पर उत्साह बढ़ाने के लिये काम करने लगती हूं। ज्यादा लोगों तक पत्रिका पहुंचानी है तो बंद कैसे कर सकती हूं।
अपने इतर लेखन के विषय में कुछ कहेंगी?
- देखिये, मेरे अलग- अलग काम मेरी रुचि के हैं। मैंने जो ज़िन्दगी 15 सालों में जी है, उससे मुझमें एक •ाज्बा पैदा हुआ है। मेरे जीवन का लक्ष्य संगिनी है। इसके बिना मेरा जीवन शून्य है। देह व्यापार की महिलाओं के लिये जरुर कुछ करना चाहूंगी भविष्य में। घर की जिम्मेदारियों की वजह से ज्यादा कुछ नहीं कर पा रही। लेखन के लिये संवेदनशील होना बहुत जरुरी है। अब यदि मैं उन महिलाओं से संवेदना के स्तर पर न मिलूं तो उनके मन की बात नहीं निकाल सकती। उनके साथ वैसा ही होना पड़ता है। मैं कुछ अलग काम करना पसंद करती हूं। मैं प्रयास संस्था से बहुत प्रभावित हूं।
प्रयास संस्था under trial and women के लिये कार्य करती है। जो लड़कियां रिमांड होम से आती हैं, उन्हें यहां प्रशिक्षित किया जाता है। मैं इसे ज्यादा सही मानती हूं। बजाय कि लड़कियों को उठाकर लाना और आतंक फैलाना। मैं मानती हूं कि काम हम भले ही धीरे-धीरे करें पर तरीके से करें। उनका पुनर्वसन इस प्रकार करें कि उन्हें वापस लौटना न पड़े। यह जो काम हो रहा है उसमें वे मुख्य धारा में आ जाती हैं ताकि दूसरी महिलाओं के सामने उदाहरण रख सकें।
पता - एच1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड
पूर्व मुंबई- 400097 मोबाइल- 0983395921
ईमेल- shagunji435@gmail.com
परिचय: दिव्या जैन
जन्म- 5.11.1950 मुंबई में। शिक्षा- मुंबई विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए, सेंट जेवियर्स इंस्टिट्यूट ऑफ कम्यूनिकेशन्स के प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम में 1979 से 1984 तक संबद्ध। फोटोग्राफी में विशेष रुचि। यूनिसेफ, एसएनडीटी महिला विद्यापीठ तथा यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन के सौजन्य से दहेज प्रथा, झोपड़पट्टी के लोगों पर तथा सड़क के बच्चों पर तैयार ऑडियो विजुअल बेहद सराहे गये। पिछले उन्नीस साल से अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती में लेखन जारी।
महिला विषयों में गहरी रुचि। महिलाओं की त्रैमासिक पत्रिका 'अंतरंग संगिनी' का तेरह साल से लगातार प्रकाशन, संपादन। समाजसेवा के क्षेत्र में, खासकर महिला जीवन से जुड़े मुद्दों को लेकर सक्रिय। सम्मान- * पत्रकारिता के लिए 1996 में सवेरा भाषा जनसंचार अकादमी की ओर से पुरस्कृत । * सन 2000 में युथ ऑर्गनाइजेशन फॉर यूनिटी की ओर से 'हव्वा की बेटी' पुस्तक के लिये सम्मान। * राजभाषा हिन्दी के विकास हेतु प्रयासरत स्वैच्छिक संस्था महावीर सेवा संस्थान प्रतापगढ़ (उ. प्र.) की ओर से 1999 में हिंदी सेवा को दृष्टिगत रखते हुए 'साहित्य शिरोमणि' की सम्मानोपाधि। * रमणिका फाउन्डेशन ट्रस्ट की ओर से- 12 दिसम्बर, 2003 में स्त्री विमर्श पत्रकारिता, सावित्रीबाई फुले सम्मान।
पता - संपादक, अंतरंग संगिनी, फ्लैट नं.2, दूसरा माला, बी- गोविंद निवास, सरोजनी रोड, विले पार्ले (प.), मुंबई- 400056. फोन- 26143617, मो.9892508118
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