- शुभ्रा मिश्रा
मुझे तो कुछ भी सूना नहीं लगता
ना अपना घर
ना ही तुम्हारा कमरा
मैं तो जब भी आती हूँ
बरामदे में लगी कुर्सी पर
तुम्हें बैठे हुए पाती हूँ
पेड़ों से बात करते हुए देखती हूँ तुम्हें
कभी- कभी क्यारियों की घास
निकालते हुए भी तुम्हें पाती हूँ
अपने लगाए फूलों को खिलता देखकर
कितना खुश होते हो तुम!
एक असीम आनंद से तृप्त दिखते हो तुम!
अपने बनाए घर को अपलक निहारते रहते हो
लगता है जैसे हर एक ईंट से कर रहे हो बात तुम
सहलाते हो उन्हें
उनके ऊंचे बढ़ते हुए कद को देखकर
निश्चिंत होते हुए देखती हूँ तुम्हें
हमारी बातें होती रहती हैं
हमेशा की तरह
रात में हॉल की लाइट जला देती हूँ रोज
ताकि तुम उठो, तो ठोकर ना लगे तुम्हें
घर के चारों तरफ की लाइट
रात में जरूर जला देती हूँ
मुझे भी अँधेरा नहीं है पसंद
बिल्कुल तुम्हारी तरह!
भीतर हो या बाहर
सदैव उजाला ही बना रहे!
तुमने सदैव यही सिखाया
बाँटने से बढ़ती हैं अच्छी चीजें
मैं बाँटती रहती हूँ उजालों को
और रश्मियों को, हर क्षण!
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