- सुधा राजा
पत्थर चाकू लेकर सोए, गाँव शहर से परे हुए
रात पहरुए बरगद रोए, अनहोनी से डरे हुए
कब्रिस्तान और श्मशानों, की सीमाएँ जूझ पड़ीं
कुछ घायल, बेहोश, तड़पते, और गिरे कुछ मरे हुए
फुलझड़ियाँ बोईं हाथों पर, बंदूकों की फसल हुई
जंगल में जो लाल कुञ्ज थे, आज खेत हैं चरे हुए
पत्थर देकर बाजवान, काँगड़ी शिकारे छीन लिये
फिरन जले, कुछ बदन छिले, कुछ फटे गले खुरदुरे हुए
रातों- रात बदल गई नीयत, दोस्त, मुसाफिर, भाई की
चीनी, चावल, नमक बाँटते, ऊँचे घर हैं गिरे हुए
लहू टपकते मुँह से बातें, प्यार मुहब्बत उल्फ़त की
आदमखोर इबादतगाहों में बच्चे खरहरे हुए
सीने पर बारूद दिलों में नफ़रत लेकर फटते गए
हूरों के ख्वाबों में सत्तर टुकड़े लाखों झरे हुए
मिल-जुलकर भी रह सकते थे, वतन कभी समझा होता
मगर तुम्हारी ज़िद दुनिया को है बेगाना किए हुए
रेशम की थैली में केसर, चाँदी वाली थाली पर
रक्त सने पंजों में जकड़े, पशमीने थरथरे हुए
काराकोरम के पहाड़ से नाथूला के दर्रे तक
बलिदानों की फसल बोई तब, दिखे शिकारे तरे हुए
बारीकी से नक्क़ाशी कर, बूढ़े नाबीने लिख गए
पढ़कर कुछ हैरान रहस्यों के साये छरहरे हुए
रात -रात भर समझाती नथ, पायल, साहिल धोखा है
ख़त चुपके से लिखे फ़गुनिया,जब -जब सावन हरे हुए
कुल मर्यादा रीत -रिवाजों को ठुकराकर चली गई
टुकड़े- टुकड़े मिली नदी के, पार मुहब्बत धरे हुए
हिलकी भरकर मिलन रो पड़ा, सूखी आँख विदाई थी
वचन प्रेम को सूली देकर, चला कंठ दिल भरे हुए
ज्यों- ज्यों दर्द खरोंचे मेरी ,कालकोठरी पागल- सा
मेरे गीत जले कुंदन से, ‘सुधा’ हरे और खरे हुए
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