1. लौह-द्वार
रात का अन्तिम प्रहर। नगर के प्रवेश-द्वार पर थपथपाहट का स्वर उभरा। द्वारपाल अर्धनिद्रा से हड़ाबड़ाकर जागा। फिर जोर की थपथपाहट।
‘‘अबे कौन आ मरा इस समय!’’
‘‘मैं हूँ हुजूर, आम आदमी!’’
‘‘यह कौन -सा समय है फ़रियाद करने का’’-लौहद्वार को बाहर की ओर धकेलकर खोलते हुए द्वारपाल झुँझलाया।
‘‘हुजूर, सत्यप्रकाश को शन्तिप्रिय ने मार दिया।’’- आम आदमी भयभीत स्वर में बोला।
‘‘क्यों मार दिया। सत्यप्रकाश ने कुछ ग़लत किया होगा। जो मर गया, उसको भगवान भी जीवित नहीं कर सकता। यहाँ क्यों आए हो?”
“न्याय मंत्री जी को सूचित करना था, ताकि वे शान्तिप्रिय के पागलपन पर रोक लगा सकें।’’
‘‘वे अभी सो रहे होंगे। तुम्हें इतनी जल्दी नहीं आना था।’’
‘‘शान्तिप्रिय पर शैतान सवार हो गया है। वह भीड़ लेकर उसके परिवार तक को मारने पर तुला है। उसको न रोका गया, तो अनर्थ हो जाएगा।’’-आम आदमी गिड़गिड़ाया।
‘‘इसमें मंत्री जी क्या कर सकते हैं। इस तरह कोई सीधे माननीय मंत्री जी के पास आता है क्या? क्यों मार दिया? सत्यप्रकाश ने कुछ ग़लत किया होगा।’’ -द्वारपाल ने उपेक्षा से कहा।
‘‘धरती गोल है, इतना ही तो बोला था।’’
‘‘क्या ज़रूरत थी यह सब बोलने की। इस तरह के बयान से शान्ति भंग होती है।”
‘‘आप मंत्री महोदय को खबर कर दीजिए।’’
‘‘इस समय वे फ़रियाद नहीं सुनते।’’- द्वारपाल ने टोका।
‘‘विशेष परिस्थितियों में सुनते हैं, अभी हाल ही में भोर में उन्होंने फ़रियाद सुनी थी।’’
‘‘आप ठहरे आम आदमी। आपकी पहुँच आपके मुहल्ले में भी नहीं। अगर होती, तो यह हादसा नहीं होता। आपको कोई क्यों सुनेगा? आपकी पहुँच किसी ऊपरवाले तक है, जो मंत्री जी से आपकी सिफ़ारिश कर दे।’’
‘‘मेरी पहुँच किसी ऊपरवाले तक नहीं है। मंत्री जी स्वतः संज्ञान भी तो ले सकते हैं।’’
‘‘ठीक है, घर में जाकर बैठो। स्वतः संज्ञान लेने की प्रतीक्षा करो।’’
चीखते हुए लौह- द्वार को द्वारपाल ने बलपूर्वक बन्द कर दिया।
2. अपराधी
वह हँसता-खिलखिलाता और दूसरों को हँसाता रहता था। जो भी उसके पास आता, दो पल की ख़ुशी समेट ले जाता।
एक दिन किसी ने कहा, “यह तो विदूषक है। अपने पास भीड़ जुटाने के लिए यह सब करता है।”
उसने सुना, तो चुप्पी ओढ़ ली। हँसना-हँसाना बन्द कर दिया। उसकी भँवें तनी रहतीं। मुट्ठियाँ कसी रहतीं। होंठ भिंचे रहते।
उसकी गिनती कठोर और हृदयहीन व्यक्तियों में होने लगी थी। वह सोते समय कठोरता का मुखौटा उतारकर हैंगर पर टाँग देता। उसके चेहरे पर बालसुलभ मुस्कान थिरक उठती। पलकें बन्द हो जातीं। कुछ ही पल में गहन निद्रा घेर लेती।
“इतना घमण्ड भला किस काम का”, लोग पीठ पीछे बोलने लगे। उड़ते-उड़ते उसके कानों तक भी यह बात पहुँच गई।
वह मुँह अँधेरे उठा और सैर के लिए निकला। उसने अपना वह मुखौटा गहरी खाई में फेंक दिया।
लौटते समय वह बहुत सुकून महसूस कर रहा था। उसे रास्ते में एक बहुत उदास व्यक्ति मिला। उससे रहा नहीं गया। वह उदास व्यक्ति के पास रुका और उसका माथा छुआ। ताप से जल रहे माथे पर जैसे किसी ने शीतल जल की गीली पट्टी रख दी हो।
देखते ही देखते उसका ताप गायब हो गया। उदास व्यक्ति फूल की तरह खिल उठा।
अगले दिन रास्ते में एक अश्रुपूरित चेहरा सामने से आता दिखाई दिया।
उससे रहा न गया। वह उस चेहरे के पास रुका। द्रवित होकर उसने अश्रुपूरित नेत्रों को पोंछ दिया। उसके बहते खारे आँसू गायब हो गए। दिपदिपाते चेहरे पर भोर की मुस्कान फैल गई।
किसी ने कहा, “जिसका माथा छुआ और आँखे पोंछी, वह एक दुःखी बच्चा था।”
किसी ने कहा- “वह जीवन से निराश कोई युवा था।”
किसी ने कहा- “वह कोई स्त्री थी।”
दस और लोगों ने कहा- “वह सुंदर स्त्री थी।”
शाम होते-होते भीड़ ने कहा, एक लम्पट व्यक्ति ने सरेआम एक महिला को जबरन छू लिया।
अगले दिन उस व्यक्ति का असली चेहरा चौराहे पर दबा-कुचला हुआ पड़ा था। फिर भी उसके होंठों से मुस्कान झर रही थी।
पोंछे गए आँसू उसकी आँखों से बह रहे थे। उसका माथा ज्वर से तप रहा था। लोग कह रहे थे, “उसने आत्महत्या की है।”
3. असभ्य नगर
जंगली कबूतर जब बरगद की डाल छोड़कर शहर में निवास करने के लिए जाने लगा, तब उल्लू से नहीं रहा गया। उसने टोका– "जंगल छोड़कर क्यों जा रहे हो?"
"मैं बेरहम और बेवकूफ लोगों के बीच और नहीं रह सकता। तंग आ गया हूँ मैं सबसे।" कबूतर गुस्से से बोला।
"कहीं शेर, हिरन पर झपट रहा है, कहीं भेड़िया खरगोश के प्राण लेने पर तुला है। कितने क्रूर एवं असभ्य हैं सब! उल्लू को सारी दुनिया बेवकूफ मानती है।"
"शहर में भी तुम्हें इनकी कमी नहीं अखरेगी।" उल्लू हँसा। कबूतर सुनकर झुँझलाया और शहर की तरफ उड़ गया।
दो दिन बाद वही कबूतर उसी बरगद की डाल पर गर्दन झुकाए उदास बैठा था। उल्लू पास खिसक आया–"शहर में मन नहीं लगा क्या?"
लज्जित–सा होकर कबूतर बोला– "मेरा भ्रम टूट गया। शहर में आदमी को आदमी जब चाहता है, कत्ल कर देता है। रोज के अखबार हत्या, बलात्कार, लूटपाट, आगजनी के समाचारों से भरे रहते हैं। आदमी तो जानवर से भी ज़्यादा जंगली और असभ्य है।"
उल्लू ने कबूतर को पुचकारा–"मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं। तभी तो ऋषि–मुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे।"
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