बदलते परिवेश में दीपावली पर्व की उत्सवधर्मिता प्रकृति बिखर गई। धर्म, संस्कृति, परम्परा को सँजोए त्योहार की उल्लासमयी रौनक खास वर्ग तक सिमट गई है। ज्योति पर्व से सम्बद्ध सांस्कृतिक परम्पराएँ विलुप्त होती जा रही हैं। ग्राम्य धरोहर को सँजोने वाली परंपराएँ उपभोक्ता संस्कृति की भेंट चढ़ गई। उल्लासमयी दीपावली आधुनिकता के दौर में प्रदूषणकारी बन गया है। दीप पर्व में समाज का कला-कौशल जो जन अभिव्यक्ति को प्रश्रय देता रहा, वह भी तिरोहित हो चु्का है।
बाजार में खो गई परंपराएँ-
राम के अयोध्या आगमन पर घर-घर उनके स्वागत में दीप जले। लक्ष्मी की पूजा-आराधना के लिए दीप जले। अनेक आख्यान ज्योति पर्व में जुड़ते गए, सभी में दीप ज्योति को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी अनेक परम्पराएँ दीप पर्व के साथ जुड़ी। हमारी सारी परम्पराएँ अभिजात्य उत्सवधर्मी बाजार में खो गईं। मिट्टी के दीपक बिकते नहीं, कुम्हार बेरोजगार हो गए। पर्व में निर्धन और धनिकों की खाई इतनी बढ़ गई कि रोशनी भवनों तक सिमट गई। निर्धन तो बेबस, लाचार बन गया। ग्रामीण उत्पाद वैश्वीकरण के दौर में बेकार साबित होते चले गए। दीपावली की रौनक साधन सम्पन्नों के बीच रच-बस गई है। मध्यम वर्ग तो महँगाई की मार से दोराहे में आ खड़ा हुआ है। फिर दीन-हीनों की कैसी दीपावली! कैसा उत्सव!
पाँच दिनों का उत्सवधर्मी पर्व अपने सिमटे रूप में सम्पन्न होता है। सहमे से लोग बस परम्पराओं का निर्वाह करते हैं।
पाँच दिनों का त्योहार-
7 धनतेरस आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की जयंती है। एक और पौराणिक आख्यान है जहां यम और यमराज की कथा में दीप दान को महादान कहा गया। यह दीपदान का भी पर्व है। पौराणिक आख्यानों, परम्पराओं से हटकर धनतेरस धनपूजा का पर्व कहलाने लगा है। बाजार बढ़ गया। बही-खाता खरीदने का शुभ मुहूर्त के लिए खरीदारी करते हैं। सोने-चाँदी के बाजार सज उठते हैं। मध्यम वर्ग तो जरूरत के सामान खरीद कर संतोष कर लेता है। निर्धन तो हमेशा की तरह याचक बनकर रह जाता है। नरक चौदस महिलाओं के पुनर्जागरण, उनको सम्बल प्रदान करने का दिवस है। पौराणिक आख्यान में प्राग्ज्योतिषपुर के नरकासुर ने सोलह हजार युवतियों को कैद कर रखा था। नरकासुर की नारकीय यंत्रणा से त्रस्त युवतियों का उद्धार भगवान कृष्ण ने किया। तब से यह दिन युवतियों के लिए सौभाग्य की कामना व शृंगार का रहा। आज के बदलते माहौल में, बढ़ती महँगाई ने इसे विस्तृत कर दिया।
तमसो मा ज्योतिर्गमय-
ज्योति पर्व दीपावली विजय, उत्सव, पूजा-अर्चना के साथ अमावस्या के निविड़ अंधकार को दूर कर , 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का उद्घोष करता है। इसी दिन महापुरुषों के निर्वाण दिवस पर दीप प्रज्ज्वलित कर उन्हें नमन करने की परम्परा जुड़ती चली गई है। ज्योति पर्व में दीपक अब नहीं जलते, घर रोशन होते हैं बल्बों, झालरों से। राम का अयोध्या आगमन और उनकी विजय, स्वागत के दीप नहीं सजते। गुरुनानक जी स्मृति में प्रकाश पर्व, दयानंद सरस्वती के निर्वाण की ज्योति को मानने वाले आधुनिक परिवेश के परम्परा वादी हो गए। गौतम बुद्ध ने अपने निर्वाण पर कहा था, 'अप्प दीपों भव' अर्थात् खुद दीपक बनो। महापुरुषों के वचनों को हमने विस्मृत कर दिया और अपनी परंपरा से हटकर आधुनिक बन बैठे।
प्रकृति को सहेजना भूले-
लक्ष्मी पूजा के लिए लाई-बताशे की जगह मेवा मिष्ठान्नों की दुकानों में भीड़ लगती हैं। आम्र पत्तों की वंदनवार ने प्लास्टिक का जामा पहन लिया। मिट्टी के दीपों को महँगाई लील गई। कुम्हार के दिये अब कौन खरीदेगा। लक्ष्मी को प्रिय लगने वाले कमल अब दुर्लभ होने लगे, जिनको संजोने वाले तालाब तो कहीं-कहीं रह गए हैं। घर-घर बनते पकवानों की महक मिलावट में खो गई, तो कहीं महँगाई ने दूर कर दिया। धनदेवी लक्ष्मी माता की बाट जोहते रात्रि जागरण अब कठिन हो गया है।
लोक परंपराएँ हुईं विस्मृत-
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में उत्सव मनाने की अपनी-अपनी परम्परा रही है। फसल कटाई के बाद उत्सव प्रारंभ होते हैं। लोक नृत्य गीतों की शुरूआत दीप पर्व के साथ प्रारंभ होती है। छत्तीसगढ़ में ग्रामीण इलाकों की महिलाएँ सुआ नृत्य करती हैं। सुआ नृत्य की मनोहर छटा अब कहीं-कहीं दिखती है, वहीं उसके गीत व्यावसायिकता का जामा पहन बैठे हैं। यादव समाज का राउत नाच बिखर रहा है। नृत्य में गड़वा वाद्य उसके वादक कम हो चले हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले लोक नृत्य ऐसे ही खत्म हो चले हैं।
गोवर्धन पूजा और अन्नकूट महोत्सव कृषि और ग्राम्य जीवन के लिए विशेष रहा है। श्रीकृष्ण ने इन्द्र पूजा की जगह वन-पर्वत को पूजने की परम्परा चलाई। वन, पहाड़ ही वर्षा को आकर्षित करते हैं। देवराज इन्द्र ने क्रोधवश मूसलाधार बारिश की, जिससे बचने के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को ही उठा लिया। पर्वत के नीचे सभी को आश्रय मिला। इस की स्मृति में यह दिन वनश्री, पहाड़ को पूजने का दिन बन गया। जंगलों में पशुधन को ले जाकर अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है। अब गोवर्धन पर्वत की परंपरा पूजा तक सिमट गई है। पहाड़ तोड़े जा रहे हैं, जंगल काटे जा रहे हैं। देशी गाय को उन्नत नस्ल के नाम विकृत किया जा रहा है। अन्नकूट महोत्सव अब देवालयों तक सिमट कर रह गया है।ज्योतिपर्व दीपावली का उत्सवधर्मी पर्व पर वह उल्लास नजर नहीं आता। दीपों का उजास भी बेबस हो रहा है, हमारे मन के अँधकार को दूर करने में। प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन करने वाले लोग निमित्त मात्र रह गए हैं। दीपावली जिसमें हर वर्ग की भागीदारी रहती थी अब वह बिग बाज़ार की चकाचौंध में गुम हो चली है। आमजन का आर्थिक संबल जहां बिखर गया है तो ऐसे में वे कैसे करे मॉ की आराधना...!
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