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Nov 1, 2024

किताबेंः व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सम्यक मूल्यांकन ‘अपने अपने देवधर’

 -  डॉ. राघवेंद्र कुमार दुबे

पुस्तक:  ‘अपने अपने देवधर’, संपादक:  बसंत राघव, प्रकाशक: बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग,  (बिलासपुर - छ. ग.), मूल्य : 1000, पृष्ठ : 368

छत्तीसगढ़ महतारी की पावन भूमि, संस्कृति की विशिष्ट महत्ता रही है, जिसके सुवास को बिखरने का महत्त्वपूर्ण कार्य छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र कर रहे हैं, जिसकी आज आवश्यकता है । इसी क्रम में एक नाम छत्तीसगढ़ के सशक्त हस्ताक्षर वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. देवधर महंत जी का भी है, जिन्होंने यहाँ की संस्कृति, साहित्य, और साहित्यकारों की महत्ता को उजागर करने में अपना महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, वहीं हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं । 
 वर्तमान में इसकी आवश्यकता है कि जो माटीपुत्र, छत्तीसगढ़ की संस्कृति, साहित्य की सेवा कर रहे हैं, उनके भी व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सम्यक मूल्यांकन करने की, तथा उनकी साधना का सम्मान करने की। यही महत्त्वपूर्ण कार्य युवा कवि साहित्यकार श्री बसंत राघव रायगढ़ ने किया है- छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. देवधर महंत जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सम्यक् मूल्यांकन करने वाली कृति ‘अपने अपने देवधर’ का प्रणयन करके। इसमें छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध प्रभृत साहित्यकारों ने डॉ. देवधर महंत जी के व्यक्तित्व के साथ उनके समग्र साहित्यिक अवदान  को दिग्दर्शित किया है । 
   संपादकीय में युवा साहित्यकार श्री बसंत राघव ने उनकी पंक्तियों को उद्धृत करते हुए लिखा है –“कविता मेरी आत्मा साँस की तरह लेखन  मैं कबीर का वंशधर कहता आँखिन देखी।’’
 किसी के लिए लेखन शौक या आत्म प्रदर्शन हो सकता है; लेकिन किसी के लिए लेखन साँस लेने की तरह होता है। ऐसे ही शब्द शिल्पी हैं -देवधर महंत । आगे उन्होंने लिखा है-  “ ऐसे वरिष्ठ साहित्य का डॉक्टर देवधर महंत पर केंद्रित कृति “अपने-अपने देवधर” का संपादन करते हुए मैं अभिभूत हूँ । इसके लिए मुझे अनेक सुधी हस्ताक्षरों के आलेख उपलब्ध हुए, जिनका मधु संचय है यह किताब ।  डॉ बलदेव के बाद वे मेरे साहित्यिक गुरु भी हैं । देवधर महंत जी की विनम्रता, सहजता बौद्धिक ना होकर छत्तीसगढ़ निवासी होने के नाते स्वाभाविक है । यही उनकी संस्था उनके साहित्य में भी विद्यमान है । उनकी भाषा एवं काव्य शिल्प अद्भुत एवं अनुशासित है । उनकी कविताओं एवं आलेखों से गुजरते हुए उनकी सधी हुई भाषा व भाव प्रवणता हमें चकित कर देती है । उनकी रचनाओं से रूबरू होते हुए एक चुंबकीय प्रभाव से हम अपने आप को नहीं बचा पाते हैं, उससे मुक्ति संभव भी नहीं । यही कारण है कि उनकी कविताएँ हमारे अंतस्  में हमेशा के लिए रच बस जाती हैं । वे अपनी बातों को प्रांजल भाषा में बेहतर तरीके से प्रस्तुत करते हैं । उनकी भाषिक संप्रेषणीयता अर्थगर्भित होती है । वे अपनी बातों को पूरी समग्रता एवं कलात्मकता के साथ पाठकों के समक्ष रखते हैं । छत्तीसगढ़ी कविता में व्यंग्यपरक यथार्थ उद्घाटित करने में उन्हें महारत हासिल है।’’  वहीं इस कृति में देश के सुविख्यात  समीक्षक एवं भाषाविद् डॉ विनय कुमार पाठक पूर्व अध्यक्ष छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग एवं कुलपति थावे विद्यापीठ गोपालगंज बिहार का एक आलेख ‘छत्तीसगढ़ी काव्य और बेलपान’ को भी शामिल किया गया है, जिसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ी काव्य का ऐतिहासिक परिचय देते हुए डॉक्टर देवधर महंत के सुप्रसिद्ध काव्य- संग्रह ‘बेलपान’ के लिए के लिए लिखा है–  “ ऐतिहासिक क्रम में ‘अकादशी’ संग्रह के बाद ‘बेलपान’ की कविताएँ सांस्कृतिक संस्पर्श और मौलिक सांस्कृतिक उपमानों  को लेकर अवतरित हुई हैं । ‘बेलपान’ का कवि छत्तीसगढ़ी कृषक- पुत्र है, अतः ग्रामों को, ग्रामीण कृषक भाइयों को उसने गहराई और सच्चाई के साथ देखा परखा है । स्वाभाविकता के कारण ग्राम को ईश्वरकृत और कृत्रिमता के कारण शहर को मनुजकृत मानना कवि की उचित सूझबूझ और गहन चिंतन का परिचायक है—
मोर गाँव वाला गढ़िन भगवान, शहर सिरजिन मनखे मन।
 ऐसे में ग्राम में कृषक की स्थिति साक्षात भगवान की हो जाती है< जिसकी लीला भूमि में पैरी पहनकर वर्षा रानी और रंग बिरंगे परिधानों से सज्जित  होकर आकाश शोभन पाते हैं –
आगे पैरी पहिरे बरखा रानी, बादर कुरता पहिरे आनी बानी।
     ग्रामीण नायिका जब तुलसी चबूतरा बन जाती है, तो नायक इसकी आराधना- साधना के लिए उसके गुणों  से सम्मोहित भ्रमर बनकर प्रेम का स्पष्ट गुनगुना अलापता है । कवि प्रसिद्धि में भ्रमर  स्वार्थी माना गया है,  किंतु यहाँ पर कवि के प्रयोग ने उसे निस्वार्थ प्रेमी बना दिया है । यही कवि का वैशिष्ट्य है –
मैं बनेव पुजारी तैं तुलसी के चौराहे
 ममहाके मोला तैं बनाय हस भौंर॥
     किंतु ऐसा ही जीवन जब आलसी मनुज के भाग्य में आता है तो उसका जीवन दुरूह दुर्गम हो जाता है । इसी भावना को अपने ढंग से सोचता है, अपने रंग से रँगता है–
आलस के ढेंकी मा जिनगी कनकी रे ।
 बोटका कस जिनगानी के कहिनी रे ।
  इस तरह अन्य कविताओं में भी सांस्कृतिक संस्पर्श और नवीन चिंतन की छटा देखने को मिलती है। ‘बेलपान’ निश्चित: छत्तीसगढ़ी साहित्य के बेल के पौधे की तरह अपना महत्त्व रखता है । आशा है- ‘बेलपान’ ग्रहण कर लोग सात्विकता का अनुभव करेंगे।’’
इस तरह युवा हस्ताक्षर श्री बसंत राघव द्वारा संपादित कृति ‘अपने-अपने देवधर’ डॉक्टर देवधर दास महंत जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सम्यक मूल्यांकन करने में सफल रहा है ।
 इस कृति के प्रकाशन के लिए मैं संपादक श्री बसंत राघव को हार्दिक बधाई देते हुए आदरणीय डॉक्टर देवधर दास महंत जी को हार्दिक बधाई देते हुए उनके स्वस्थ सुखी जीवन की कामना करता हूँ ।

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