- सीताराम गुप्ता
पिछले दिनों हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मस्थली व गांधीजी के चौदह दिवसीय प्रवासस्थल अनासक्ति आश्रम को देखने की तीव्र इच्छा के वशीभूत कौसानी जाना तय हुआ। दिल्ली से ड्राइविंग करते हुए सीधे कौसानी जा पहुँचे। कौसानी से बागेश्वर व बागेश्वर से नैनीताल होते हुए दिल्ली वापसी की। नैनीताल से दिल्ली के लिए प्रमुख रूप से दो रास्ते हैं। एक काठगोदाम व हल्द्वानी होते हुए और दूसरा कालाढूंगी होते हुए। कालाढूंगी के रास्ते पर कालाढूंगी के पास छोटी हल्द्वानी नामक स्थान है जहाँ पर एक छोटा-सा अत्यंत व्यवस्थित संग्रहालय है जिसका नाम है जिम कॉर्बेट संग्रहालय। इसमें जिम कॉर्बेट के जीवन से संबंधित घटनाओं और वस्तुओं को अक्षुण्ण रखने का प्रयास किया गया है।
जिम कॉर्बेट एक कुशल शिकारी थे जंगल जिनके लिए दूसरा घर था। बाद में उन्होंने शिकार करना छोड़ दिया और एक पर्यावरण व प्रकृति प्रेमी, वन संरक्षक तथा कुशल छायाकार बन गए। आज जिम कॉर्बेट के नाम से जो जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क है वह जिम कॉर्बेट के प्रयासों का ही परिणाम है। जिम कॉर्बेट के प्रयासों से सन् 1935 में वन्य पशुओं को बचाने के उद्देश्य से यह संरक्षित पार्क बनाया गया था और तत्कालीन गवर्नर मालकम हेली के नाम पर इस पार्क का नाम हेली नेशनल पार्क रखा गया था। स्वतंत्रता के बाद इस पार्क का नाम रामगंगा नेशनल पार्क रख दिया गया। बाद में सन् 1957 में इस पार्क का नाम जिम कॉर्बेट के सम्मान में ‘जिम कार्बेट नेशनल पार्क’ रख दिया गया।
जिम कॉर्बेट एक महान शिकारी, पर्यावरण एवं प्रकृति प्रेमी, वन संरक्षक, कुशल छायाकार ही नहीं एक प्रसिद्ध लेखक भी थे। संग्रहालय में एक छोटी सी सुवनीर शॉप भी है, जहाँ जिम कॉर्बेट की लिखी पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। मैंने वहाँ उपलब्ध जिम कॉर्बेट की सभी पाँचों पुस्तकें ख़रीद लीं और घर आकर सभी पढ़ डालीं। जिम कॉर्बेट के बारे में जानने पर ऐसा लगा कि हिंदी भाषा और साहित्य में फादर कामिल बुल्के का जो स्थान व सम्मान है, कुछ वैसा ही स्थान व सम्मान पर्यावरण, प्रकृति व वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में जिम कॉर्बेट का है। जिम कॉर्बेट अपनी पुस्तक ‘जंगल लोर’ में लिखते है, ‘‘प्रकृति में न तो कोई दुख होता है और न ही कोई अफ़सोस। झुंड में से कोई पक्षी बाज़ का शिकार बन जाता है अथवा कोई चौपाया शेर या तेंदुए का शिकार हो जाता है, तो बाक़ी बचे हुए पक्षी और जानवर इस बात की ख़ुशी मनाते हैं कि चलो आज हमारा वक्त नहीं आया। उन्हें आने वाले कल का भी कोई एहसास नहीं होता।’’
काश हम मनुष्यों को भी आने वाले कल का एहसास नहीं होता। यदि ऐसा होता तो कितना अच्छा होता। हम भी आने वाले कल अथवा भविष्य की चिंता किए बिना निश्चिंत व निर्द्वंद्व होकर मज़े से वर्तमान में जीते। जानवरों को आने वाले कल की कोई चिंता नहीं होती; इसलिए वे मज़े से जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी स्वाभाविक मस्ती में कभी कोई कमी नहीं आती। भूख लगने पर ही भोजन के लिए हाथ-पैर मारते हैं। कोई भी मांसाहारी जंगली जानवर अथवा परिंदा बिना भूख के शिकार नहीं करता। पेट भरा होने पर कोई किसी दूसरे जानवर को नहीं मारता। एक बार शिकार करने के बाद, जब तक उस पूरे शिकार को उदरस्थ नहीं कर लेता, दूसरा शिकार हरगिज नहीं करता। उनके जीवन में तनाव नामक तत्त्व होता ही नहीं। जहाँ तक भूख लगने पर शिकार करने का प्रश्न है, यह प्राकृतिक भोजन शृंखला का अंग है, जो वन और वन्यजीवन में संतुलन के लिए अनिवार्य है।
लेकिन मनुष्य? वह आज या वर्तमान की चिंता करने की बजाय आने वाले कल अथवा भविष्य की चिंता में अधिक डूबा रहता है। इसी से आज तनाव बहुत बढ़ गया है। यह ठीक है कि मनुष्य अपने विकास की उस अवस्था में पहुँच गया है जहाँ उसके लिए भविष्य के बारे में विचार करना भी अनिवार्य है। भविष्य की उचित प्लानिंग तो ठीक है; लेकिन चिंता किसी भी तरह से उचित नहीं मानी जा सकती। कल की चिंता में हम आज में जीवन जीना भूलते जा रहे हैं, जिसके कारण हमेशा तनावयुक्त रहते हैं। यह तनाव भविष्य के सुख को भी, जो एक तरह से काल्पनिक है, चट कर जाता है। हम कई बार देश में कई स्थानों पर जंगल राज की बात करते हैं। शहरों में चाहे जो हो जंगलों में कुछ भी अव्यवस्थित नहीं है। कुछ भी काल्पनिक नहीं है। सब कुछ स्वाभाविक रूप से चलता है। वहाँ परस्पर शोषण की प्रक्रिया नहीं है। वहाँ संग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं पाई जाती। वहाँ कोई छोटा या बड़ा नहीं है। कोई प्रतिशोध की आग में नहीं सुलगता। कोई बदला लेने के फ़िराक़ में नहीं घूमता। वहाँ मान-अपमान जैसी काल्पनिक स्थितियाँ भी नहीं मिलतीं।
अपनी पुस्तक ‘जंगल लोर’ में जिम कॉर्बेट आगे लिखते है, ‘‘जब मैं नादान था तब नन्हे पक्षियों और हिरणशावकों को बाज़ों, चीलों व दूसरे जानवरों के पंजों से छुड़ाने की कोशिश करता था; लेकिन जल्दी ही मुझे पता चल गया कि एक की जान बचाने से दो की जान जाती है। शिकारी पक्षियों अथवा जानवरों के ज़हरीले पंजों की वजह से उनमें से एक प्रतिशत पक्षी अथवा दूसरे नन्हे जानवर ही जीवित रह पाते थे। दूसरी ओर शिकारी जानवर अपना अथवा अपने बच्चों का पेट भरने के लिए फ़ौरन ही दूसरा शिकार कर लेता था। जंगल में कुछ पक्षियों और जानवरों का उत्तरदायित्व प्रकृति में संतुलन बनाए रखने का होता है, जिसके लिए प्रकृति में संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ अपना पेट भरने के लिए शिकार करना भी अनिवार्य हो जाता है।’’जहाँ तक संतुलन की बात है जीव-जंतुओं की जितनी भी गतिविधियाँ हैं, वे सब प्रकृति के संतुलन को बनाए रखती हैं। उससे प्राकृतिक संतुलन को कोई हानि नहीं पहुँचती। मनुष्य को जंगली जीव-जंतुओं को बचाने की नहीं; अपितु उनका आवास न छीनने की ज़रूरत है। आज मनुष्य न केवल प्रकृति के संतुलन को नष्ट करने पर आमादा है; अपितु स्वयं की सुव्यवस्था को भी नष्ट कर रहा है। मनुष्य जीव-जंतुओं के प्राकृतिक आवास को नष्ट करके ख़ुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहा है। हम चाहें तो इन जंगली जानवरों से न केवल चिंता व तनाव से मुक्त रहने का सूत्र सीख सकते हैं अपितु अपरिग्रह व सीमित उपभोग द्वारा प्रकृति व पर्यावरण को नष्ट होने से बचाने की कला भी सीख सकते हैं।
सम्पर्कः ए.डी. 106 सी., पीतमपुरा,दिल्ली - 110034, मो. 9555622323, Email : srgupta54@yahoo.co.in
No comments:
Post a Comment