- डॉ. रत्ना वर्मा
अक्सर शहर में रहने वालों को आपने कहते सुना होगा कि हम छुट्टियों में, दीवाली या अन्य तीज त्योहारों में अपने गाँव के घर जा रहे हैं। ‘अपने गाँव’ कहकर बताते हुए गर्व और खुशी का अनुभव होता है । सामने वाले को भी एक उत्सुकता रहती है। वे सोचते हैं कि वाह कितना अच्छा लगता होगा न गाँव के अपने घर जाना। शहर की आपाधापी से दूर, हरे- भरे खेत खलिहान, कुएँ - बावड़ियाँ, न गाड़ियों का शोर- शराबा, न गंदगी ....। उनकी इसी सोच को देखते हुए आजकल ग्रामीण पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसके माध्यम से वे ग्रामीण जीवन शैली की झलक को करीब से देख सकते हैं और गाँव की लोक संस्कृति, परंपरा, खान- पान को उनके बीच रहकर प्रत्यक्ष अनुभव कर पाते हैं।
अब तो मिट्टी के छप्पर वाले घरों की जगह सिमेंट और ईंट वाले पक्के मकानों ने ले लिया है। गोबर से लिपे हुए घर- आँगन, अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। अतः पर्यटकों के लिए एक कृत्रिम गाँव और घर का वातावण निर्मित कर क्षेत्र विशेष के लोकनृत्य, लोकगीतों का आयोजन कर उन्हें गाँव के वातावरण में रहने का अहसास कराया जाता है। राजस्थान की पर्यटन- संस्कृति में इसका विकसित रूप दिखाई देता है। धीरे - धीरे अब अन्य प्रदेशों में भी ग्रामीण पर्यटन पनपने लगा है। यद्यपि यह सब पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बेहतर हो सकता है; पर प्रश्न यह है कि क्या सचमुच गाँव की तस्वीर इससे बदली जा सकती है?
मैं गाँव को लेकर अपना अनुभव साझा करूँ, तो अपने जन्म से लेकर अब तक लगभग हर साल की दीवाली मेरी गाँव में ही मनती है। पिछले तीन- चार दशकों में गाँव के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों में बहुत कुछ बदल गया है। गाँव की पगडंडियाँ, सड़कों में तब्दील हो गईं, आवागमन के साधन बढ़ने के साथ ही गाँव की शांति, सादगी, अपनापन सबमें बदलाव दिखाई देने लगा। एक समय था, जब लोग कम संसाधनों में भी खुश रहते थे। आपसी भाईचारा और सांस्कृतिक एकता की जो तस्वीर दिखाई देती थी, वह आज की भाग-दौड़ वाली व्यस्त जिंदगी और तथाकथित तरक्की की ऊचाँइयों में कहीं गुम हो गई है। गाँव की मिट्टी की वह सोंधी खुशबू भी अब बिगड़ते पर्यावरण के कारण प्रदूषित हो चुकी है।
हमारे लोक- सांस्कृतिक पर्व- त्योहार, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता था, से दूरी भी धीरे - धीरे बढ़ती जा रही है। शिक्षा के प्रचार- प्रसार के बावजूद शराब और जुए जैसी बुरी आदतों के कारण नई पीढ़ी में भटकाव बढ़ते जा रहा है। विकास के सारे रास्ते खुले होने के बाद भी गाँव की वह खूबसूरत तस्वीर, जिसे हर बच्चा अपनी ड्राइंग की कॉपी में उकेरता है, अब वैसी नजर क्यों नहीं आती?
क्या इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार नहीं है? शिक्षा का वही स्तर, जो हम शहर के स्कूल कॉलेज में देते हैं, गाँव में क्यों उपलब्ध नहीं करा पाते? यदि ऐसा होता, तो गाँव के लोग अपने बच्चों को गाँव से बाहर नहीं भेजते। एक बार बच्चा गाँव के बाहर निकला कि फिर वह वापस गाँव नहीं जाता। तो ऐसी उच्च शिक्षा का क्या मतलब, जो उसे अपनी जन्म- स्थली, अपनी धरती से दूर कर दे।
गाँव जो अपने आपमें पहले आत्मनिर्भर होते थे - अनाज, कपड़ा और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति कुटीर उद्योगों के माध्यम से पूर्ण हो जाया करती थी; परंतु औद्योगीकरण और बाजारवाद ने सब कुछ खत्म कर दिया है। इससे ग्रामीण शिल्प और उद्योग तो समाप्त हुए ही हैं, बेरोजगारी भी बढ़ी है। युवा रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, इस पलायन ने ग्रामीण अर्थ -व्यवस्था को बिगाड़ दिया है। कृषि पर निर्भर ग्रामीण आधुनिक तकनीक के बावजूद वैसी तरक्की नहीं कर पा रहे हैं जैसे बाहरी प्रदे
जाहिर है हम गाँव के विकास की बात आजादी के बाद से ही करते चले जा रहे हैं; पर गाँव या तो अब धीरे- धीरे शहर में तब्दील होते जा रहे हैं या खाली होते जा रहे हैं। तरक्की सबको पसंद है; पर तरक्की ऐसी हो, जो सबको एक बेहतर जिंदगी दे, न कि उसे संग्रहालय की वस्तु बना दे। गाँव के मिट्टी की सोंधी खुशबू को बचाए रखना है, वहाँ की सादगी और अपनापन को बनाए रखना है, तो हमें गाँव की ओर लौटना होगा। गाँव को सँवारना होगा। तो आइए, इस दीवाली अपने- अपने गाँव को मिट्टी के दीयों से जगमग करने का प्रयास करें।
सुधी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएँ।
000
3 comments:
आदरणीया 🌷🙏🏽
बहुत मार्मिक मुद्दे को छुआ है आपने इस बार। मेरा बचपन भी ग्राम की गोद में बीता सो आज बचपन की कई स्मृतियाँ मानस पटल पर उभर आईं। पर अब सब कुछ खो गया है वहां भी और यहां भी। भैंस चराता हरिया काका, जो खुश है करके भी फाका। गरीब और बेरोजगार गांव के युवा को शहर की अंधियारी गलियां निगल गईं। क्या कहें सब कुछ तो बदल गया। सच कहें तो :
- इस दौर में वफ़ा की बात मत कर यारब
- वो दौर और था जब मकान कच्चे और लोग सच्चे थे
मन को गहराई तक आंदोलित कर गया आपका इस अंक का योगदान। खुशी की बात तो यह है आपकी दिवाली आज भी सपरिवार अपने गांव में मन रही है। सौभाग्यशाली हैं आप, आपका परिवार और आपका दृढ़ निश्चय। शुभकामना एवं बधाई सहित सादर
अपका अनेक - अनेक बार धन्यवाद और आभार जोशी जी l आपकी टिप्पणी हमेशा ही प्रेरणादायी और उत्साहित करने वाली होती है l आप बिल्कुल सही कह रहे हैं सब कहीं खो सा गया हैl लेकिन इन सबके बाद भी यही कहूँगी शहर में बिजली के लट्टूओं और फटाकों के शोर से तो बेहतर है गाँवl हमनें अपनी परम्पराओं और संस्कृति को कुछ तो बचा कर रखा है lआगे भी यह बचा रहे हमें यही प्रयास करना है l
गाँव में दिवाली तो नहीं मनाई लेकिन छोटे शहरों की दिवाली भी गाँवों जैसी हुआ करती थी। कृत्रिमता से दूर।दिखावा ही सही पर पर्यटन स्थलों के माध्यम से हम अपने अतीत में , अपनी संस्कृति की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं। बहुत सुंदर आलेख। हार्दिक बधाई सुदर्शन रत्नाकर
Post a Comment