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Nov 1, 2024

कविताः अँधियार ढल कर ही रहेगा

 -  गोपालदास ‘नीरज’


आँधियाँ चाहे उठाओ,

बिजलियाँ चाहे गिराओ,

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाए,

वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाए,

वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,

जो नया सूरज उगाए जब तड़पकर तिलमिलाए,

उग रही लौ को न टोको,

ज्योति के रथ को न रोको,

यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,

धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,

दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,

देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,

व्यर्थ है दीवार गढना,

लाख लाख किवाड़ जड़ना,


मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,

टोक दो तो आँधियों की बोलियों में बोलती है,

वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,

वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,

जाल चांदी का लपेटो,

खून का सौदा समेटो,

आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,

बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,

क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,

हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,

उस सुबह से सन्धि कर लो,

हर किरन की माँग भर लो,

है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


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