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Aug 20, 2009

सूचना का अधिकार

- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को यह जानने का हक है कि सरकार अपने अधिकार का किस तरह इस्तेमाल कर रही है जहां अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं होगा वहां लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। लोकतंत्र में सूचना के अधिकार का अपना विशिष्ट महत्व है, क्योंकि इससे सरकार और जनता के बीच सीधा रिश्ता तय होगा इस अधिकार के पास हो जाने से यह भी सुनिश्चित होगा कि जबावदेही किसके प्रति कैसी होनी चाहिये। वास्तव में देखा जाये तो इस कानून से लोकतंत्र की असली पहचान की भूमिका भी तय होगी। हमारे यहां सूचना के अधिकार की लड़ाई जमीनी है। यानी सूचना पाने की जद्दोजहद गरीब लोगों के बीच से निकला हुआ मसला है। वास्तव में देखा जाये तो यह कानून जीने के हक से भी जुड़ा है क्योंकि भ्रष्टाचार ने आम लोगों का हक मार दिया है।
वर्तमान की बात करें तो भारत में नौकरशाही संस्कृति की वजह से गोपनीयता की चादर फैली हुई है। ये कुलीन लोग जनता से दूरी बनाये हुए हैं और एक कृत्रिम आवरण ने सच्चाई पर पर्दा डाल रखा है। सरकारी गोपनीयता कानून 1923 का हवाला देकर अब भी औपनिवेशिक काल के कानून को वैधानिक बनाए रखा गया है और देखा जाए तो यही गोपनीयता कानून सूचना के अधिकार के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा था। (आज के करीब 84 वर्ष पहले 1923 में बना सरकारी गोपनीयता कानून यानी ऑफिसियल सीक्रटस एक्ट की धाराएं पांच और छह) वास्तव में देखा जाए तो इस कानून के बनाने की कहानी अंग्रेजी सरकार ने 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम के बाद से ही शुरू कर दी थी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद पहली बार 1889 में यह कानून बना था। बाद में 1904 में इसे और सख्त बना दिया गया। इस कानून की धारा 1.5 और 6 के प्रावधानों का फायदा उठाकर ही अभी तक सरकारी अधिकारी सूचनाओं को गोपनीय बनाये रखते थे परन्तु संसद के दोनों सदनों ने सूचना के अधिकार सम्बन्धी विधेयक (11.12 मई 2005) को धारा 15.और 6 गोपनीयता कानून 1923) संशोधित कर दिया गया है।
 यहां प्रश्न उठते हैं कि इस सूचना के अधिकार से क्या भ्रष्टाचार में अंकुश लग जाएगा? क्या अब निर्वाचित जन प्रतिनिधि की जनता के प्रति जबावदेही बढ़ेगी? क्या सरकारी अधिकारियों की मनमानी
रूकेगी? क्या नीतियां बनाने और उनके क्रियान्वयन में जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी और अंतत क्या हमारा लोकतंत्र पहले के मुकाबले ज्यादा पारदर्शी हो सकेगा? निश्चित रूप से यह सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सूचना के अधिकार के साथ कुछ खतरे हो सकते हैं? और सरकार के लिए यह दुधारी तलवार भी है किन्तु सरकार ने इसके दुरूपयोग रोकने के लिए, पुख्ता इंतजाम भी किए हैं। सुरक्षा मामलों की जानकारी और खुफिया एजेंसियों को इसके दायरे से बाहर रखकर एक संतुलन कायम करने की कोशिश की गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना में ताकत होती है और आज लगभग हर स्तर का अधिकारी सूचनाएं छिपाकर मननमानी करता है। गलत तरह से पैसा कमाता है। साथ ही अधिकारों पर कब्जा जमाता है और शक्तियों का दुरूपयोग करता है। अत: सूचना के अधिकार का मुख्य उद्देश्य सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार पर नकेल डालकर कार्य कुशलता को बेहतर करना है। इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि 'इससे देश में लोकतंत्र की नींव मजबूत होगी और गवर्नेंस में सुधार आएगा। (संसद में सूचना के अधिकार विधेयक पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के वक्तव्य का मुख्य अंश 11ए 12 मई 2005)12 अक्टूबर सन् 2005 ई. से लागू
 सूचना का अधिकार लगभग बारह वर्षों से आन्दोलन का रूप अख्तियार कर रहा था। यहां इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि सूचना के अधिकार के लिए भारत में जिस तरह से आन्दोलन चलाए गए, वैसा दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में दिखाई नहीं पड़ता। इस आन्दोलन को अरूणा राय और उनके साथियों ने अपने संघर्ष को 'जीने और जानने की जंग' कहा था। (सहारा समय- जानने की जंग का पहला पड़ाव 4 जून 2005 पृ. 22.23)। सूचना के अधिकार के तहत हालांकि दंड का प्रावधान रखा गया है परन्तु इस पर अमल होगा यह सभी कुछ तब तक मात्र एक स्वप्न की तरह है जब तक यह कानून केवल कुछ नियमों उपनियमों के रूप में कुछ पृष्ठों की शक्ल के रूप में ही सीमित रहेगा। यह अधिकार जहां एक ओर नागरिकों और सरकार के बीच एक सेतु का कार्य करेगा वहीं इस विधेयक में कुछ ऐसे चोर दरवाजे नौकरशाहों और सरकारी अफसरों के बीच पनप सकते हैं जिन्हें स्पष्ट करना कठिन हो सकता है। 'मसलन, विधेयक में ऐसे करीब दर्जनों क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है जिन क्षेत्रों की सूचनाएं कोई नागरिक नहीं मांग सकता। जैसे वे सूचनाएं जिनके सार्वजनिक होने से भारत की प्रभुता, अखण्डता, सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों और विदेशों से सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। अब सवाल उठता है कि इसका निर्धारण कैसे होगा कि अमुख सूचना देश की एकता-अखण्डता..... के लिए गोपनीय रखी जाएगी? स्पष्ट है सरकारी अधिकारी ही इसे निर्धारित करेंगे और एक बार फिर हमारा लोकतंत्र ठगा जायेगा क्योंकि प्रतिबंध क्षेत्र में आने वाली सूची, दूसरे क्षेत्रों न्यायालयीय मामले, संसद और विधान मंडलों के विदेशी अधिकार से जुड़ी चीजें, मंत्रिमंडल की बैठकों के दस्तावेज-जैसे अनेक मुद्दे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएं हर हाल मे गोपनीय रखी जाएगी। बात यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि सूचनाओं से वंचित रखने वाले अधिकारी के विरूद्ध अपील की प्रक्रिया भी थोड़ी जटिल है निचली से ऊपरी अदालत ने न्याय मांगने के लिए मुकदमों का सिलसिला कहीं ऐसा न कर दे कि व्यक्ति मुकदमों के बोझ से दब जाये और इन मामलों में ही हमारी अदालतें उलझ जाएं।
सबसे महत्वपूर्ण बात आज यह है कि हम 21वीं सदी में प्रवेश कर गये हैं और भूमण्डलीकरण में बाजार एवं पैसा महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन कर रहा है और ऐसे में निजी क्षेत्र का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता है। निजी कम्पनियों फर्मों और उद्यमों की भूमिका लगातार बढ़ रही है तब हर क्षेत्र का जबाव देह बनाना और उसमें पारदर्शिता लाने की अहमियत और ज्यादा हो जाती है। शायद यह काम सेबी के नियमों और तमाम कम्पनी कानूनों के जरिये संभव नहीं है। अगर संभव होता है तो आये दिन घोटाले और हवालाकांड न होते। इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि 'हमारे देश में एक छोटी सी जानकारी न देने की लापरवाही के चलते भोपाल गैस त्रासदी हुई थी। अगर एंडरसन की कम्पनी में भोपाल की बस्तियों में रहने वाले लोगों को उस जहरीली गैस से बचने के उपायों की समुचित जानकारी मुहैया करा दी होती तो हजारों लोग मौत के मुंह में जाने से बच गये होते। निजी क्षेत्र को इस विधेयक के दायरे से बाहर रखना भी सरकार की नीति एवं नियति को स्पष्ट नहीं करता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से सूचना के अधिकार का दावा-
वर्तमान में करीब तीस से अधिक देशों को सूचना का अधिकार प्राप्त है लेकिन सूचना का अधिकार देने वाला पहला देश स्वीडन है। स्वीडन के नागरिकों को यह अधिकार 1766 में मिल गया था। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसकी शुरूआत पहले प्रेस आयोग 1952 से हुई। सरकार ने इस आयोग से कहा कि वह प्रेस की आजादी सम्बन्धी जरूरी प्रावधानों पर सुझाव दे। आयोग ने कहा कि पारदर्शिता जरूरी है न कि सूचना का अधिकार। इसी दौरान सरकारी गोपनीयता कानून 1967 में संशोधत सम्बन्धी प्रस्ताव आये। प्रस्ताव खारिज कर दिया गया और कानून को सख्त बना दिया गया। सत्ता परिवर्तन के बाद जनता पार्टी ने सन् 1977 में अपने घोषणापत्र में सूचना का अधिकार प्रदान करने का वायदा किया वायदे पर अमल करते हुये कैबिनेट सचिव की अगुवाई में एक टास्क फोर्स गठित किया गया। परन्तु इसमें भी कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला। इसी समय दूसरा प्रेस आयोग 1978 में बना। इसकी कुछ सिफारिशें ही बन सकीं जो सरकार को मान्य नहीं हो सकी। सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1981- 82 और सन् 1986 ई. में कुछ फैसले सुनाए। इसके तहत आम आदमी को सूचना
का अधिकार दिए जाने की बात कही गई। सन् 1989 ई. में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सूचना का अधिकार कानून बनाने के लिए पहली बार सार्थक प्रयास करने की शुरूआत की। सक्षम अधिकारियों की एक टीम स्कैंडिनेवीयाई देशों में भेजी गयी ताकि वहां मौजूद सूचना के अधिकार सम्बन्धी कानूनों का गहन अध्ययन दिया जा सके। परन्तु इस यात्रा का भी कोई सन्तोषजनक हल नहीं निकला। सन् 1990 में न्यायाधीश सरकारिया की अध्यक्षता में 1990 में प्रेस परिषद ने कुछ सिफारिशें की परन्तु सरकार की उदासीनता से इसमें सफलता नहीं मिली। सन् 1996 ई. के लोकसभा के चुनाव में लगभग सभी पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्रों में कानून बनाने का वायदा किया और सन् 1997 ई. में दो विधेयक भी लाये गये। एक विधेयक एच.डी. शौरी का था और दूसरा न्यायाधीश सावंत के नेतृत्व में गठित टास्क फोर्स का, लेकिन दोनों विधेयकों पर गौर नहीं फरमाया गया। इसके बाद देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें आईं। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार भी बनी। कानून भी पास हुआ लेकिन यूपीए सरकार को उसमें खामियां दिखीं और उसने दोबारा विधेयक का मसौदा तैयार कराया। इस मसौदे का प्रतिफल संसद के दोनों सदनों में करीब 60 वर्ष बाद ही सही हमारी सरकार ने 11-12 मई 2005 को विधेयक पास कराया और 12 अक्टूबर 2005 से यह तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान सहित कई राज्यों में कानून के रूप में कार्य कर रहा है।
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और हमारी कोशिश होनी चाहिये कि हम सकारात्मक पहलू की ओर अधिक ध्यान दें। वर्तमान में हर तरफ तकनीक का जोर है। जिस समाज के पास जितनी ज्यादा सूचनायें होंगी, सरकार भी सामुदायिक जरूरतों को लेकर उतनी ही ज्यादा सकारात्मक और स्पष्ट नजरिया रखेगी। निसंदेह सरकारी सूचना राष्ट्रीय स्रोत होती है। कोई सरकार या सरकारी अधिकारी अपने लाभ के लिये सूचनाएं तैयार नहीं करते। सूचनाएं या जानकारियां अधिकारियों के अपने कर्तव्यों के निर्वहन के काम आती हैं। इसी के जरिये संस्थाएं जनता के हित में अपनी सेवाएं देती हैं। इस तरह सरकार और अधिकारीगण जनता की सूचना देने वाले न्यासी होते हैं। संसदीय लोकतंत्र में सूचनाएं सरकार के जरिए संसद और सांसदों के पास पहुंचती हैं। इसके बाद उन्हें जनता तक पहुंचाया जाता है। जनता अपने प्रतिनिधियों के जरिये सूचनाएं हासिल कर सकती है।  

सूचना के अधिकार की लड़ाई
जन्म मध्य राजस्थान- व्यावर शहर (चांग गेट)
राजनीतिक सभा, आंदोलन, हड़ताल, जलापूर्ति- 13 अक्टूबर 2005 सूचना का अधिकार अधिनियम- सर्वप्रथम मांग व्यावर वासियों ने की। जनप्रतिक्रिया- 'न्यूनतम मजदूरी की मांग' - अप्रैल 1996 में आंदोलन प्रारंभ
स्वशासन की दिशा में पहला कदम -
1996 में स्थानीय स्वशासी निकायों के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराने के लिए पंचायती राज अधिनियम में संशोधन किया जाए। खर्चे सम्बन्धी बिल और शासन के समस्त क्षेत्रों को सूचना का अधिकार देने हेतु अधिनियम की मांग।
क्रियान्वयन
* राजस्थान का कानून पहला कानून दंड का प्रावधान नहीं है।
* दोषी अधिकारियों के खिलाफ लोक सेवा आचरण विनियम के तहत कार्यवाही।
* सूचना के प्रयोक्ता को पारदर्शिता तथा जबावदेही का समान मानक अपनाने के लिए बाध्य करता है। आंदोलन तथा सूचना का अधिकार -महाराष्ट्र में अन्ना हजारे द्वारा राज्य स्तरीय सर्वोत्तम अधिनियम पारित हुआ। 'परिवर्तन' नामक संस्था 'मधु भादुड़ी' ने दिल्ली जलबोर्ड द्वारा संशोधन से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए आवेदन किया है।
सूचना का अधिकार अधिनियम- 2005 न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती -
1991 के बाद चलाए गए आंदोलन 'नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फोर्मेशन' का श्रेय - श्रीमती अरूणाराय।
भ्रष्टाचार निवारण हेतु गठित संस्था 'परिवर्तन' के अध्यक्ष 'अरविंद केजरीवाल' को रेमन मैगसेसे पुरस्कार, 2006 ।

1 comment:

nitindesai said...

जानने की जंग का पहला पडाव अर्थात सूचना का अधिकार यह लेख समयानुकूल है। हालांकि इस विषय पर कई जगहों पर कई लेख प्रसिद्ध हो चुके हैं किंतु अभी भी जन सामान्‍य को इसके बारे ठीक-ठीक जानकारी नहीं है। डॉ वीरेनद्र सिंह यादव ने इसे कुछ सरल करने का प्रयास किया है जो एक उत्‍तम प्रयास है। पत्रिका में इस प्रकार के मौजूदा विषयों पर लेख पत्रिका की सार्थकता को बढ़ाते हैं।

नितीन जे देसाई, पुणे