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Aug 20, 2009

तीन लघुकथाएँ

1. आधुनिकता
- रचना गौड़ 'भारती'
  गांव में भी अब पढ़ी-लिखी बहुओं का आगमन होने लगा है। गांव के लोग शहरी लोगों से अपने आपको ज्यादा एडवांस यानि आधुनिक समझतें हैं। ऐसे ही किशोरीलाल जी के घर का माहौल था। नौकरी पर आते जाते सारे परिवार के सदस्य उनके आगे पीछे रहते कोई उनके जूते लाता कोई उनका गिलास, कोई दौड़कर गरमागरम चाय की प्याली।
बेटे की शादी के बाद नौकरी करती बहू घर में आई। सास की आशाएं, ननदों की उम्मीदें और पति धर्म का कत्र्तव्य सभी कुछ जुड़ा था उसके साथ। लिहाजा दफ्तर जाने से पूर्व सारे घर का काम करके जाती और लौटकर थकीहारी जैसे ही घर में घुसती उसके कानों में आवाज पड़ती 'आ गई बहू जल्दी करो खाना बनाने का समय होने वाला है।' परम्पराओं के वृक्ष के पत्ते मात्र ही आधुनिकता की हवा हिला पाई है जड़ें तो जहां की तहां ही हैं। 
2. समाज सुधार
शहर का जाना माना रईस था, जो कभी कबाड़ी हुआ करता था। प्रॉपर्टी खरीद फरोख्त ने उसे शायद 
यह ऊंचाई दिखाई थी। शहर के हर कोने में बनी जाने कितनी बिल्डिंग का मालिक। समाज सेवक के रूप में पूजा जाने वाला बशेशर प्रसाद पैसा दानखाते में पानी की तरह बहाता। गरीब अविवाहित लड़कियों के धन देकर विवाह कराता। ताश की महफिलों में उठना बैठना उसकी दिनचर्या में शामिल था। महफिल से तभी उठता जब गड्डियों का भार उसके हाथों में होता। एक हाथ से पैसा लेता दूसरे हाथ से गरीब लड़कियों के परिवारों पर खर्च करता। उसका रवैया सामान्य जन की समझ से बाहर था। एक दिन श्यामा की मां को उसके बारे में पता चला और वो उससे मिलने उसके घर गईं। बशेशर प्रसाद उस समय अपने बैडरूम में था, उसे भी वहीं बुला लिया। श्यामा की मां की नजर दो नवयुवतियों पर पड़ी जो उसके बैड के पास बैठी थीं ये देख उसकी उदारता से वह गद्गद् हो उठीं कि गरीबों का कितना ख्याल रखता है बशेशर प्रसाद। अपने आराम के समय में भी दुखियों का दुख दर्द सुन रहा है। खैर! श्यामा की मां बोलीं-'नमस्ते साहब! मैं एक गरीब दुखिया हूं मेरी जवान व खूबसूरत बेटी हाथ पीले करने लायक हो गई है आप थोड़ी सहायता करते तो हम पर उपकार होता।
बशेशर-'उपकार कैसा? यह तो मेरा धर्म है कल से उसे यहां दो घण्टे के लिए भेज देना। मैं देखूंगा जो बन पड़ेगा करूंगा।
श्यामा की मां घर लौट आयी घर आकर खुशी खुशी श्यामा को अगले दिन बशेशर प्रसाद के घर खुद छोडऩे गई। बशेशर प्रसाद के पी.ए. ने उसका नाम नोटबुक में लिखा और उसे बशेशर के बेडरूम में ले गया। मां देखती रह गई कमरे का दरवाजा बन्द हो गया। बशेशर के समाज सुधार कार्य में एक और पुण्य कार्य जुड़ गया, तो क्या हुआ? शबरी भी तो झूठे बेर राम जी को खिलाती थी।
3. कुर्सी का नशा 
आज रमेश के दिल को गहरी ठेस लगी थी। ऑफिस के जरूरी कागजात की फाइल जिस सेक्शन में पास होनी थी वहां के ऑफिसर वीरेन्द्र राठौड़ ने उसे असंतुष्ट कर देने वाला जवाब दिया। रमेश खिन्न हो, अपने केबिन में बड़बड़ाने लगा-'पता नहीं लोगों को कुर्सी का इतना नशा होता है कि इंसान की परेशानी और जरूरत को भी नहीं समझते। उनके लिए तो साधारण सी बात है, मगर मेरी तो रातों की नींद पर बनी है। खैर! देर- सबेर रमेश का काम हो गया और कुछ समयान्तराल पश्चात् प्रमोशन के बाद वह भी सीनियर ऑफिसर की गिनती में आने लगा।
अचानक फोन बजा-'हैलो! रमेश जी, पहचाना मुझे, आपका पुराना पड़ोसी अंकुर जैन बोल रहा हूं। यार! मेरा काम जल्दी करवा दो, फाइल आपके पास अटकी पड़ी है।'
रमेश ने जवाब दिया-'अरे भई! यहां काम के लिए हर व्यक्ति पहचान लेकर आ जाता है। हमारी परेशानी तो कोई समझता नहीं, सारा दिन लोगों को डील करते-करते दिमाग पक जाता है। आप समय का इंतजार करें अभी मैं व्यस्त हूं। फोन कट गया। माहौल खामोश था। परिस्थितियां वहीं थीं बस कुर्सी के आगे-पीछे के लोग परिवर्तित हो गए थे और कुर्सी का नशा ज्यों का त्यों बरकरार था।

1 comment:

Devi Nangrani said...

आदरणीय रत्ना जी
नमस्ते. आपकी उदंती का नया अंक हासिल हुआ जिसके लिए आभारी हूँ, यहाँ परदेस में बैठकर देश के साथ जुड़े रहना एक सुखद आनुभूती है, रचना गौड़ जी के उत्तान सोच शब्दों के सहारे अपने आस पास के समाज का एक सही चिता खीच पाए हैं. बहुत ही बधाई के साथ
देवी नागरानी
आदरणीय रत्ना जी
नमस्ते. आपकी उदंती का नया अंक हासिल हुआ जिसके लिए आभारी हूँ, यहाँ परदेस में बैठकर देश के साथ जुड़े रहना एक सुखद आनुभूती है, रचना गौड़ जी के उत्तान सोच शब्दों के सहारे अपने आस पास के समाज का एक सही चिता खीच पाए हैं. बहुत ही बधाई के साथ
देवी नागरानी