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Jul 1, 2025

कविताः झुक आई बदरिया

 - श्रीमती रीता प्रसाद

घटा झुकी-झुकी जा रही है,

नभ भी नीचे आ रहा है,

बादलों के इस सफ़र में

स्वच्छ बूँदें आ रही हैं।

धरती की हरियाली पर यह,

कैसा करतब दिखा रही हैं ?

फसलें  झूमती जा रही हैं ,

जैसे नीरव इस धरा पर

देव कोई आ रहे हैं .

बच्चों की खुशियों को देखो ,

कैसे उछले जा रहे हैं ?

पोखरों में नहा रहे हैं ,

जैसे बादलों के सफ़र को,

दिल से ये अपना रहे हैं ।

मन- मयूर अब नाचता है,

मन- मयूरी झूमती है,

गुन-गुन,गुन-गुन , भौरों की गुन,

सुमनों पर मँडरा रहा है,

सात रंगों का सफ़र है,

सतरंगी ही डगर है,

सात रंगों के किरण पर,

पगला मन उतरा रहा है।

छम-छम, छम-छम, घुँघरू की छम,

दूर वीराने में देखो,

क्या मधुरता छा रही है ?

कोई अल्हड़ नाचती है,

वह सलोनी गा रही है.

क्या यह नन्ही- सी कली है

या धरा पर एक परी है,

मगन होकर नाचती है,

मगन होकर गा रही है,

मन को यह भरमा रही है ।

विकल मन यह चाहता है,

तोड़ सारे बंधनों को,

बादलों में जाएँ खो,

काश! एक ऐसा दिन हो ।


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