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Jul 1, 2025

व्यंग्यः युद्ध और बुद्ध के बीच ट्रेड युद्ध की तीसरी टाँग

  - बी. एल. आच्छा

   युद्ध के दौरान महान  चिन्तकों के चेहरे पिघले-पिघले नजर आते हैं। जैसे सूरज की तीखी झुलसाती किरणों से  रुआँसे ग्लेशियर पिघल रहे हैं। उनकी चतुर समाधि में भूकम्प आ गया है। कितनी कविताएँ। कितनी संवेदनाएँ। बच्चों के मासूम चेहरे। अपने दर्शन की विडियो- क्रांति। सभ्यता का विनाश । पूरा     मानवतावादी चैप्टर तैरने लगता है। तब वे बुद्ध की बात करते हैं। सो भी हँसते हुए बुद्ध की नहीं। उनकी अश्रु- लहरियाँ सीमा पार जाकर वैश्विक चीत्कार बन जाती हैं।

        पर जब हमला हो ही गया हो, तो चौबीस घंटे में उत्तर माँगते हैं। कब दोगे जवाब? क्या इतनी भी तैयारी नहीं है? इतनी बेचैनियाँ कि सत्ताएँ व्यंग्यों-तंजों में नागफनी चुभन का शिकार बना दी जाती हैं। सोच ही नहीं पाते कि युद्ध को कितने कोण चाहिए? कितने गलियारों से आती विरोधी हवाओं को भेदने का चक्रव्यूह रचना पड़‌ता है। कैसी मार ?  कितनी मार ? कौन- कौन पाले में  आएगा? कौन छुपी मदद पहुँचाएगा? युद्ध का अर्थशास्त्र कितना होगा? अजीब- सा है, जब युद्ध होता है, तो शांति चाहिए। हमले हो जाएँ, तो जवाब देने की मिसाइली तल्खी।

        पर दो की लड़ाई में तीसरा अपना काम साधता है। यह तीसरी टाँग कभी दृश्य, कभी अदृश्य होती है। पिटते-मरते से क्या लिया जा सकता है? भाइयों की तकलीफ में कोई फूटी कौड़ी निकालते भी देर लगाता है; मगर कूटनीति  में कंगाली-फटेहाली में भी मित्रता के थेगले दौड़े चले आते हैं। यही देश-विदेश की कूटनीति की अपनी नागफनियाँ हैं। सुहानी लगती हैं, जब कोई  किसी मुल्क के लिए युद्ध का दहेज ले आता है, फिर अपना कब्जा जमाते चले जाता है।

   मुझे ज्योतिष का ज्ञान  नहीं; पर डर और विश्वास गहरा है। युद्ध में लड़ते तो दो ही देश है, पर तीसरे घर में बैठा शनि अपना काम घर बैठे ही कर जाता है और सातवें का मंगल अपना पराक्रम दिखा जाता है। यों राहु और केतु के अदृश्य खेल एक देश को हथियारों के जखीरे दे जाते हैं। पिटता हुआ भी इन विदेशी जखीरों से खेलता रहता हैं।  तीसरे घर का स्वामी ग्रह हथियारों का व्यापार कर जाता है। युद्ध भूमि पर लड़ता हुआ देश पिट भी जाता है और हथियारों की देनदारी से गुलाम बनता चला  जाता है। जिसको मारना होता है, उसे- इसे वे खिलाते-पिलाते भी अच्छा हैं। ऐसे में लगातार दुहते जाना, युद्धों का बाजार - लाभ बन जाता है।

       युद्ध और बुद्ध के बीच ये  शांति के मुखौटे कभी नोबेल पुरस्कार की सुर्खी बनने लगते हैं; पर भीतर- भीतर में ट्रेड- कूटनीति का सूचकांक शूट+ अप करवा देते हैं। उनको जलते-मरते  पंचलकड़ी ही तो देनी है; पर वे उस दशा तक पहुँचने नहीं देते। दिलासे दे जाते हैं। सहायता को मानववादी मुखौटा लगाकर कुश्ती के  पह‌लवान को फिर खड़ा करते हैं। पिटेगा, तो फिर सहायता शर्तों की हथकड़ी में। ले जाओ कर्जा हम से, दुनिया के फंडों से। यह अदृश्य टाँग न युद्ध देखती है, न बुद्ध। यदि  जातक  कथाओं वाले बुद्ध  होते, तो बुद्धत्व  समझ पाते; पर वे  युद्ध  और बुद्ध  से ज्यादा  सांसारिक प्रबुद्ध हैं। व्यापार युद्ध में छलांग की तीसरी टाँग तो अंतरराष्ट्रीय महाजनी संस्कृति का नाग‌फनिया ऋण- जाल है। हरी- हरी काई जैसा कार्पेट‌नुमा सत्कार पर सदा- सदा की बिछलन।

     अब कोई बुलाए न बुलाए, पर कुछ निछावर करते रहो। मौके पर कूदमकूद लगा जाओ। मिसाइलें भी दाग दो। सौदा हो जाए, तो घोर विरोधी से भी गलबहियाँ कर लो। मिलती गलबहियाँ  हैं; पर नजर  जियो- पॉलिटिक्स पर। पराई धरती  से कैसे कूटनीति साधी जा सकती है। दोस्ती भी कोई निर्मल मन की रागिनी नहीं है। मौका पड़ने पर छल- छद्‌म से उसी देश को युद्ध- राग में झोंक देते हैं। अपनी हथेलियाँ पाक- साफ बताते  हथियारों की डील कर जाते हैं।

      इन दिनों आँखें उतना काम नहीं करतीं। जैसे डॉक्टर नाड़ी नहीं देखता, जाँचों से  नुस्खे लिखता है। ऐसे ही परमशक्तियों के पास सेटेलाइट आँखें हैं। उस देश की धरती में छुपे खजाने को देखने वाली आँख है। तकनीक के हाथ हैं। धरती में छुपे मूल्यवान खनिजों को अपना बनाकर पराई धरती से अपना व्यापार चलाने की व्यापार - फनियाँ  हैं।  खिलाने और खरीदने के व्यापार युद्ध हैं। युद्ध- राग भी, शांति का बुद्ध- राग  भी। पर इन रंगीन  रेपरों में छुपा व्यापार युद्ध का प्रबुद्ध- राग हैं। जैसे छह अँगुलियों वाला या पीठ पर जीभ वाला नन्दी अलग ही होता है, वैसे  ही  युद्ध और बुद्ध  के फलसफे में तीसरी टाँग वाले प्रबुद्ध कुछ अलग ही होते हैं।

सम्पर्कः फ्लैट नं-701 टॉवर-27, नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट, स्टीफेंशन रोड (बिन्नी मिल्स) पेरंबूर चेन्नई (तमिलनाडु)-600012, मो-9425083335


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