- संतोष खरे
जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है, वे अखण्ड कीर्तन और हवन कराने लगते हैं। पानी नहीं बरसता तो हवन, बाढ़ आती है तो हवन, अकाल पड़ता है तो हवन और जब कुछ नहीं होता तो हवन। उनका कहना है कि ईश्वर हवन होते देखकर प्रसन्न होता है।
वे भारतीय संस्कृति के घोर समर्थक हैं। शहर का बच्चा-बच्चा उन्हें महान धार्मिक और परोपकारी के रूप में जानता-मानता है। नगरवासियों से चंदा इकट्ठा कर उन्होंने एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और सुबह-शाम मंदिर में बैठकर वे तन्मय होकर पूजा-अर्चना करते देखे जाते हैं। उनकी मान्यता हंै कि इस असार-संसार में जो कुछ भी घटता है उसके पीछे भगवान होते हंै। शासकीय भूमि पर अतिक्रमण कर उनके द्वारा बनवाये गए मंदिर के संबंध में किसकी मजाल है जो इस पर आपत्ति कर सके। देवता की प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद शासन और सरकार के प्रतिनिधि स्वयं वहां आकर नतमस्तक होते हैं।
जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है, वे अखण्ड कीर्तन और हवन कराने लगते हैं। पानी नहीं बरसता तो हवन, बाढ़ आती है तो हवन, अकाल पड़ता है तो हवन और जब कुछ नहीं होता तो हवन। उनका कहना है कि ईश्वर हवन होते देखकर प्रसन्न होता है। विगत वर्षों में जब सुनामी का कहर आया तो उन्होंने हवन कर भगवान को प्रसन्न किया परिणामत: सुनामी का प्रभाव उनके देश में अधिक नहीं हुआ। एक बार जब भूकंप आया था तो उन्होंने विशाल हवन करवाया और उनका शहर इस प्रकोप से बच गया। इसी हवन के प्रताप से वे दिनो-दिन चिकने और मोटे होते जा रहे हैं। हवन करने में उन्हें विशेष कठिनाई नहीं होती। धर्म-परायण जनता से चंदा लिया, कालाबाजारी करने वाले व्यापारियों से दो चार क्ंिवटल शुद्ध घी, तिल, चावल आदि लिया अपने स्थायी पंडित को बुलवाया, माइक लगवाया और स्वाहा-स्वाहा की धुन पर हवन करवा लिया। अखबारों में सचित्र समाचार प्रकाशित हुए। जो सामग्री बची उसे प्रभु का प्रसाद मानकर घर ले गये। किसी ने ठीक ही कहा है - भगवान अपने भक्तों का बहुत ध्यान रखते हैं और पूजा-भक्ति का फल तत्काल देते हैं।
उनके कुछ आलोचकों का कहना है कि उन्होंने जीवन भर कोई काम नहीं किया। मंदिर, धर्म, हवन, भजन-कीर्तन, अखंड रामायण वगैरह करते रहे और अच्छी खासी संपत्ति के स्वामी बन चुके हैं। शहर में श्रद्धा के पात्र बने वह अलग। तीर्थयात्रा पर जाते है साथ में कई भक्त- भक्तिनों को साथ ले जाते हैं। ऐसे धार्मिक पुरुष से भला स्पेशल बस वाला किराया क्या मांगेगा? बस भक्तों से वे किराया वसूल करवा दे, यही बहुत है।
वे बेहद परोपकारी हैं। स्टेशन, बस स्टैण्ड, मंदिरों के सामने जो निर्धन असहाय लोग पड़े रहते हंै जिनके पास पहनने, ओढऩे के वस्त्र नहीं, समुचित ढंग से खाने को नहीं उन्हें वे वर्ष में एक-दो बार भंडारे में डालडा की पूड़ी, कुम्हड़ा की सब्जी और बूंदी की मिठाई जरूर खिलाते हैं और शहर में वाहवाही लूटते हंै। उन्हें विश्वास है कि साल में एक-दो बार जो खाना गरीब लोग खाते हैं वैसा उन्हें खाने को शायद ही कभी मिलता हो। आलोचक कहते है जितना खर्च वे एक हवन या त्यौहारों पर किये जाने वाले पूजन पर करते हैं उतनी राशि में शहर के भिखारियों को वर्ष भर के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था की जा सकती है। इसका सीधा उत्तर वे इस तरह देते हैं कि निर्धन या धनवान तो ईश्वर ने बनाये हैं। होनी को भला कौन टाल सकता है? ईश्वर की इच्छा यही होगी कि वे निर्धनता का जीवन व्यतीत करें, आधा पेट खाकर रहें, खुले आसमान के नीचे रहे, अस्वस्थ होने पर उन्हें दवा न मिले और वे अपने जीवन को यही नियति मानकर अचानक किसी भी दिन इस संसार से विदा लेकर चले जायें। ईश्वर के सामने किसकी चली हैं? .... उनके आलोचक उनके तर्को के सामने निरूत्तर हो जाते है क्योंकि वे जानते हैं कि वे अपना अगला तर्क यही प्रस्तुत करेंगे कि हर आदमी को उसके द्वारा पिछले जन्म में किये गए कर्मों का फल अगले जन्म में मिलता है। इन लोगों ने पिछले जन्म में पाप किये होंगे उसी का फल पा रहे हैं। इसी कारण वे कहते हंै कि अगला जन्म सुधारने के लिए इसी जन्म में पुण्य कार्य कर डालो। अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा मंदिर को दान करो, पंडितों को दक्षिणा दो, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन के लिए पर्याप्त समय दो और देखोगे कि किस तरह अगला जन्म सुधरता है।
एक बार उनके आलोचक ने उनसे पूछ लिया, 'यह जो बड़े मेलों या हज यात्रा वगैरह में भगदड़ मचने से लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है उसका क्या कारण है। भक्तगण तो भगवान की पूजा या हाजी तो खुदा की इबादत करने ही गये थे?' प्रश्न सुनकर वे हंस पड़े, बोले, 'तुम जैसे नास्तिक लोगों के कारण ही देश में अधर्म, भ्रष्टाचार, अनाचार, बलात्कार, महंगाई, बेकारी आदि बढ़ी है... अरे। सीधी सी बात है। भगवान ऐसे लोगों को जो उनके दरबार में आते हैं, कमाई का बड़ा हिस्सा आने- जाने पर खर्च करते हैं, परेशानी उठाते हैं उन्हें भगवान सीधे स्वर्ग भेजना क्यों पसंद नहीं करेंगे? तीर्थयात्रा या धार्मिक मेलों में जिन लोगों की मृत्यु होती है वे सीधे स्वर्ग सिधारते हैं... पर तुम्हारी समझ में यह बात नहीं आयेगी। भगवान के प्रति आस्था और विश्वास रखने वालों को किसी तरह की शंका या तर्क नहीं करना चाहिए...... जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी... कुछ दिन सत्संग करो, साधु-महात्माओं की सेवा करो तभी कुछ समझ सकोगे।
आलोचक उनसे पूछना चाहता था। भगवान सर्वव्यापी है, सब जानता है तो देश से गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार, अनाचार आदि समाप्त क्यों नहीं कर देता? पर उनके समर्थकों की भीड़ देखकर उसे पूछने का साहस नहीं हुआ।
वे रबड़ी-मलाई, फल, शहद लेते हुए आते है और माइक पर भक्तों को उपदेश देते हैं, 'जीवन सफल बनाना है तो भगवान की भक्ति करो, भारतीय संस्कृति का आदर करो। हवन, पूजन, अर्चना में समय लगाओ, इसी में जीवन की सार्थकता है अन्यथा यह शरीर नश्वर है। एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। अपने गुरु का आदर करो। शंका मत करो। ईश्वर तुम्हारा भला करेगा। नैतिक शुद्धता, भ्रष्ट बुद्धि वालों को सद्बुद्धि, ईश्वर के प्रति प्रेम, देश की संस्कृति की रक्षा और सफल जीवन के लिए हवन हेतु धन का सहयोग दो। इसी में तुम्हारे पापों का अंत होगा। ईश्वर तुम पर प्रसन्न होगा।'
इस तरह के प्रवचन, उपदेश और भक्ति की शिक्षा में कई बार सुन चुका हूं। दूरदर्शन पर किसी खास चैनलों पर रोज ही सुनता हूं। सोचता हूं कि परिश्रम किये गये, बिना कोई सामाजिक दायित्व पूरा किये, वैज्ञानिक चिंतन को ताक पर रखकर, बिना तर्क किये यदि ईश्वर प्रसन्न होता है तो मैं भी ऐसी धर्म की दुकान खोलने के लिए तैयार हूं।
संपर्क - 7, राजेन्द्र नगर, सतना (म.प्र.) 485002, मो. 9303310644
व्यंग्यकार के बारे में ...
मध्यप्रदेश को व्यंग्य की सबसे उर्वर धरती मानते है। यहां परसाई और शरद जोशी जैसे दिग्गज व्यंग्यकार हुए। अजात शत्रु है और आज ज्ञान चतुर्वेदी छाए हुए है। इसी मध्यप्रदेश के सतना शहर में सुदर्शन व्यक्तित्व के छत्री व्यंग्यकार संतोष खरे हैं- पेशे से वकील है। व्यंग्यकार भी समाज का वकील होता है और गिरे थके जनों की पैरवी करता है। इन जनहितकारी दलीलों को संतोष खरे भी अपनी रचनाओं में लगातार पेश कर रहे है। उनके अनेक संग्रह प्रकाशित है जिनमें एक संग्रह का नाम भी है 'एक वकील की डायरी।' वे निरंतर और निस्पृह भाव से व्यंग्य कर्म में जुटे हुए हंै। उन्हें मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद का 'शरद जोशी पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ है।
जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है, वे अखण्ड कीर्तन और हवन कराने लगते हैं। पानी नहीं बरसता तो हवन, बाढ़ आती है तो हवन, अकाल पड़ता है तो हवन और जब कुछ नहीं होता तो हवन। उनका कहना है कि ईश्वर हवन होते देखकर प्रसन्न होता है।
वे भारतीय संस्कृति के घोर समर्थक हैं। शहर का बच्चा-बच्चा उन्हें महान धार्मिक और परोपकारी के रूप में जानता-मानता है। नगरवासियों से चंदा इकट्ठा कर उन्होंने एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और सुबह-शाम मंदिर में बैठकर वे तन्मय होकर पूजा-अर्चना करते देखे जाते हैं। उनकी मान्यता हंै कि इस असार-संसार में जो कुछ भी घटता है उसके पीछे भगवान होते हंै। शासकीय भूमि पर अतिक्रमण कर उनके द्वारा बनवाये गए मंदिर के संबंध में किसकी मजाल है जो इस पर आपत्ति कर सके। देवता की प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद शासन और सरकार के प्रतिनिधि स्वयं वहां आकर नतमस्तक होते हैं।
जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है, वे अखण्ड कीर्तन और हवन कराने लगते हैं। पानी नहीं बरसता तो हवन, बाढ़ आती है तो हवन, अकाल पड़ता है तो हवन और जब कुछ नहीं होता तो हवन। उनका कहना है कि ईश्वर हवन होते देखकर प्रसन्न होता है। विगत वर्षों में जब सुनामी का कहर आया तो उन्होंने हवन कर भगवान को प्रसन्न किया परिणामत: सुनामी का प्रभाव उनके देश में अधिक नहीं हुआ। एक बार जब भूकंप आया था तो उन्होंने विशाल हवन करवाया और उनका शहर इस प्रकोप से बच गया। इसी हवन के प्रताप से वे दिनो-दिन चिकने और मोटे होते जा रहे हैं। हवन करने में उन्हें विशेष कठिनाई नहीं होती। धर्म-परायण जनता से चंदा लिया, कालाबाजारी करने वाले व्यापारियों से दो चार क्ंिवटल शुद्ध घी, तिल, चावल आदि लिया अपने स्थायी पंडित को बुलवाया, माइक लगवाया और स्वाहा-स्वाहा की धुन पर हवन करवा लिया। अखबारों में सचित्र समाचार प्रकाशित हुए। जो सामग्री बची उसे प्रभु का प्रसाद मानकर घर ले गये। किसी ने ठीक ही कहा है - भगवान अपने भक्तों का बहुत ध्यान रखते हैं और पूजा-भक्ति का फल तत्काल देते हैं।
उनके कुछ आलोचकों का कहना है कि उन्होंने जीवन भर कोई काम नहीं किया। मंदिर, धर्म, हवन, भजन-कीर्तन, अखंड रामायण वगैरह करते रहे और अच्छी खासी संपत्ति के स्वामी बन चुके हैं। शहर में श्रद्धा के पात्र बने वह अलग। तीर्थयात्रा पर जाते है साथ में कई भक्त- भक्तिनों को साथ ले जाते हैं। ऐसे धार्मिक पुरुष से भला स्पेशल बस वाला किराया क्या मांगेगा? बस भक्तों से वे किराया वसूल करवा दे, यही बहुत है।
वे बेहद परोपकारी हैं। स्टेशन, बस स्टैण्ड, मंदिरों के सामने जो निर्धन असहाय लोग पड़े रहते हंै जिनके पास पहनने, ओढऩे के वस्त्र नहीं, समुचित ढंग से खाने को नहीं उन्हें वे वर्ष में एक-दो बार भंडारे में डालडा की पूड़ी, कुम्हड़ा की सब्जी और बूंदी की मिठाई जरूर खिलाते हैं और शहर में वाहवाही लूटते हंै। उन्हें विश्वास है कि साल में एक-दो बार जो खाना गरीब लोग खाते हैं वैसा उन्हें खाने को शायद ही कभी मिलता हो। आलोचक कहते है जितना खर्च वे एक हवन या त्यौहारों पर किये जाने वाले पूजन पर करते हैं उतनी राशि में शहर के भिखारियों को वर्ष भर के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था की जा सकती है। इसका सीधा उत्तर वे इस तरह देते हैं कि निर्धन या धनवान तो ईश्वर ने बनाये हैं। होनी को भला कौन टाल सकता है? ईश्वर की इच्छा यही होगी कि वे निर्धनता का जीवन व्यतीत करें, आधा पेट खाकर रहें, खुले आसमान के नीचे रहे, अस्वस्थ होने पर उन्हें दवा न मिले और वे अपने जीवन को यही नियति मानकर अचानक किसी भी दिन इस संसार से विदा लेकर चले जायें। ईश्वर के सामने किसकी चली हैं? .... उनके आलोचक उनके तर्को के सामने निरूत्तर हो जाते है क्योंकि वे जानते हैं कि वे अपना अगला तर्क यही प्रस्तुत करेंगे कि हर आदमी को उसके द्वारा पिछले जन्म में किये गए कर्मों का फल अगले जन्म में मिलता है। इन लोगों ने पिछले जन्म में पाप किये होंगे उसी का फल पा रहे हैं। इसी कारण वे कहते हंै कि अगला जन्म सुधारने के लिए इसी जन्म में पुण्य कार्य कर डालो। अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा मंदिर को दान करो, पंडितों को दक्षिणा दो, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन के लिए पर्याप्त समय दो और देखोगे कि किस तरह अगला जन्म सुधरता है।
एक बार उनके आलोचक ने उनसे पूछ लिया, 'यह जो बड़े मेलों या हज यात्रा वगैरह में भगदड़ मचने से लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है उसका क्या कारण है। भक्तगण तो भगवान की पूजा या हाजी तो खुदा की इबादत करने ही गये थे?' प्रश्न सुनकर वे हंस पड़े, बोले, 'तुम जैसे नास्तिक लोगों के कारण ही देश में अधर्म, भ्रष्टाचार, अनाचार, बलात्कार, महंगाई, बेकारी आदि बढ़ी है... अरे। सीधी सी बात है। भगवान ऐसे लोगों को जो उनके दरबार में आते हैं, कमाई का बड़ा हिस्सा आने- जाने पर खर्च करते हैं, परेशानी उठाते हैं उन्हें भगवान सीधे स्वर्ग भेजना क्यों पसंद नहीं करेंगे? तीर्थयात्रा या धार्मिक मेलों में जिन लोगों की मृत्यु होती है वे सीधे स्वर्ग सिधारते हैं... पर तुम्हारी समझ में यह बात नहीं आयेगी। भगवान के प्रति आस्था और विश्वास रखने वालों को किसी तरह की शंका या तर्क नहीं करना चाहिए...... जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी... कुछ दिन सत्संग करो, साधु-महात्माओं की सेवा करो तभी कुछ समझ सकोगे।
आलोचक उनसे पूछना चाहता था। भगवान सर्वव्यापी है, सब जानता है तो देश से गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार, अनाचार आदि समाप्त क्यों नहीं कर देता? पर उनके समर्थकों की भीड़ देखकर उसे पूछने का साहस नहीं हुआ।
वे रबड़ी-मलाई, फल, शहद लेते हुए आते है और माइक पर भक्तों को उपदेश देते हैं, 'जीवन सफल बनाना है तो भगवान की भक्ति करो, भारतीय संस्कृति का आदर करो। हवन, पूजन, अर्चना में समय लगाओ, इसी में जीवन की सार्थकता है अन्यथा यह शरीर नश्वर है। एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। अपने गुरु का आदर करो। शंका मत करो। ईश्वर तुम्हारा भला करेगा। नैतिक शुद्धता, भ्रष्ट बुद्धि वालों को सद्बुद्धि, ईश्वर के प्रति प्रेम, देश की संस्कृति की रक्षा और सफल जीवन के लिए हवन हेतु धन का सहयोग दो। इसी में तुम्हारे पापों का अंत होगा। ईश्वर तुम पर प्रसन्न होगा।'
इस तरह के प्रवचन, उपदेश और भक्ति की शिक्षा में कई बार सुन चुका हूं। दूरदर्शन पर किसी खास चैनलों पर रोज ही सुनता हूं। सोचता हूं कि परिश्रम किये गये, बिना कोई सामाजिक दायित्व पूरा किये, वैज्ञानिक चिंतन को ताक पर रखकर, बिना तर्क किये यदि ईश्वर प्रसन्न होता है तो मैं भी ऐसी धर्म की दुकान खोलने के लिए तैयार हूं।
संपर्क - 7, राजेन्द्र नगर, सतना (म.प्र.) 485002, मो. 9303310644
व्यंग्यकार के बारे में ...
मध्यप्रदेश को व्यंग्य की सबसे उर्वर धरती मानते है। यहां परसाई और शरद जोशी जैसे दिग्गज व्यंग्यकार हुए। अजात शत्रु है और आज ज्ञान चतुर्वेदी छाए हुए है। इसी मध्यप्रदेश के सतना शहर में सुदर्शन व्यक्तित्व के छत्री व्यंग्यकार संतोष खरे हैं- पेशे से वकील है। व्यंग्यकार भी समाज का वकील होता है और गिरे थके जनों की पैरवी करता है। इन जनहितकारी दलीलों को संतोष खरे भी अपनी रचनाओं में लगातार पेश कर रहे है। उनके अनेक संग्रह प्रकाशित है जिनमें एक संग्रह का नाम भी है 'एक वकील की डायरी।' वे निरंतर और निस्पृह भाव से व्यंग्य कर्म में जुटे हुए हंै। उन्हें मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद का 'शरद जोशी पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ है।
यहां प्रस्तुत है संतोष खरे की व्यंग्य रचना 'संस्कृति की सुनामी लहर'। इसमें बाजारवाद की शिकार होती और अवमूल्यन की ओर जाती हुई हमारी सांस्कृतिक विरासत पर चिंता व्यक्त की गई है। इस असार संसार में नित नए अवतार लेते भगवानों तथा रोज- रोज खुलती उनकी दुकानों ने जो शोर और कचरा फैलाया है वह कैसे अपनी तरह का एक सांस्कृतिक प्रदूषण बन बैठा है। इसी तथ्य को लेखक ने यहां उद्घाटित किया है। - विनोद साव
1 comment:
संसार में धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा अधर्म होते हैं। आस्थावान जनता को गुमराह करके धर्म के तथाकथित ठेकेदार अपना मतलब सीधा करते हैं। इनका राजनीति से भी सीधा वास्ता है। राजनेता इनके प्रभाव का अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं और बदले में इनके कृत्यों का संरक्षण करते हैं। यह लेख सही तस्वीर पेश करता है।
Post a Comment