- डा. सुरेंद्र गाडेकर
क्या परमाणु त्रासदियों से हम कभी कोई सबक सीखेंगे? इसका सीधा-सा जवाब है- कभी नहीं। हमारे देश के कर्णधार, भले ही वे किसी भी राजनीतिक विचारधारा के हों, यह मान चुके हैं कि देश की लाखों मेगावाट बिजली की जरूरत केवल और केवल परमाणु ऊर्जा से ही पूरी की जा सकती है।
लेकिन मैं आगे बढऩे से पहले ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा जो हमारी मानसिकता को दर्शाता है। अंग्रेजी समाचार-पत्र 'द हिंदू' में गत 15 मार्च को एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इसका शीर्षक था 'भारतीय परमाणु संयंत्र सुरक्षित - वैज्ञानिक'। इसमें लिखा था, 'इस बात पर जोर देते हुए कि सुरक्षा के मौजूदा मापदंडों के अनुरूप भारतीय परमाणु संयंत्रों को लगातार उन्नत किया जाता रहा है, वैज्ञानिकों ने कहा कि जापान की घटनाओं की वजह से देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को किसी भी तरह धीमा नहीं किया जा सकता। भारतीय संस्थान पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि जापान के हालात के मद्देनजर वे देश के तमाम परमाणु संयंत्रों में सुरक्षा पहलुओं की समीक्षा करेंगे।' आखिर इस बात के क्या मायने हैं कि 'सुरक्षा के सभी पहलुओं की समीक्षा करेंगे', जबकि इसके ठीक पहले वे साफ- साफ कहते हैं कि 'जापान की घटनाओं के कारण देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को धीमा नहीं किया जा सकता।' यहां 'सुरक्षा पहलुओं की समीक्षा' से उनका मतलब जापान का दौरा करने से होगा जो वे शायद करेंगे भी।
इसी रिपोर्ट में न्यूक्लियर पॉवर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल) के प्रमुख एस.के. जैन ने कहा कि जापान की घटनाओं को उन्होंने बेहद गंभीरता से लिया है और देश के परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की जांच उनकी मुख्य चिंता होगी। उन्होंने कहा कि अन्य देशों की नियामक परिपाटी के विपरीत भारत में नियामक बोर्ड एक बार में पांच साल तक की मंजूरी देता है। इसके बाद फिर से लाइसेंस हासिल करने के लिए सुरक्षा पहलुओं का आकलन अनिवार्य है। उन्होंने बताया कि उन तीन परमाणु संयंत्रों में सुरक्षा की जांच चल रही है जिन्होंने हाल ही में पांच साल पूरे किए हैं। उन्होंने यह भी दावा किया कि देश के तमाम परमाणु संयंत्र सुरक्षा के उच्च मानदंडों के आधार पर संचालित किए जाते हैं। श्री जैन ने बताया कि तारापुर परमाणु संयंत्र, जिसकी दो इकाइयां 40 साल पुरानी हो चुकी हैं, में वर्ष 2004 में उन्होंने सुरक्षा की व्यापक जांच- पड़ताल की और ऐसी व्यवस्था बनाई गई कि इसकी सुरक्षा प्रणाली को लगातार उन्नत कर मौजूदा स्तर पर लाना अनिवार्य हो। उन्होंनें दावा किया कि संयंत्र परमाणु सुरक्षा के मानदंडों का पालन कर रहा है।
मुझे इस बात का पक्का भरोसा है कि ये महान वैज्ञानिक इस बात में सक्षम होंगे कि 2004 में पांच साल जोडऩे पर क्या आएगा। मेरे अनुसार तो वह 2009 होना चाहिए। लेकिन मैं कोई बड़ा वैज्ञानिक नहीं हूं, मैं तो दूरस्थ गांव में रहने वाला एक छोटा-सा किसान भर हूं। वर्ष 2009 में ही लाइसेंस का नवीनीकरण करवाना अनिवार्य था। लेकिन यह साफ प्रतीत होता है कि इस साल ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि अगर होता तो श्री जैन निश्चित रूप से इसका उल्लेख करते। आपको उनके बयान में 2004 से पहले के लाइसेंस नवीनीकरण करने का भी हवाला नहीं मिलता। ये लाइसेंस 1999, फिर उससे पहले 1994 से लेकर हर बीते पांच साल में एक बार जारी होने चाहिए थे। रिएक्टर 1969 में शुरू हुआ था, यानी 1974 में पहली बार लाइसेंस का नवीनीकरण होना था।
तो सवाल यह है कि आखिर उत्तरी मुंबई से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित इस चार दशक पुराने फुकुशिमा किस्म के जर्जर रिएक्टर की अनिवार्य सुरक्षा जांच- पड़ताल वर्ष 2009 में क्यों नहीं की गई, जबकि उस साल वास्तव में होनी चाहिए थी। आखिर यह अनिवार्य नियम कितना बाध्यकारी है? आखिर परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड (एईआरबी) ने इन रिएक्टरों के संचालन पर रोक क्यों नहीं लगाई और बगैर लाइसेंस के जहरीले पदार्थों का उत्पादन करने वाले इस खतरनाक संयंत्र के संचालकों को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? यही नहीं, पत्रकारों ने इस बारे में वैज्ञानिको से पूछने का साहस क्यों नहीं किया?
क्या वे भी 2004 में पांच जोडऩे में असमर्थ थे? मैं यहां जिस मानसिकता की बात कर रहा हूं, वह है 'वैज्ञानिक सोच' के अभाव की, जिम्मेदार लोगों से सवाल पूछने के रवैये की कमी की। जब तक हममें इस भावना का विकास होगा तब तक हमारे यहां फुकुशिमा, हिरोशिमा, चेरनोबिल और चेलिबिंक्स जैसी घटनाएं हो चुकी होगीं। शायद हमने अतीत की गलतियों से सबक न सीखने की कसम खा रखी है।
तो मैं अपना वही सवाल दोहराना-चाहूंगा कि यदि हम खुले दिमाग से सोचते तो जापान की परमाणु त्रासदी से क्या सबक सीख सकते थे? दरअसल, हमें बस एक ही सबक सीखने की जरूरत है- हम परमाणु मुक्त, कार्बन मुक्त दुनिया कैसे बनाएं? मेरे मित्र डा.अजुन माखिजानी ने इसी शीर्षक से एक किताब लिखी है। इसमें उन्होंने ऐसी योजना पेश की है जिसमें बताया गया है कि अमरीका जैसे देश के लिए वर्ष 2050 तक किस तरह परमाणु मुक्त, कार्बन मुक्त होना संभव है। 100 से भी ज्यादा परमाणु रिएक्टरों वाले अमरीका में, जहां की जीवनशैली में ऊर्जा की खपत बहुत अधिक है, में यदि यह संभव है तो भारत में क्यों नहीं? यहां तो कुल बिजली में परमाणु ऊर्जा का हिस्सा महज 2.5 फीसदी है, जबकि कुल ऊर्जा में बिजली की हिस्सेदारी 11 फीसदी। ऐसे में परमाणु ऊर्जा से बाहर निकलना राहत की बात होगी। 'कार्बन बी एंड न्यूक्लिअर-बी' नामक यह किताब वेबसाइट से नि:शुल्क डाउनलोड की जा सकती है। लेकिन साथ ही कई ऐसे और भी सबक हैं, जिन्हें सीखने की जरूरत है। इसमें सबसे अहम यह है कि हमें आधिकारिक घोषणाओं के बारे में संदेह की प्रवृत्ति का विकास करना होगा। क्लाउड कॉकबर्न की उक्ति थी- 'तब तक किसी बात पर भरोसा न करो जब- तक कि आधिकारिक रूप से उसका खंडन नहीं हो जाता।' इस उक्ति को अपने दिमाग में गहराई तक उतारने की जरूरत है। यह बात लाचार जापानी अधिकारियों पर जितनी सटीक बैठती है, उतनी ही अनभिज्ञ भारतीय अधिकारियों पर भी। 26 मार्च 2011 को न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट कहती है, 'सुनामी शब्द जापान सरकार की गाइडलाइंस में 2006 तक नहीं आया था', यानी जापानी तटों पर परमाणु संयंत्रों के कदम पडऩे के दशकों बाद तक भी नहीं। वर्ष 2002 में एक सलाहकार समूह की गैर बाध्यकारी अनुशंसाओं के बाद संयंत्र की कंपनी 'टोकियो इलेक्ट्रिक पॉवर कंपनी' ने फुकुशिमा दायची पर सुनामी लहरों की संभावित ऊंचाई का आकलन 17.7 और 18.7फीट के बीच किया था। लेकिन इसके बावजूद कंपनी ने केवल इतना किया कि उसने तट के निकट इलेक्ट्रिक पंप को और आठ इंच ऊंचाई पर स्थापित कर दिया, संभवत: ज्वार की लहरों से बचाने के लिए।
कुछ और भी सबक सीखने होंगे
1. एक ही स्थान पर एक साथ कई रिएक्टरों को स्थापित करने की परंपरा विश्वव्यापी रही है। यह आर्थिक रूप से लाभदायक होता है, लेकिन रिएक्टरों की सुरक्षा और आम लोगों के स्वास्थ्य के मद्देनजर इसके कई गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। जैसा कि हमने फुकुशिमा में देखा, एक रिएक्टर में कोई समस्या आने पर उसके आसपास रहने वाले लोगों को दिक्कत आ सकती है। लेकिन अगर रिएक्टर के आजू- बाजू में अन्य रिएक्टर हों तो उनमें कार्य करने वाले और बचाव दल के लोगों को विकिरण के रिसाव से समस्या हो सकती है।
2. भूकंप संभावित क्षेत्रों में रिएक्टरों की उपस्थिति को यह कहकर वाजिब ठहराया जाता रहा है कि यदि जापान में ऐसा हो सकता है, तो भारत में क्यों नहीं। लेकिन अब लगता है कि इस सोच पर विचार करने का समय आ गया है। जापान में भी यह सफल नहीं हो पाया। भारत के बारे में तो जितना कहा जाए, उतना कम है। वर्ष 2004 में सुनामी आने से पहले परमाणु ऊर्जा विभाग ने अपने प्रकाशन में जोर देकर कहा था कि भारत में आज तक सुनामी नहीं आई है और इसलिए रिएक्टरों की सुरक्षा की योजना में इस सुनामी वाले पहलू को छोड़ दिया गया। लेकिन याद करें, उस सुनामी को जब कलपक्कम स्थित मद्रास परमाणु ऊर्जा स्टेशन भी पानी से घिर गया था। नरारा और जैतपुरा में प्रस्तावित रिएक्टरों के सम्बंध में इस पहलू का ध्यान रखा जाना चाहिए, क्योंकि वे उस जोन- 4 में स्थित हैं, जहां छोटे- बड़े भूकंप आते रहते हैं।
3. जापान की परमाणु त्रासदी का अनुभव खासकर तारापुर स्थित रिएक्टरों के सम्बंध में काफी महत्त्वपूर्ण है। यहां के रिएक्टर फुकुशिमा स्थित रिएक्टरों की तरह ही हैं। अंतर इतना ही है कि वे हमारे यहां के रिएक्टरों से दो साल पुराने हैं। यह एक भयावह तथ्य है कि परमाणु ऊर्जा के प्रबंधकों को पुराने रिएक्टर सदैव से आकर्षित करते आए हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि परमाणु ऊर्जा में सबसे ज्यादा खर्च रिएक्टरों के निर्माण पर ही आता है। इस खर्च की पूर्ति कई बार सार्वजनिक खजानों से भी की जाती है। लेकिन एक बार किसी भी तरह रिएक्टर स्थापित हो जाए तो उसके बाद बिजली उत्पादन की लागत अन्य विद्युत उत्पादन तकनीकों की बनिस्बत कम ही आती है। यही वजह है कि नए परमाणु संयंत्र स्थापित करने की बजाय पुराने संयंत्रों को ही चलायमान रखने की कोशिश की जाती है। पूरी दुनिया में यही हो रहा है। जो इकाइयां 25 से 30 साल के लिए डिजाइन की गई थीं, उन्हें 40 साल बाद भी चलाया जा रहा है। उन्हें 60 साल तक की सेवावृद्धि दे दी जाती है। पुराने रिएक्टरों के कभी भी अचानक ध्वस्त हाने की आशंका बढ़ जाती है लेकिन उन्हें कार्यमुक्त करने के बारे में कोई नहीं सोचता, क्योंकि परमाणु प्रतिष्ठानों के प्रमुखों को केवल अपने कार्यकाल की ही चिंता रहती है।
4. भारत में परमाणु इमरजेंसी में लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने की योजनाएं एक तरह से मजाक के समान हैं। उन्हें परमाणु ऊर्जा से सम्बंधित अफसरों और प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने तैयार किया है। इनमें न तो उन लोगों की राय जानी गई जिनका बचाव इस योजना का मुख्य मकसद है और न ही उनसे कुछ पूछा गया जिन्हें इस तरह की योजनाओं से प्रभावित होना है।
परमाणु ऊर्जा से सम्बंधित अफसर भी इन्हें लेकर गंभीर नहीं हैं, क्योंकि उन्हें लगता ही नहीं है कि कभी इस तरह की परमाणु इमरजेंसी की नौबत आएगी भी। उन्होंने इन्हें इसलिए तैयार किया है क्योंकि उन्हें ऐसा करने को कहा गया। ऐसा करने को इसलिए कहा गया क्योंकि अंतराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी द्वारा यह अनिवार्य किया गया है। मूर्खतापूर्ण योजनाएं इसी का परिणाम होती हैं। उदाहरण के लिए व्यारा जिला मुख्यालय को लिया जा सकता है। इमरजेंसी की स्थिति में यहां के लोगों को बारडाली के एक स्कूल में ठहराया जाएगा, जो वहां के छात्रों के लिए ही छोटा पड़ता है। अधिकारियों का शायद यह मानना है कि किसी परमाणु ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाले रेडियोधर्मी विकिरण से भी घातक परमाणु भय होता है। यह सबक उन्होंने चेरनोबिल की त्रासदी से सीखा था। यदि फुकुशिमा की त्रासदी उन्हें सही सबक सिखा सके तो बेहतर रहेगा। हालांकि हमारे कर्णधार ऐसा कोई सबक सीखेंगे, इसमें संदेह है।(स्रोत फीचर्स)
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