जंगलों को आग से बचाओ
- देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
ग्रीष्मकाल शुरू होते ही गावों में ही नहीं प्रदेश के जंगलों में आग लगने का दौर शुरू हो जाता है। आग से मचाई जाने वाली तबाही एवं विनाशलीला से हजारों परिवार बेघर होकर खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारने को विवश हो जाते हैं। सरकार प्रतिवर्ष अग्निपीडि़तों में करोड़ों रुपए का मुआवजा तो वितरित कर देती है। परंतु प्रदेश की सरकारें आग रोकने या उसके त्वरित नियंत्रण की व्यवस्था करने में आजादी के बाद से अब तक असफल रहीं हैं। जंगलों में लगने वाली आग अकूत वन संपदा को स्वाहा कर देती है और इसकी विनाशलीला से वन्यजीवन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। आग प्रतिवर्ष अलगातार लगते आग से जंगल में विलुप्तप्राय तमाम वनस्पतियों एवं वन्यजीवों की प्रजातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। अनियंत्रित आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करके ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही है।

यह बात अपनी जगह ठीक है कि जंगल में कई कारणों से आग लगती है या फिर लगााई जाती है। इसमें समयबद्ध एवं नियंत्रित आग विकास है किंतु अनियंत्रित आग विनाशकारी होती है। दुधवा के जंगल में ग्रासलैंड मैनेजमेंट एवं वन प्रबंधन के लिए नियंत्रित आग लगाई जाती है। इसके अतिरिक्त शरारती तत्वों अथवा ग्रामीणजनों द्वारा सुलगती बीड़ी को जंगल में छोड़ देना आग का कारण बन जाता है। वन्यजीवों के शिकारी भी पत्तों से आवाज उत्पन्न न हो इसके लिए जंगल में आग लगा देते हैं। दुधवा नेशनल पार्क के वनक्षेत्र की सीमाएं नेपाल से सटी हैं और इसके चारों तरफ मानव बस्तियां आबाद हैं। इसके चलते जंगल में अनियंत्रित आग लगने की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका भी प्रमुख कारण है कि नई घास उगाने के लिए मवेशी पालक ग्रामीण जंगल में आग लगा देते हैं जो अपूर्ण व्यवस्थाओं के कारण अकसर विकाराल रूप धारण करके जंगल की बहुमूल्य वन संपदा को भारी नुकसान पहुंचाने के साथ ही वनस्पतियों एवं जमीन पर रेंगने वाले जीव- जंतुओं को भी जलाकर भस्म बना देती है। दावाग्नि से बीरान जंगल में वनस्पति आहारी वन पशुओं के लिए भी चारा का अकाल पड़ जाता है। विगत के वर्षों में कम वर्षा होने के बाद भी बाढ़ की विभीषिका के कहर का असर वनक्षेत्र पर व्यापक रूप से पड़ा है। बाढ़ के पानी के साथ आई मिट्टी- बालू इत्यादि की हुई सिल्टिंग से जंगल के अन्दर तालाबों, झीलों, भगहरों की गहराई कम हो गई है। जिनमें पूरे साल भरा रहने वाला पानी वन्य जीव- जंतुओं को जीवन प्रदान करता था वे प्राकृतिक जलस्रोत अभी से ही सूखने लगे हैं। इसके कारण जंगल में नमी की मात्रा कम होने से कार्बनिक पदार्थ और अधिक ज्वलनशील हो गए हैं। जिसमें आग की एक चिंगारी सैकड़ों एकड़ वनक्षेत्र को जलाकर राख कर देती है।
जंगल में आग लगने का सिलसिला शुरू हो चुका है। इससे हरे- भरे जंगल की जमीन पर दूर तक राख ही राख दिखाई देती है। लगातार लगते आग से जंगल में विलुप्तप्राय तमाम वनस्पतियों एवं वन्यजीवों की प्रजातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। अनियंत्रित आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करके ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही है और इससे जंगल की जैव- विविधता के अस्तित्व पर भी खतरा खड़ा हो गया है।
दुधवा टाइगर रिजर्व क्षेत्र के 886 वर्ग किलोमीटर के जंगल में आग नियंत्रण के लिए फायर लाइन बनाई जाती हैं। आग लगने की जानकारी तुरंत मिल सके इसलिए जंगल के संवेदनशील स्थानों पर वाच टावर बनाए गए हैं जो जर्जर होकर चढऩे लायक नहीं रहे हैं। आग लगने पर नियंत्रण के लिए वहां पर जाने के लिए रेंज कार्यालय या फारेस्ट चौकी पर वाहन उपलब्ध नहीं हैं। इस दशा में कर्मचारी जब तक सायकिलों से या दौड़कर मौके पर पहुंचते हैं तब तक आग अपना तांडव दिखाकर जंगल की हरियाली को राख में बदल चुकी होती है।
जंगल के समीपवर्ती आबाद गांवों के ग्रामीण भी अब आग को बुझाने में वन कर्मचारियों को सहयोग नहीं देते हैं। इसका कारण है सन् 1977 में क्षेत्र का जंगल दुधवा नेशनल पार्क के कानून के तहत संरक्षित किया जाने लगा है। इन कानूनों के अंतर्गत आसपास के सैकड़ों गावोंको पूर्व में वन उपज आदि की मिलने वाली सभी सुविधाओं पर प्रतिबंंध लग गया है। जबकि इससे पहले आग लगते ही ग्रामीणजन एकजुट होकर उसे बुझाने के लिए दौड़ पड़ते थे। इस बेगार के बदले में उनको जंगल से घर बनाने के लिए खागर, घास- फूस, नरकुल, रंगोई, बांस, बल्ली आदि के साथ खाना पकाने के लिए गिरी पड़ी अनुपयोगी सूखी जलौनी लकड़ी एवं अन्य कई प्रकार की वन उपज का लाभ मिला करता था। बदलते समय के साथ अधिकारियों का अपने अधीनस्थों के प्रति व्यवहार में बदलाव आया तो कर्मचारियों में भी परिवर्तन आ गया है। कर्मचारी वन उपज की सुविधा देने के नाम पर ग्रामीणों का आर्थिक शोषण करने के साथ ही उनका उत्पीडऩ करने से भी परहेज नहीं करते हैं। जिससे अब ग्रामीणों का जंगल के प्रति पूर्व में रहने वाला भावात्मक लगाव खत्म हो गया है। इससे अब वह जंगल को आग से बचाने में न सहयोग करते हैं और न ही वन्यजीवों के संरक्षण में कोई प्रयास करते हैं। आग लगने की सूचना पर दुधवा नेशनल पार्क के अधिकारियों का मौके पर न पहुंचना और अधीनस्थों को निर्देश देकर कर्तव्य से इतिश्री कर लेना यह उनकी कार्यप्रणाली बन गई है। इससे हतोत्साहित कर्मचारियों में खासा असंतोष है और वे भी अब आग को बुझाने में कोई खास रूचि नहीं लेते। जिससे जंगल को आग से बचाने का कार्य और भी दुष्कर हो गया है। दुधवा टाइगर रिजर्व के जंगल में लगने वाली अनियंत्रित आग से वन्यजीवन समेत वन संपदा को भारी क्षति पहुंच रही है। पार्क के उच्चाधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि आग लगने की बढ़ रही घटनाओं का एक प्रमुख कारण स्थानीय लोगों के बीच संवाद का न होना है। वह यह भी मानते हैं कि वित्तीय संकट, कर्मचारियों की कमी, निगरानी तंत्र में आधुनिक तकनीकियों का अभाव, अग्नि नियंत्रण की पुरानी पद्धति आदि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से जंगल में फैलने वाली अनियंत्रित आग को रोकने की दिशा में प्रभावशाली प्रयास करने में कठिनाईयां आ रहीं हैं। (www.dudhwalive.com से )
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अमर उजाला में कई वर्षों तक पत्रकारिता। पलिया से ब्लैक टाइगर नाम का अखबार निकालते हैं।
उनका पता है- हिन्दुस्तान ऑफिस, पलिया कला, जिला- खीरी मो. 09415166103
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Labels: देवेन्द्र प्रकाश मिश्र, पर्यावरण
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