उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Apr 10, 2011

सच तो यह है





-
कृष्णकांत निलोसे
कभी- कभी
ऐसा भी होता है
जब जरूरी बात भी
रोज रोज के ढर्रे में पड़
बेजरूरी हो जाती है
जैसे, रोज जीना
और मरना रोज
खासकर धुंध में खोये समय में
तलाशना अपना होना
किसी मुकम्मिल जगह
सुरक्षा के लिए।

सच तो यह है
अब कुछ नहीं बचा है
संशयातीत
यहाँ तक कि
भाषा भी संशय के बीच
करते हुए पैरवी समय की
पूर्ण विराम में
थम जाती है।

आखिर इस अहेतु समय में
अपने लिए न सही
पांखी के लिए तो मांग सकते हैं
एक साफ सुथरा भरोसमंद आकाश
उड़ान के लिए ।

एक बूँद झरते दु:ख की
आकाश तले
गूँज बन उभरती है चीख
मुक्ति...! मुक्ति...! मुक्ति...!
आखिर...! यह मुक्ति किस से किस की?

समय के गाल पर...
ठहरी एक बूँद झरते दु:ख की
क्या कभी मुक्त हो पाई है।

अपने दु:ख से
तो दु:ख की अनंतता से
कैसे मुक्त हो पायेगा
उसका यह आकाश?

आत्मा उद्विग्न है
अपने में लौटने के लिए
जहाँ न तो दु:ख है
और... न ही सुख
सिर्फहै थमा हुआ मौन
'काल' की अनंतता का।

लेखक के बारे में -
जन्म 25 अगस्त 1931, तदाली, चन्द्रपुर, महाराष्ट्र। शिक्षा- एम. ए. राजनीतिशास्त्र। उप प्रादेशिक संचालक (भारत सरकार) के पद से 1992 में सेवानिवृत्त। दो कविता संग्रह- फिर उम्मीद से है पृथ्वी 2. खामोशी में झरता है वियोग ( प्रेम कवितायें)। देश की सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
संपर्क- 63 आनंद नगर, चितावद रोड, इंदौर- म. प्र.
मो. 09893551001, ०९७१३९०७१६६
Email- kknilosey@gmail.com

No comments: