परतें
सुदर्शन रत्नाकर
उधमपुर से कार ठीक
करवा कर जब हम चले थे तब छः बज चुके थे। सोचा था साढ़े सात -आठ बजे तक हम हलद्वानी पहुँच जाएँगे रात वहीं किसी होटल में ठहर कर सुबह अल्मोड़ा के लिए निकल
जाएँगे।
कार ख़राब हो जाने के कारण पूरा दिन ही निकल गया। बच्चे पहले ही परेशान हो रहे थे, दूसरी परेशानी तब पैदा हुई जब उधमपुर से लगभग दस किलोमीटर के बाद कार फिर ख़राब ओ गई। साल भर से गाड़ी में कोई खराबी नहीं आई। दिल्ली से चलने से पहले चैक भी करवा
ली थी, फिर
पता नहीं क्या हो गया था। अब समस्या
यह थी कि क्या किया जाए। उधमपुर कार से वापिस जाना भी सम्भव नहीं और अगला स्टेशन भी दूर था।
मुझे ध्यान आया
यहीं कहीं पास ही सोमेश की चचेरी बहन रहती है, जब भी किसी पारिवारिक समारोह में मिलती हैं, अपने गाँव आने का निमन्त्रण देती हैं।
उन्हें मालूम है हम हर वर्ष छुट्टियों में इधर घूमने आते हैं। बच्चे गाँव के नाम से यूँ ही चिढ़ते हैं, फिर सोमेश ने भी कभी ज़ोर देकर जाने
के लिए नहीं कहा,सो कभी जाना हुआ ही नहीं।
हालाँकि उनकी यह बात हमेशा चुभती है
कि हम शहर जैसा सुख तो नहीं दे पाएँगे, पर जैसा भी हो , कमी महसूस नहीं होने देंगे।
मैंने सोमेश को
सुझाव दिया क्यों न विमल बहनजी के यहाँ चले जाएँ, सड़क से मुश्किल से दो किलोमीटर अंदर गाँव है, रात रह कर सुबह-सुबह अल्मोड़ा के लिए चल पड़ेंगे। सोमेश को तो एतराज़ था ही नहीं और
बच्चों ने पहले आनाकानी
की लेकिन इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता
नहीं था ,इसलिए वे भी मान गए।
धक्का लगाते जैसे -तैसे कार को स्टार्ट कर सोमेश गाँव तक ले आए। शुक्र था सड़क पक्की थी, नहीं तो और कठिनाई
होती। अभी धुँधलका छाया ही था, छोटे से गाँव में बिजली के बल्ब तारों की तरह टिमटिमाते लग रहे थे।
गाँव में विमल
बहनजी का घर ढ़ूँढने में हमें कोई कठिनाई नहीं हुई। वहाँ पहुँचते ही जिस व्यक्ति
से पूछा था, वह स्वयं हमें उनके घर तक छोड़ने आया। जब तक हम कार से उतरे वह अंदर बहनजी को
बुलाने चला गया। बहनजी भागती हुई बाहर आईं और मुझे गले से लगा लिया। बच्चों को
प्यार किया। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि हम उनके पास आए हैं। खुला आँगन पार
कर वह हमें कमरे में ले आईं। कमरा साफ़ सुथरा था। मैंने एक ही नज़र पूरा निरीक्षण
कर लिया। दरवाज़े के सामने दीवान रखा था। दीवान के सामने एक ओर आराम कुर्सियाँ, दूसरी ओर मूढ़े
जिन पर साफ़ -सुथरे कवर थे।
उनके घर उथल-पुथल शुरु हो गई। बच्चे भाग कर ठंडा ला रहे थे, बेटी खाने के लिए ला रही थी। आध घंटे
में ही उन्होंने चाय-पानी पिला दिया। सारे दिन की थकान उतर गई। जीजाजी अभी
फ़ार्म से नहीं आए थे, बड़ा बेटा उन्हें लेने चला गया, थोड़ी देर में वह भी आ गए।
सुकृत और अर्जित पहले तो चुपचाप बैठे थे लेकिन बहनजी का छोटा बेटा नवीन उन्हें
बाहर ले गया। तोड़ी देर बाद जब वे घूम कर आए तो बहुत ख़ुश थे। गाँव चाहे छोटा था
पर शहर से अधिक दूर न होने के कारण सुविधा की सभी वस्तुएँ उपलब्ध थीं। तराई में
होने के कारण मौसम वैसे भी इतना गर्म नहीं होता, रात्रि के समय तो
ठंडी हवा और शांत वातावरण मन को शांति दे रहा था।
खाना खाने बैठे तो देखा इतने कम समय में उन्होंने कितना कुछ बना लिया था।
बहनजी तो अधिक समय हमारे पास बैठी रहीं। उनकी बेटी सुनीता ने ही खाना बनाया था।
उड़द की दाल, भिंडी, आलू की सब्ज़ी,
चावल,
सलाद। खाना
स्वादिष्ट था। बाद में कस्टर्ड। सुकृत और अर्चित बड़े इत्मिनान से खाना खा रहे थे।
मुझे संतोष था कि उन्हें गाँव में आना बुरा नहीं लग रहा था जैसा कि उनका विचार था
कि पता नहीं गाँव कैसा होगा, घर और लोग कैसे होंगे।
बातचीत के बीच बताना पड़ा कि कार में ख़राबी आ गई है,
सुबह ठीक करवानी
होगी। सुकृत अर्चित, नवीन, प्रवीण आपस में
बातचीत करते रहे। रात बारह बजे तक सब बतियाते रहे उसके बाद सब सोने चले गए। हमारी
चारपाइयाँ उन्होंने छत पर लगा दी थीं। खुला आसमान, मंद मंद बहती
शीतल हवा, टिमटिमाते तारों की छाँव में सोमेश तो उसी समय सो गए,
बच्चे भी थोड़ी
देर बाद सो गए लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं बहनजी के स्नेह,
उनकी आवभगत के
बारे सोच रही थी।
तभी मुझे दस बारह बरस पहले का वह दिन याद आ गया। उन दिनों सोमेश ने अपनी नौकरी
बदली थी। हमें दिल्ली से कोलकाता जाना पड़ा, तब सुकृत और अर्चित बहुत छोटे थे। अपने
घर से इतनी दूर, नया शहर, नए लोग,
लेकिन जाना तो था
ही। आवास कम्पनी की ओर से ही था, इसलिए कोई कठिनाई नहीं हुई। रहने की
व्यवस्था और बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाने के बाद मैं थोड़ी निश्चिंत हुई।
मेरे मामा की लड़की भी कोलकाता में रहती है। डायरी में उसका पता मिल गया।
मामाजी विदेश में रहते हैं। अब तो वहीं स्थापित हो गए हैं लेकिन वह अपनी लड़की
श्रद्धा का विवाह भारत में ही करना चाहते थे। दो मास के लिए वे भारत आकर मेरे
मम्मी-पापा के पास रहे।
श्रद्धा के लिए उन्होंने कई जगह बातचीत की, अंत में नरेन्द्र के साथ उसका रिश्ता तय
हो गया। नरेन्द्र के माता-पिता दिल्ली में
ही हैं। विवाह में शामिल होने मैं लखनऊ से दिल्ली आई थी।
विवाह के पश्चात मामा जी अमेरिका लौट गए। श्रद्धा कोलकाता आ गई। फिर कभी भेंट
नहीं हुई। सोचा अब यहाँ आ गए हैं तो क्यों न मिल लिया जाए। इतना बड़ा शहर है। सुख-दुख में ज़रूरत पड़ सकती है। श्रद्धा भी
ख़ुश हो जाएगी।
फ़ोन नम्बर मेरे पास नहीं था। सोमेश से सलाह करके मैंने उसे एक सप्ताह पूर्व
पत्र लिख दिया कि हम अगले शनिवार सुबह उससे मिलने आ रहे हैं। वो दिन मैंने इसी
ख़ुशी में बिता दिए कि कितने दिन के बाद किसी अपने से मिलेंगे। पत्र में लिखे
समयानुसार हम लोग सुबह ग्यारह बजे ही श्रद्धा के घर पहुँच गए। घंटी बजाने पर नौकर
ने दरवाज़ा खोला। हमें ड्राइंग रूम में बिठा कर वह चला गया। उस सजे सजाए ड्राइंगरूम
में बैठे हुए हमें दस मिनट हो गए थे लेकिन अभी श्रद्धा नहीं आई थी।
नरेन्द्र आए, उनके साथ औपचारिक बातचीत होती रही।
थोड़ी देर बाद श्रद्धा भी आ गई। आते ही बोली,” सॉरी दीदी,
आने में देर हो
गई, मैं ज़रा तैयार हो रही थी।” मैंने देखा वह ज़रा तो नहीं पूरी तरह तैयार होकर आई थी।” कोई बात नहीं” मैंने कह तो दिया लेकिन मेरे मन में कुछ चुभ गया। श्रद्धा
और नरेन्द्र जिस प्रकार तैयार हुए थे और चेहरे पर जो बेचैनी थी उससे लगता था,
उन्हें कहीं जाना
था।
चाय पीते हुए श्रद्धा ने बता ही दिया, “दीदी आपका पत्र जब हमें मिला था,
उससे पहले ही
हमारा कार्यक्रम बना हुआ था। नरेन्द्र कई दिन से जाने के लिए कह रहे थे। इनके एक
मित्र के परिवार के साथ पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम है। मैं आपको पत्र नहीं लिख
सकी। आपका फ़ोन भी नहीं मिला।”
“ कोई बात नहीं”, मैंने पहले की तरह कहा; लेकिन जो कुछ चुभा था,
उसकी पीड़ा
असहनीय हो रही थी। बिस्किट और नमकीन के साथ चाय पीकर हम औपचारिकता वश दस मिनट और
बैठे। उन्हें अपने घर आने का निमन्त्रण देकर सोमेश यह कह कर उठ बैठे कि हमें भी
शॉपिंग के लिए जाना है। फिर किसी दिन आएँगे।
उनके घर से बाहर आते ही लगा मैं ज़मीन में गड़ी जा रही हूँ। सोमेश क्या सोच
रहें होंगे। कहाँ तो हम सारा दिन रहने का प्रोग्राम बना कर आए थे। पत्र में संकेत
दे दिया था। श्रद्धा हमें भी तो पिकनिक पर जाने के लिए कह सकती थी। हम न जाते,
यह और बात है
लेकिन सोमेश ने रास्ते में या घर आकर उस विषय पर बात ही नहीं की।
हम दो वर्ष तक वहाँ रहे, न ही श्रद्धा आई हमारे पास,
न ही हम गए।
दिल्ली आने पर मैं इस बात को भूल -सी गई थी; लेकिन आज बहन जी के स्नेह ने इतना
अभिभूत कर दिया कि बरसों बाद की परत उखड़ कर कड़वे अनुभव का स्मरण करा गई।
सोचती रही रिश्तों में तो कोई अंतर नहीं। फिर यह दिलों में दूरियाँ कैसे आ
गईं। हम कहाँ ग़लत हो गए हैं। नगरों की खोखली, पाश्चात्य सभ्यता
की परतों के नीचे दब गए हैं। रिश्तों का सम्बन्ध केवल ख़ून से ही नहीं,
एहसास से भी होता
है। सोचते -सोचते पता नहीं
कब आँख लग गई। सुबह उठी तो देर हो चुकी थी। वातावरण में रात का थोड़ा गीलापन अभी
भी शेष था। सोमेश और बच्चे उठ घर नीचे जा चुके थे।
नीचे जाकर पता चलाजी का बड़ा बेटा प्रवीण मोटरसाइकिल पर शहर जाकर मैकेनिक ले
आया था, सोमेश उससे कार ठीक करवा रहे थे। सुकृत और अर्चित जीजाजी के
साथ फ़ार्म पर गए हुए थे और बहन जी नाश्ता तैयार कर रही थी। मुझे अपना देर से उठना
अटपटा लगा।
आठ बजे तक फ़ार्म से सभी लौट आए। नाश्ते में बहन जी ने आलू के पराँठे बनाए थे,
साथ में दही और
मक्खन। शुद्ध दही और मक्खन खाना बच्चों के लिए नया अनुभव था। मुझे देख कर ख़ुशी हो
रही थी कि उन्हें यह सब कुछ अच्छा लग रहा था। मेरे मना करने पर भी बहन जी ने साथ
के लिए भी खाना बना दिया था। शक्करपारे और मट्ठियाँ भी बना दीं। साथ में खाने- पीने का और सामान भी रखवा दिया जबकि कार
में जगह ही नहीं थी, पर वह मानी ही
नहीं। बच्चों के हाथ में और थमा दिए।
बहन जी की बहुत इच्छा थी कि हम एक दिन और रुक जाएँ। बच्चों का मन भी लग गया था
लेकिन सोमेश नहीं रुक सकते थे। हमें विदा करते समय उन की आँखें नम हो गईं। मेरा
अपना मन भी भर आया। वह बार बार फिर आने का आग्रह करती रहीं।
जब तक हमारी कार आँखों से ओझल नहीं हुईं वे सब दूर तक हमें देखते रहे। मेरे मन:स्थल पर एक और परत जुड़ गई थी लेकिन वह
परत कड़वी नहीं मीठे अनुभव की थी।
सम्पर्कः ई-29,
नेहरू ग्राउण्ड,
फरीदाबाद 121001, मो.न. 9811251135
4 comments:
शहरीकरण के चलते रिश्तो के मांयनो व गहराई को सटीक तरीके से दर्शाती यह कहानी काफी रोचक भी है। शुभकामनाओ सहित।
वाह सुदर्शन जी ! आपकी लेखनी की तो मैं हमेशा से क़ायल हूँ... बहुत ही सुंदर कहानी
a nice story
कहानी ने दिल के तार छेड़ दिए और सरगम के बोल सुनाई देने लगे
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