बद्रीनाथ धाम के लिए हम सब बदायूँ से सुबह सात बजे निजी वाहन से निकले। हल्द्वानी तक तो पहाड़ी और मैदानी रास्तों में अधिक अंतर पता न चला; परन्तु उसके बाद हम जैसे -जैसे ऊपर चढ़ते गए, पहाड़ काटकर बनाए गए गोल घुमावदार रास्ते रोमांच मिश्रित भय की अनुभूति कराने लगे। जब गाड़ी ओवरटेक होती. तो नीचे गहरी खाई देखकर जान ही सूख जाती। पहाड़ों से बहते हुए झरने दुग्ध की धवल धार- से प्रतीत हो रहे थे। मन में सहसा प्रश्न उठा , अपने अंतस्तल से निर्मल, शीतल, शुद्ध जलधार प्रवाहित करने वाले पहाड़ों को कठोर क्यों कहते हैं? दूर तक फैले ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर बहते हुए झरनों की पतली धार आँसुओं की सूखी रेखा-सी प्रतीत हो रहे थे। शायद अपनी ऊँचाई के कारण एकाकी पहाड़ स्वयं को ही अपना सुख-दुःख सुनाकर हँसते-रोते रहते हैं। जागेश्वर जी पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो गया। ड्राइवर ने रात्रि में आगे चलने से मना किया तो हम लोग रात्रि विश्राम के लिए वहीं रुक गए। प्रातः हमने अपनी यात्रा पुनः शुरू की। दोपहर होते-होते हम उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित बद्रीनाथ धाम पहुँच गए। अलकनंदा का जल हल्का हरा रंग लिये हुए इतनी तीव्र गर्जना और वेग के साथ बह रहा था। मानो पहाड़ रूपी पिता के घर से विदा लेते समय नदी के मन में भावनाओं का रेला उमड़ पड़ा हो। जल इतना निर्मल कि उसमें पड़े हुए पत्थर भी साफ नजर आ रहे थे। यही पहाड़ी नदियाँ खिंचती चली जाती हैं सागर की ओर, अंततः लंबी यात्रा के बाद सागर में मिलकर ही विश्राम लेती हैं। जीवन भी एक लंबी यात्रा है। एक दिन उसे विश्राम लेना ही है। फर्क सिर्फ इतना है, नदी को यात्रा की दूरी ज्ञात है , जीवन की यात्रा कब कहाँ समाप्त होगी यह अज्ञात है।
जीवन गति
पथिक को अज्ञात
कहाँ है इति।
1 comment:
सुंदर हाइबन...हार्दिक बधाई।
कृष्णा वर्मा
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