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Jun 1, 2024

व्यंग्यः ठंडा ठंडा कूल कूल

  - विनोद साव

गरमियों के दिन आदमी पवन दीवान हो जाए, तो अच्छा है। इससे गरमी कम लगेगी। ऊपर का हिस्सा खुली किताब की तरह और नीचे थोड़ी सी जिल्द। दीवानजी को विशेष सुविधा इसलिए भी थी कि उनके नाम में पवन लगा था। पवन की प्रकृति शीतल रहने की है- ठंडा ठंडा कूल कूल। उन्हें सत्ता और उसकी शक्ति की ज्यादा गरमी कभी नहीं रही।  वे जहाँ  भी रहे, ठंडा- ठंडा, कूल- कूल रहे। कभी कोई अपने गरम मिजाज में उनसे टकरा भी जाता, तो वे अपने अट्टहास का एक ऐसा झोंका छोड़ते थे कि किसी भी आकांक्षी की गरमी एक झटके में दूर हो जाती थी।  जब पहली बार वे मंत्री बने थे, तो उन्हें जेल विभाग मयस्सर हुआ था। तब परिहास करने वाले बताते थे कि वे कह उठते थे “मैं का काम ला करॅव गा, मोला तो जेल मंत्री बना दे हें ... ले अब तू ही मन बताओ रे भई... कोन कोन ला जेल मा डार दौं।’

धमतरी के त्रिभुवन पाण्डे बड़े लिक्खाड़ लेखक हैं - व्यंग्य, उपन्यास, गीत, समीक्षा पर लगातार कुछ न कुछ काम करते रहते हैं।  छत्तीसगढ़ में जितने लेखक कवि हुए हैं, उनकी कृतियों पर सबसे ज्यादा समीक्षा करने का काम त्रिभुवन पाण्डे ने किया है। इस अंचल का कोई भी कवि अपने संग्रह छपवाते ही उसकी सबसे पहली प्रति त्रिभुवन जी को भेंट कर देता है, जैसे कोई उपवासधारी भक्त अपने फलाहार का पहला भाग देवता को अर्पित करता है। इन कृतियों को पाकर त्रिभुवन जी पुलक उठते हैं- “अरे आ गई है यार फिर तीन चार किताबें रिव्यू के लिए”... और वे आशुतोष शिव के समान हो जाते हैं। अपने इन भक्तों पर शीघ्र कृपा कर उनकी कृति पर समीक्षा लिखकर उसे छपवा भी देते हैं। वे दूसरे आलोचकों की तरह नखरैल नहीं है। लेखन की गरमी चाहे जितनी भी हो, त्रिभुवन पाण्डे बर्दाश्त कर लेते हैं: पर गरमी के दिनों की इस झुलसाती गरमियों में पूछे जाने पर “... और आजकल क्या लिख रहे हैं पाण्डेजी?’ वे कंझा उठते हैं कि “यार विनोद ! मत पूछो यार.. मत पूछो...  इस चौवालीस-पैंतालीस के टेंपरेचर में आदमी क्या लिखेगा यार !” जाहिर है कि ऐसी गरमी में जब त्रिभुवन जैसे लिक्खाड़ लेखक हाथ डाल देते हैं, तब दूसरों की क्या बिसात ! हाँ  .. ये अलग बात है कि ए.सी. में बैठकर वातानुकूलित कविताएँ लिखने की विशेषज्ञता कुछ ज्ञानिजन के पास है पर ए.सी. विहीन ऐसे सिद्ध पाठक कहाँ,  जो झुलसती गरमी में कविता का रसास्वादन कर सकें। 

गरमियों के दिन राजनांदगांव के कामरेड लेखक रमेश याज्ञिक दिन में आने वालों का खयाल रखते थे और उन्हें काँच के सुन्दर प्याले में फ्रूट जेली खिलाते थे। घर में बनाई गई फ्रूट जेली, जिसमें कलिंदर, पपीता, अंगूर, केले का मसला हुआ रसदार रूप होता था, जो फ्रिज से निकलकर ग्रहण करने वाले अतिथि के दिमाग को ठंडा- ठंडा, कूल- कूल कर देता था। हाँ... अगर वह दिन बुधवार या शनिवार का हो तो आगंतुक अतिथि के लिए शाम को उसी प्याले में ओल्डमंक की रम होती थी। विन्डो कूलर की मादक बयार, आइस क्यूब में भिगी हुई रम। उस पर पैग बनाने के लिए एक ऐसी मशीन, जो सोडा मिश्रित पानी को इतनी ही मात्रा में गिलास में छोड़ती थी कि उससे एक झागदार पैग तैयार हो जाए। रमेश याज्ञिक इस अंचल के सबसे आधुनिक और उन्मुक्त खयालों वाले लेखक थे। वे कहते थे कि ज्योतिष शास्त्र के हिसाब से मुझे सबसे ज्यादा परेशान बुध और शनि ने किया है इसलिए हर बुध और शनि को मैं भी परेशान करता हूँ - चलिए इसी बात पर हो जाए... चीयर्स.’

ऐसी गरमियों में भी हमारे उत्सवप्रेमी कार्यकर्ता कार्यक्रम आयोजित करने से पीछे नहीं हटते हैं... ; लेकिन मुख्य अतिथियों को इनमें आना- जाना भारी पड़ जाता है। तब ऐसे किसी कार्यक्रम संयोजक को श्यामलाल चतुर्वेदी अपनी बिलसपुरिया बोली में राग लमाते हुए कह उठते हैं “गरमी तौ अड़बड़ पडत हाबय सियान। मार कनपटिया हा तपथें अउ तैं हाँ .. हमला हलाकान करेबर मुख्य अतिथि बनाए हाबस ... मोला नई जानिही कहात होबे फेर मैं पक्का अंताज डरेहौं तोर नीयत ला।” चतुर्वेदीजी छत्तीसगढ़ के विद्वानों में बड़े ठंडे दिमाग के हैं, जिनको सुनकर पालेश्वर जी गरम हो उठते थे।

गरमी का असली पता तो उन सड़कों पर चलता है, जहाँ  कोलतार की धारा फूट उठती है और हाइवे पर बहने लग जाती है। फोरलेन बनने से पहले एक बार रायपुर जाते समय जंजगिरी के पास एक अजीब दृश्य देखने में आया। एक कुत्ते की पूंछ नेशनल-हाइवे में चिपक गई थी। संभवतः वह सड़क को पार करता रहा होगा और किसी वाहन के चक्के में उसकी  पूँछ और पिछली एक टाँग आ गई होगी। वाहन के भारी भरकम चक्के के दबाव में उतना हिस्सा गरमी में बह रही कोलतार में चिपक गया था और पूरा कुत्ता साबुत बचा हुआ था। वह ताकत लगा लगाकर अपने उस चिपके हुए हिस्से को सड़क से मुक्त कराने की कोशिश कर रहा था, पर वह असफल सिद्ध हो रहा था। कहा नहीं जा सकता कि बाद में उसका क्या हुआ। तब पता चला कि गरमी में कुत्ते की मौत या कुत्ते जैसी मौत इस तरह से भी आती है। यह एक भीषण वाकया है ... ठंडा- ठंडा कूल -कूल नहीं। 

 सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग 491001 (छत्तीसगढ़)

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