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Jun 1, 2024

कहानीः विश्वास की जीत

  - टि्वंकल तोमर सिंह

सवेरे से ही धनिया मेरे पास बैठी थी। अपने नियत समय से एक घण्टे पहले ही आ गई थी। उसे पूरा भरोसा था, आज दीवाली के दिन उसका लड़का उसे फ़ोन जरूर करेगा।

जैसे ही मेरे मोबाइल की घण्टी बजती, धनिया को लगता था कि उसी के लड़के का फोन है। जैसे ही मैं मोबाइल उठाकर- “हेलो” बोलती, उसकी आँखों में एक चमक आ जाती। वह बड़े उत्साह से मेरी कुर्सी के और पास आ जाती थी; पर मेरे किसी मित्र या रिश्तेदार की तरफ से फोन पर मिलने वाली बधाई का अनुमान लगाकर वह थोड़ा निराश हो जाती थी, फिर वापस अपनी जगह पर निढाल होकर बैठ जाती थी।

‘‘और कितनी देर बैठी रहोगी धनिया? उसने कहा था सुबह 9 बजे फ़ोन करेगा। अब तो ग्यारह बज चुके हैं। अपने घर जाओ। दीवाली की तैयारी करो।” मैं कुर्सी से उठी, रंग उठाए और रंगोली बनाना शुरू कर दी।

धनिया की आँखों में उदासी के हल्के से भाव आए। फिर जल्दी ही वह सँभलते हुए  बोली- लाइए, ये वाला रंग हम भर देते हैं। जब तक रंगोली पूरी नहीं होती, हम आपके साथ रंग भरते रहेंगे।’’

धनिया की आस टूट जाए, मैं भी नहीं चाहती थी। मैंने मुस्कुराकर उसे अनुमति दे दी।

धनिया का लड़का दिल्ली चला गया था। फिर कभी वापस आया ही नहीं। यहाँ धनिया अपनी मड़ैया में अकेले रहती थी। उसके दो बच्चे और थे। एक लड़की जिसकी शादी हो चुकी थी। और एक छोटा लड़का, जो कई बरस हुए पीलिया, निमोनिया झेल न पाया, और भगवान को प्यारा हो गया। अब बड़ा लड़का ही उसके जीने की अंतिम आस थी।

धनिया की आँखों में मोतियाबिंद हो गया था। उसे अपनी आँख का ऑपरेशन कराना था। उसे लगता था, उसका बड़ा लड़का ख़ूब पैसे कमाकर वापस आएगा और उसका इलाज कराएगा। एक साल पहले जब धनिया का लड़का दिल्ली जा रहा था, तो उससे चिपटकर ख़ूब रोया था। उसने वादा किया था कि जल्दी ही वो धनिया की आँखों का ऑपरेशन करवा देगा।

धनिया के रिश्ते के एक चाचा किसी काम से दिल्ली गए थे। वहाँ उनकी मुलाकात उसके लड़के से हुई। उन्होंने धनिया का पूरा हाल उसे बताया कि किस प्रकार उसकी माँ उसकी याद में बावली हो गई है। आँखों से दिखना बहुत कम हो गया है और समझाया कि थोड़ा ख़ैर-ख़बर लेते रहा करो। लड़के ने व्यस्तता का बहाना बताया। चाचा ने उसका मोबाइल नंबर ले लिया। वापस आकर उसने धनिया को बताया कि उसके लड़के ने दिल्ली में किसी फैक्टरी में गार्ड की नौकरी ली है और वहीं उसने शादी करके अपनी गृहस्थी बसा ली है।

धनिया को तनिक भी विश्वास न हुआ। उसे लगा कि ये चाचा उसके परिवार से जलता है; इसीलिए अनाप-शनाप बक रहा है। उसे लगता था उसका लड़का उससे पूछे बिना कपड़े तक नहीं पहनता था, फिर शादी क्या करेगा। उसे क्या पता था कि दिल्ली जैसे बड़े शहर कितने भी सगे रिश्ते हों सबको पराया कर देते हैं।

चाचा ने धनिया के बेटे का जो फ़ोन नंबर लाकर दिया था, धनिया ने जब उस पर कल मुझसे फ़ोन मिलवाया, तो किसी औरत ने फ़ोन उठाया और कहा- “हम उनकी पत्नी बोल रहे हैं, वो तो है नहीं घर पर।”

धनिया को एक धक्का- सा लगा, मतलब शादी वाली बात सच थी। फिर उसने कहा- “हम उनकी अम्मा बोल रहे हैं। उनसे बात करनी थी।”

तो उधर से औरत ने कहा, “माँ जी प्रणाम.. अच्छा, ठीक है...कल सुबह नौ बजे बात कराते हैं आपकी।”

बस आज सुबह सात बजे से धनिया मेरे साथ लगी है। अब तो बारह भी बज गए, रंगोली भी पूरी हो गयी पर उसका फ़ोन न आया।

“भाभी न हो तो एक बार आप ही मिला लो, क्या पता भूल गया हो। या हो सकता है दीवाली की तैयारी में लगा हो।”- धनिया ने कहा।

मैंने उसका मन रखने के लिए  फोन मिला दिया।

“हैलो.. सुखवान, धनिया...तुमसे बात करना चाहती है।” जब मैंने उधर से किसी आदमी की आवाज़ सुनी, तो उसे धनिया का लड़का समझा।

“यहाँ कोई सुखवान नहीं रहता। प्लीज़ इस नंबर पर फ़ोन मत मिलाइएगा कभी।”- उधर से उत्तर आया।

इसके बाद फ़ोन कट गया। मेरी अंदर की आवाज़ पहले ही कह रही थी कि अब यहाँ कनेक्शन नहीं मिलने वाला; लेकिन कनेक्शन इतनी ज़ल्दी कट जाएगा...यह पता न था।

मैंने धनिया की तरफ देखा, जो आँखों में आस भरे मेरी ओर एकटक ताक रही थी। मैंने क्षण भर को उसकी आँखों में देखा फिर आगे उससे नज़रें मिलाने का मुझे साहस न हुआ।

“क्या हुआ भाभी?” उसने बड़ी आस से पूछा।

“कुछ नहीं धनिया। लगता है, फोन ठीक से काम नहीं कर रहा। उधर से आवाज़ नहीं आ रही है।”- मैंने बहुत धीमे से कहा।

“अच्छा”.. धनिया को जैसे मेरी बात का भरोसा नहीं हुआ।

“अच्छा भाभी...कल फिर देख लेंगे।”- इतना कहकर वो हताश होकर जाने लगी।

मैं जानती थी कल भी फ़ोन नहीं आएगा।... “यहाँ कोई सुखवान नहीं रहता...”-  इतनी तल्ख़ी से यह कहा गया था कि मुझे भी पूरा विश्वास हो गया कि मोबाइल फ़ोन के उस ओर जो भी हो, धनिया का लड़का तो नहीं ही हो सकता। एक पति हो सकता है, पैसे के पीछे भागने वाला आदमी हो सकता है, दिल्ली में बसने वाला एक स्वार्थी, मक्कार इंसान हो सकता है, पर बेटा तो बिल्कुल भी नहीं।

मैंने कुछ सोचकर अलमारी से दस हज़ार रुपये निकाले। तब तक धनिया गेट तक पहुँच गई थी।

“धनिया ओ धनिया....”-  मैंने उसे पीछे से आवाज़ दी।

“हाँ, भाभी...” -धनिया फुर्ती से मेरी ओर मुड़ी। उसकी आँखें एक बार फिर चमकी। उसे लगा शायद उसके लड़के का फ़ोन आ गया।

“तुम्हारे लड़के का फ़ोन नहीं लग रहा था; पर उसका मैसेज आया है। कह रहा है, मेमसाब, मेरी माँ को दस हज़ार रुपये दे दीजिए। जब मैं आऊँगा, तब दे दूँगा। ये लो..पैसे। अपने मोतियाबिंद का इलाज़ करा लेना।”- मैंने कहा।

धनिया की आँखों से आँसू ढुलक गए। उसके विश्वास की जीत हो चुकी थी। उसने आगे बढ़कर मेरे हाथ से पैसे ले लिए  और कहा, “हम जानते थे, हमारा लड़का हमको बिसरा नहीं सकता।”

मैंने गहरी साँस ली और सोचा, “आँखों का मोतियाबिंद तो ठीक हो सकता है; पर मन की आँखों को सब स्पष्ट न दिखे, वही ठीक है।”  u

सम्प्रतिः शिक्षिका व लेखिका, लखनऊ, E-mail- twinkletomarsingh@gmail.com

1 comment:

Anonymous said...

मर्मस्पर्शी कहानी । बधाई । सुदर्शन रत्नाकर