- भीकम सिंह
1. निवेदन
क्या करूँ, क्या ना करूँ
जब कभी भी
सोचता हूँ ,
तो वहीं पहुँचता हूँ
ख़ुद ही ख़ुद से छुपकर ।
लेटी हैं जहाँ
मेरी मासूम आदतें
खलिहानों में,
मिट्टी के घरौंदों में
राह तककर ।
और गाँव से
करता हूँ निवेदन
कि भूले ना
मेरा बचपन
ताक़पे रखकर ।
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2. बस यूँ ही
मैंने जब - जब
जिस - जिसके
जूते उठाए
तब- तब टूटा मैं ,
अन्दर तक ।
आत्म सम्मान को
जैसे मारते रहे
करते रहे क्षीण
राजनेताओं के,
बन्दर तक ।
आज सुख में
दु:ख भरे
स्मृतियों के पन्ने
पलटे जा रहा हूँ मैं,
अम्बर तक ।
8 comments:
👏👏👏👏👏
अति सुंदर कविताएँ भीकम सिंह भाई साहब
बहुत ही सुन्दर लघु कविताएं !
आपको हार्दिक शुभकामनाएं
amit
अति सुंदर कविताएं ।
आपको बहुत बहुत बधाई ।
सरजीत सिह
बहुत सुंदर भावपूर्ण कविताएँ ।हार्दिक बधाई ।
सुदर्शन रत्नाकर
बचपन में अपनेपन की सुंगध से ये कविता महक रही है
बहुत सुंदर रचनाएँ...हार्दिक बधाई।
कृष्णा वर्मा
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