- भारत डोगरा
हाल ही में दुबई में मात्र 1 दिन में 18 महीने की वर्षा हो गई और अति आधुनिक ढंग से निर्मित यह शहर पानी में डूब गया। कुछ दूरी पर स्थित ओमान में तो 18 लोग बाढ़ में बह गए, जिनमें कुछ स्कूली बच्चे भी थे।
इस बाढ़ के अनेक कारण बताए गए। इनमें प्रमुख यह है कि जलवायु बदलाव के चलते अरब सागर भी गर्म हो रहा है व पिछले चार दशकों में ही इसकी सतह के तापमान में 1.2 से 1.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इसके कारण वाष्पीकरण बढ़ रहा है और समुद्र के ऊपर के वातावरण में नमी बढ़ रही है।
दूसरी ओर गर्मी बढ़ने के कारण आसपास के भूमि-क्षेत्र के वायुमंडल में नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है। समुद्र सतह गर्म होने से समुद्री तूफानों की सक्रियता भी बढ़ती है। अत: पास के क्षेत्र में कम समय में अधिक वर्षा होने की संभावना बढ़ गई है।
तिस पर चूंकि यह शुष्क क्षेत्र है, तो यहाँ नए शहरों का तेज़ी से निर्माण करते हुए जल-निकासी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितनी ज़रूरत थी। इस कारण भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई।
इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण भी चर्चा का विषय बना। वह यह है कि यूएई में काफी आम बात है कि बादलों पर ऐसा छिड़काव किया जाता है जिससे कृत्रिम वर्षा की संभावना बढ़ती है। जब मौसम वैसे ही तूफानी था तो इस तरह का छिड़काव बादलों पर नहीं करना चाहिए था। इस कारण भी वर्षा व बाढ़ के विकट होने की संभावना बढ़ गई।
यह तकनीक काफी समय से प्रचलित है कि वायुमंडल में कहीं सिल्वर आयोडाइड तो कहीं नमक का छिड़काव करके कृत्रिम वर्षा की स्थिति बनाई जाती है। इसके लिए विशेष वायुयानों का उपयोग किया जाता है। अनेक कंपनियाँ इस कार्य से जुड़ी रही हैं। यह तकनीक तभी संभव है जब वायुमंडल में पहले से यथोचित नमी हो। इस छिड़काव से ऐसे कण बनाने का प्रयास किया जाता है जिन पर नमी का संघनन हो और यह वर्षा या बर्फबारी के रूप में धरती पर गिरे।इस प्रयास में कई बार यह संभावना रहती है कि तमाम चेष्टा करने पर भी वर्षा न हो, या कई बार यह संभावना बन जाती है कि अचानक इतनी अधिक वर्षा हो जाती है कि संभाली न जा सके व भीषण बाढ़ का रूप ले ले।
1952 में इंगलैंड में डेवान क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा के प्रयोगों के बाद एक गांव बुरी तरह तहस-नहस हो गया था व 36 लोग बाढ़ में बह गए थे। इसी प्रकार, वॉल स्ट्रीट जर्नल में जे. डीन की रिपोर्ट (नवंबर 16, 2009) के अनुसार चीन में एक भयंकर बर्फीला तूफान इसी कारण घातक बन गया था।
हाल के एक विवाद की बात करें तो शारजाह में करवाई गई कृत्रिम वर्षा के संदर्भ में एक अध्ययन हुआ था। यह अध्ययन खलीद अल्महीरि, रेबी रुस्तम व अन्य अध्ययनकर्ताओं ने किया था जो वॉटर जर्नल में 27 नवंबर 2021 को प्रकाशित हुआ था। इसमें यह बताया गया कि कृत्रिम वर्षा से बाढ़ की संभावना बढ़ी है।
दूसरी ओर, यदि कृत्रिम वर्षा से ठीक-ठाक वर्षा हो, तो भी एक अन्य समस्या उत्पन्न हो सकती है - आगे जाकर जहाँ बादल प्राकृतिक रूप से बरसते वहाँ वर्षा न हो क्योंकि बादलों को तो पहले ही कृत्रिम ढंग से निचोड़ लिया गया है। इस कारण हो सकता है कि किसी अन्य स्थान से, जो सूखा रह गया है, उन क्षेत्रों का विरोध हो जहाँ कृत्रिम वर्षा करवाई गई है। यदि ये स्थान दो अलग-अलग देशों में हों, तो टकराव की स्थिति बन सकती है।
जियो-इंजीनियरिग तकनीक के उपयोग भी विवाद का विषय बने हैं। कहने को तो इनका उपयोग इसलिए किया जा रहा है कि इनसे जलवायु बदलाव का खतरा कम किया जा सकता है, पर इनकी उपयोगिता और सुरक्षा पर अनेक सवाल उठते रहे हैं।
इस संदर्भ में कई तरह के प्रयास हुए हैं या प्रस्तावित हैं। जैसे विशालकाय शीशे लगाकर सूर्य की किरणों को वापस परावर्तित करना, अथवा ध्रुवीय बर्फ की चादरों पर हवाई जहाज़ों से बहुत-सा कांच बिखेरकर इससे सूर्य की किरणों को परावर्तित करना (यह सोचे बिना कि पहले से संकटग्रस्त ध्रुवीय जंतुओं पर इसका कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा)। इसी तरह से, समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में गंधक बिखेरना व समुद्र में लौह कण इस सोच से बिखेरना कि इससे ऐसी वनस्पति खूब पनपेगी जो कार्बन को सोख लेगी।
ये उपाय विज्ञान की ऐसी संकीर्ण समझ पर आधारित हैं जो एकपक्षीय है, जो यह नहीं समझती है कि ऐसी किसी कार्रवाई के प्रतिकूल असर भी हो सकते हैं।
फिलहाल सभी पक्षों को देखें तो ऐसी जियो-इंजीनियरिंग के खतरे अधिक हैं व लाभ कम। अत: इन्हें तेज़ी से बढ़ाना तो निश्चय ही उचित नहीं है। पर केवल विभिन्न देशों के स्तर पर ही नहीं, विभिन्न कंपनियों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए भी इन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है जो गहरी चिंता का विषय है।
चीन में मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने का कार्य सबसे बड़े स्तर पर हो रहा है। अमेरिका जैसे कुछ शक्तिशाली देश भी पीछे नहीं हैं। समय रहते इस तरह के प्रयासों पर ज़रूरी नियंत्रण लगाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)
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