पीया चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान। एक म्यान में दो खड्ग, देखा-सुना न कान॥
रावण का सीता को बार-बार तंग करना तथा उनसे विवाह करने का आग्रह करना स्वभावतः मंदोदरी को अच्छा नहीं लगा। उसने अपने पति को समझाया और राम के पास सीता को छोड़ आने की प्रार्थना की। पर रावण इतनी सरलता से मानने वाला कहाँ था? उसने मंदोदरी से कहा, "तुम मेरे व्यक्तिगत काम में बाधा मत डालो।"
"किंतु तुम्हारा व्यक्तिगत कार्य मेरे व्यक्तिगत कार्य में भी तो बाधा डाल रहा है।"
"वह कैसे?"
"ऐसे कि सीता एक नारी है और मैं भी नारी हूँ। एक नारी का उत्पीड़न दूसरी नारी कभी सहन नहीं कर सकती।"
"सीता के प्रति तुम्हारी यह सहानुभूति ठीक नहीं।"
"क्या उसके प्रति तुम्हारा अनीति का व्यवहार ठीक है?"
"मैं एक बार कह चुका हूँ कि यह मेरा व्यक्तिगत मामला है।"
"मैं भी बार-बार कह चुकी हूँ कि तुम्हारे व्यक्तित्व से पर व्यक्तित्व जुड़ा हुआ है, अतः मुझे बोलने का पूरा अधिकार है।"
मंदोदरी के वाद-विवाद करने से रावण क्रोधित हो उठा। वह बोला, "मेरे अधिकार के सामने तुम्हारा अधिकार तुच्छ है। तुम कुछ भी कहो, मैं सीता से विवाह करूँगा ही।"
"क्यों पाप के भागी बनते हो? वह जगत् माता है, उसके लिए ऐसी बात सोचना और कहना पाप है। केवल तुम्हारी इच्छा से ही तो यह कार्य नहीं होगा।"
"होगा और अवश्य होगा।" रावण उच्च स्वर में बोला।
"कभी भी नहीं होगा और होगा भी तो केवल एक उपाय से।’’
रावण का क्रोध एकदम शांत हो गया। उसने प्रार्थना के स्वर में मंदोदरी से पूछा, "क्या उपाय है वह? "
"तुम राम का रूप धारण करके सीता के पास जाओ।"
मंदोदरी की बात सुनते ही रावण प्रसन्नता से भर गया, लेकिन दूसरे ही क्षण उसकी सारी प्रसन्नता विलीन हो गई। उसने कहा, "तुम मुझे मूर्ख बना रही हो। राम का रूप धारण करने के पश्चात् भोग-लिप्सा की बात मेरे मन में रह ही कहाँ सकेगी?"
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