मैं वही धरती हूँ जिसके स्वरूप को प्रकृति ने अपनी सन्तति की तरह करोड़ों वर्षों में सँवारा यही नहीं अपने सतत प्रयास से इसके रूप को निखारा भी । पहाड़ों पर हरियाली, कलकल करती हुई नदियाँ व झरने निर्द्वन्द्व उड़ते- चहचहाते पक्षी, मधुर - मधुर ध्वनि से गूँजता आकाश, हरे –भरे चरागाह, भय रहित पशुओं का स्वछन्द विचरना, गोधूलि बेला में डूबता सूरज और उसके माथे पर साँझ का टीका- टीके के साथ गोरज की महक और ढोरों के गले में बँधी घंटियों का साँझ की नीरवता भंग करना... अहा! ऐसे मनोरम वातावरण में मनुष्य का माया से घिर कर भी प्रकृति से जुड़ना स्वाभाविक ही था।
वास्तव में प्रकृति और मनुष्य - मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक ही तो हैं ।
जैसे ही ऋतुएँ बदलतीं मेरा भी रूप बदल जाता,बसंत ऋतु के आने पर मेरी गोद फूलों से भर जाती, नदियाँ–नहरें बेझिझक अपना पल्लू लहराती हुई कुलाँचें भरतीं ,किनारों को छूती कुलकुलाती सैर को निकल पड़तीं पानी से भरे तालाबों में कमलों की सुषमा देखते ही बनती । ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य का प्रचंड ताप मुझे विह्वल करने लगता तो मेरे कातर हृदय की पुकार सुन इन्द्र देवता जल परियों को भेज देते। फिर क्या था नदी -नाले जल से लबालब भर जाते चारों ओर हरियाली ही हरियाली .... घास के गलीचों पर सुस्ताती धूप, पशु-पक्षियों की मौज- मस्ती देखते ही बनती। फिर होता शरद और शीत का आगमन गिरि शृंगों पर बर्फ़ का जमावड़ा उड़ती - अठखेलियाँ करती बादलों की टोलियाँ मानो वे बाल हिम श्रेणियों के साथ पकड़म- पकड़ाई खेल रही हों किन्तु जिसकी कल्पना भी नहीं की थी आज वही घटता जा रहा है । डायनामाइट का वज्र -प्रहार मेरे उन्नत मस्तक के खंड– खंड करने पर आमादा है विकास, नवीनता का समावेश,सुरसा के मुख की तरह जनसंख्या का लगातार बढ़ना इन सबका दुष्परिणाम मुझे ही तो झेलना पड़ रहा है।
आज तक प्रकृति ने जिसे सहेज कर रखा था, मनुष्य सहज ही उसे नष्ट कर रहा है । सभ्यता की होड़ में बढ़ते हुए क़दमों ने हमारी ओढ़नी को तो तार –तार किया ही साथ ही अब वह अधाधुंध मेरा विनाश करने पर तुला है ज़रा मेरा रूप तो देखो क्या हो गया है ! सूखा और बाढ़ें. प्रलयंकारी तूफानों का रौरव नृत्य, निरंतर वनों का कटना, सूने पड़े अभ्यारण्य झीलों के नाम पार छोटी-छोटी तलैया .... मैं कहाँ मुँह छुपाऊँ मेरा वात्सल्य बिलख रहा है मेरे लाड़ले मुझ से बिलग हो रहे हैं पक्षियों और हिंसक वन प्राणियों की आश्रयस्थली ख़तम होती जा रही है। ओह !वेदना असह्य वेदना !
कहाँ गया वो भौतिक और प्राकृतिक जगत् का गठबंधन – हिमालय की अवन्तिका में औषधि युक्त कन्द-मूल, चंदन वन की मादक सुगंध जिसे विकराल विषधर का विष भी कभी नहीं व्यापा –क्या आज मानव उन विषधरों से भी अधिक विकराल रूप धार कर आ रहा है ? चिमनियों से निकलने वाला धुआँ आकाश की स्वच्छ्ता को अपने आवर्त में लपेटता जा रहा है, विषाक्त यौगिकों का वायुमंडल पर प्रभाव बढ़ने लगा है मैं धरती ग्रीनहाउस ईफेक्ट से आक्रान्त हूँ क्या यही मानव की सृजनात्मक शक्ति का विस्तारबोध है ? नहीं-नहीं मैं अपने प्रति यह निष्ठुरता कदापि सहन नहीं करूँगी। मैं रो- रो कर विलाप करूँगी। मेरी आहों की गर्मी से अग्नि की ज्वालाएँ निकलेंगीं। जल, अतल गर्त में चला जाएगा, सर्वत्र त्राहि –त्राहि –त्राहि मैं क्या बचूँगी और हे मानव तुम्हारा क्या होगा ईश जाने ।
एक बार फिर से बता रही हूँ मैं धरती- मैं नारी समस्त वैभव की मूक स्वामिनी सृष्टि की पालक- पोषक, आनन्द दाता हूँ, दान देती तो हूँ किन्तु अपना अतिशय दोहन बर्दाश्त नहीं कर सकती .. नहीं कर सकती.. कदापि नहीं कर सकती मेरा अंतर्मन रो रहा है ।
1.
दूभर साँसें
आक्रान्ता प्रकृति मैं
वैभव हारी ।
2.
डँस गया है
विषधर विकास
मृत्यु ही शेष ।
2 comments:
बहुत सुंदर शब्द चित्र हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर
अति सुंदर शब्द चित्र।
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