फट रही है ये फिर से धरती क्यूँ,
फिर से यज़्दाँ का क़हर आया है।
पर्यावरण प्रदूषण एक ऐसा धीमा जहर है, जो समूची धरती को धीरे- धीरे निगलते चले जा रहा है। साल- दर- साल हम प्रदूषण की मार झेलते हुए यह जान गए हैं कि इस विनाश के पीछे प्रमुख कारण, प्रकृति का दोहन करते हुए अंधाधुंध औद्यौगिक विकास ही है। परिणामस्वरूप हम बाढ़, सूखा, भूकंप और महामारी जैसी अनके प्रलयंकारी तबाही का मंजर झेलते चले जा रहे हैं । हवा और पानी इतने जहरीले हो चुके हैं कि जीना दुश्वार हो गया है; लेकिन फिर भी हम इनसे सबक नहीं लेते। विकास की अंधी दौड़ में हम आने वाली पीढ़ियों के लिए लगातार कब्र खोदते ही चले जा रहे हैं।
हम एक ऐसे देश के वासी हैं, जहाँ सिर्फ नदियों और वृक्षों की ही पूजा नहीं होती, बल्कि धरती का कण- कण हमारे लिए पूजनीय है। अफसोस है, ऐसे पवित्र विचारों से परिपूर्ण देश में पर्यावरण जैसे गंभीर विषय को सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बनाया जाता। ऐसा तब है,जब हमारी संस्कृति और परंपरा हमें यही सिखाती है कि अपनी प्रकृति, अपनी धरती का सम्मान करें और उनकी रक्षा करें। हम अपने पूर्वजों द्वारा दिए ज्ञान के इस अनुपम भंडार पर गर्व तो करते हैं; पर उनपर अमल करने में पीछे रह जाते हैं।
परिणाम -विनाश है, जो आज दुनिया भर में दिखाई दे रहा है। हमारे वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने हमेशा चेतावनी दी है कि पहाड़ों का पर्यावरण और मैदानी क्षेत्रों का पर्यावरण भिन्न होता है। पहाड़ के पर्यावरण को समझे बिना ही हम विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाएँगे, तो आपदाओं को आमंत्रित करेंगे। विकसित देशों ने तो बड़े बाँधों के निर्माण पर प्रतिबंध ही लगा दिया है, क्योंकि वे जान चुके हैं- इससे भविष्य में विनाश ही होगा। हमारे यहाँ लगातार तबाही के बाद भी पहाड़ों पर बाँध बनते ही चले जा रहे हैं, पहाड़ों में सुरंग बनाकर, जंगलों से हज़ारों वृक्षों का काटकर, सड़कें और रेल लाइनें बिछाई जा रही हैं। भला धरती का सीना चीरकर हम विकास की कौन सी सीढ़ी चढ़ रहे है?
हम हर बार कहते तो यही हैं कि सरकार चाहे किसी की भी हो, उन्हें पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सोचना ही होगा। ज्यादातर जनता भी यही सोचती है कि देश के पर्यावरण की रक्षा करना, हमारा नहीं, सरकार का काम है। कहने को तो दुनिया भर में इस दिशा में काम हो रहा है; परंतु जिस तेजी से पर्यावरण बिगड़ रहा है, उतनी तेजी से नहीं। यह सही है कि सरकार को नीतियाँ, नियम और कानून बनाने होंगे; पर देश की जनता को भी तो अपनी भूमिका निभानी होगी।
पूरा देश पिछले दिनों चुनावी त्योहार में निमग्न रहा है । अनेक वायदों और आश्वसनों के बल पर वोट माँगे गए; लेकिन हमेशा यह पाया गया है कि चुनाव के समय पर्यावरण हमारे राजनीतिक दिग्गजों की जुबान पर कभी नहीं होता, ऐसा क्यों? भला चुनाव में पर्यावरण एक प्रमुख मुद्दा क्यों नहीं बन पाता?
दरअसल जिनके बल पर पार्टियाँ चुनाव लड़ती हैं, जो उनके वोट बैंक हैं, अर्थात् वह मध्यम और निम्न वर्ग, जिन्हें पर्यावरण से ज्यादा चिंता, अपनी रोजी- रोटी और वर्तमान को बेहतर बनाने की होती है । इसीलिए चुनाव भी उनकी इन्हीं प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर लड़े जाते हैं। उनके वोट तो उन्हें मकान, नौकरी, मुफ्त अनाज और बिना मेहनत किए ही उनके बैंक खाते में हजारों रुपये डलवाने के लुभावने वायदों के बल पर बटोरे जाते हैं। ऐसे में पर्यावरण जैसा विषय भला चुनाव में मुद्दा क्यों बनेगा?
पिछले कार्यकाल में अवश्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गंगा सहित अन्य नदियों के प्रति आस्था दिखाई और नमामि गंगे सहित नदियों की सफाई को लेकर अनेक कार्यक्रम चलाए, स्वच्छ भारत मिशन भी तेजी से चला; लेकिन एक लम्बें समय बाद उसके भी परिणाम उस तरह देखने को नहीं मिले, जैसी उम्मीद थी। इस दिशा में और अधिक तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है, अन्यथा परिणाम भयानक होने की भविष्यवाणी हमारे पर्यावरणविद् कई बरसों से करते ही आ रहे हैं ।धरती एक ही है, यदि हमें अपनी धरती को जीने और रहने लायक बनाना है, तो विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने से बचना होगा। विकास की एक सीमा तय करनी होगी। कुछ कठोर कानून बनाने होंगे और इसके पालन के लिए सख्ती बरतनी होगी। अन्यथा पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबिंग वार्मिंग के चलते दुनिया भर के तापमान में जैसी वृद्धि देखी गई है वह भयावह है। बाढ़, भूकंप और सुनामी जैसा सैलाब पिछले कुछ वर्षों से हम देख ही रहे हैं; वह कल्पना से परे है। पहाड़ों का टूटना, ग्लेशियर का पिघलना, जंगलों में भयंकर आग, ये सब प्रलय की शुरूआत ही तो है। तो क्या हमें विनाश के लिए तैयार रहना होगा या इस विनाश को रोकने के लिए सजग हो जाना होगा? फैसला हमारे हाथ में है। हम अब भी सचेत हो सकते हैं। हाँ, आने वाले विनाश को रोक तो नहीं सकते; पर कम अवश्य कर सकते हैं।
धरती माता का स्वभाव यदि देने का है, तो क्या हम उसे पूरी तरह खोखला करके ही छोड़ेंगे। हमें कहीं से आरंभ तो करना होगा। अपने जीवन को सादा, सच्चा और सरल बनाना होगा, अपने लालच को कम करना होगा। सबसे जरूरी, प्रकृति के अनुरूप अपने जीवन को ढालना होगा । प्रकृति के साथ, धरती के साथ प्यार करते हुए जीवन गुजारने का संकल्प लेना होगा। अपनी कमजोरियों को दूसरों पर थोपना बंद करना होगा। सम्पूर्ण जगत् को, सभी जीव- जंतु, पशु- पक्षी और मानव के रहने लायक बनाकर फिर से अपनी धरती को शस्य- श्यामला बनाना होगा। और नहीं तो सब कुछ अपनी आँखों के सामने तबाह होते देखने के लिए अपना दिल मजबूत कर लीजिए।
किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का,
जो धूप छाँव से रिश्ता बनाए रहता है।
7 comments:
आदरणीया 🙏🏽
बहुत ही संवेदनशील विषय को छुआ है आपने इस बार। प्रदूषण भौतिक से भी आगे बढ़कर है : मानसिक प्रदूषण जो हमारे लोगों के DNA में बस गया है। वरना ये कलियुगी कालिदास नहीं जानते कि खुद अपनी संतानों के लिये कांटे बोकर जा रहे हैं।
सरकारों की बात न करें तो ही बेहतर है, क्योंकि नौकरशाही तो आनंद ग्रस्त और उसी में मस्त है। उसे क्या लेना देना देश, समाज या प्रकृति से। नेता का तो पूछिये ही मत :
- जिन्हें हम चुनते हैं
- वे कहां हमारी सुनते हैं
हार्दिक बधाई सहित सादर 🙏🏽
बहाना औद्योगिक विकास का और दोहन प्रकृति का। तराज़ू के पलड़े कैसे समान रहेंगे। और प्रदूषण की बात नेता क्यों कर सोचेंगे भला। वे स्वयं ही तो प्रदूषण की समस्या के भागीदार हैं। आपने ज्वलंत समस्या के लेकर हमेशा की तरह समाज ,देश और मानव कल्याण की बात सोची है। पाठकों पर तो प्रभाव पड़ना ही चाहिए । बूँद-बूँद से सागर भरता है। आवश्यकता जनता के जागरूक होने की है। बहुत सुंदर विचार । हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर
पर्यावरण इस समय का सबसे जरूरी या सबसे आवश्यक विषय है इस पर आपकी लेखनी चली है और यह एक प्रेरक आलेख तैयार हुआ है। आपने सच कहा धरती एक ही है अगर हमने इसे नहीं बचाया तो हमारे जीने के लिए भी कोई स्थान नहीं बचाने वाला है। परंतु लगता है कि मनुष्य ने अभी तक कोई पाठ सीखा नहीं है जिससे धरती के पर्यावरण को उसके पारिस्थितिकी तंत्र को बचाया जा सके सुरक्षित किया जा सके।
आपको साधुवाद रत्ना जी।
पर्यावरण के प्रति सुंदर चिंतन
पर्यावरण केवल सरकार अथवा कुछ संथाओं की जिम्मेदारी नहीं हो सकती हैl आवश्यकता है तो केवल पर्यावरण को हानि से बचाने की जिसमें हर नागरिक की भागीदारी जरुरी हैl दुःख की बात यह है की पढ़े लिखे जानकार लोग ही नुकसान पहुंचाने से नहीं चूकतेl जबकि कई गांव में लोगों ने पर्यावरण बचाने के लिये प्रसंशनीय कदम उठाये हैंl आशा है आपका आलेख जागरूकता पैदा करने में सफल होगाl सुन्दर आलेख!
बहुत सुंदर प्रेरणाप्रद आलेख...हार्दिक बधाई।
कृष्णा वर्मा
श्रद्धेया रत्ना जी
इंसान व प्रकृति के बीच बहुत गहरा संबंध है ! इंसान के लोभ, दुविधावाद एवं विकास की अवधारणा ने पर्यावरण का भारी नुक़सान हुआ है, जिसके कारण ना केवल वन , नदियाँ, रेगिस्तान और जल संसाधन सिकुड़ रहे हैं !
तापमान का ५० डिग्री पार करना किस ओर इशारा कर रहा
है ?
ग्लोबल वार्मिंग पर बहुत चर्चा होती है पर हालात क्या हैं ?
बढ़ते प्रदूषण से पृथ्वी ख़तरे में है और इस बहुत बड़े ख़तरों से निबटने को कोशिशें भी बड़ी करनी होंगी !
विकास होगा तो कुछ संसाधनों का नुक़सान तो होगा मगर सिर्फ़ सरकार को दोष देते रहना या उस पर राजनीति करने से बेहतर है कि हमें अपना प्रयास भी करने चाहिए !
प्रकृति के भूभाग पर ३३.३% वन होने चाहिए किंतु मात्र १९.५% भाग पर ही वन रह गये हैं जो एक गंभीर बात है !
पेड़ लगाने की फोटो डालना एक अहम मुद्दा हो सकता है परंतु उस को पालना भी एक ज़रूरी मुद्दा बनाना चाहिए !
आपने एक गंभीर मुद्दे को प्रकाशित किया है और आपकी चिंता सर्वमान्य है !
सादर !
डॉ० दीपेन्द्र कमथान
बरेली !
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