- प्रगति गुप्ता
कृष्णा पति के अंत्येष्टि-कर्म पूर्ण होते ही बेटों को विदेश जाते देखती रही। दोनों बेटे माँ को जल्द ही अपने पास ले जाने की सांत्वना देकर चले गए। वे सालोसाल से विदेश में थे। उनका लगाव हमेशा माँ-बाप के साथ खानापूर्ति-सा ही था।
भाइयों के जाने के बाद बेटी चंदा ने कहा-"माँ! अब आपको अकेले नहीं रहने दूंगी। मेरे पास चलकर रहिए।"
चंदा की बात सुनकर कृष्णा बोली-"बेटा! मेरा आखिरी समय इसी घर में आए , तो अच्छा है।... तेरे घर पर मुझे कुछ हुआ , तो तेरे अपने ही कहेंगे, माँ से कुछ चाहिए होगा, तभी अपने साथ ले गई। तुम इसी शहर में रहती हो, मेरे पास आती-जाती रहना।"
संयुक्त परिवार की राजनीति झेलने वाली कृष्णा बहुत व्यवहारिक हो गई थी। पति का ‘ब्लड इस थिक्कर देन वाटर’ की दुहाई देकर अपने घरवालों को हमेशा सही ठहराना, वह कभी नहीं भूल पाई। उसने अपनी पीड़ाओं को डायरी में सहेजकर, बस कर्तव्यों को संभाला था।
मुश्किल से पाँच-छह महीने गुजर होंगे, कृष्णा को खाँसी के साथ साँस लेने की तकलीफ़ बढ़ती गई। चंदा ने ही अस्पतालों के चक्कर लगा-लगाकर उसकी सभी जाँचें करवाईं। फेफड़ों के कैंसर की आखिरी स्टेज निकली। इलाज शुरू होने के बावजूद, उसके हालत बिगड़ते गए। उसने स्वयं को मृत्यु के लिए तैयार कर लिया था। बेटे भी सपरिवार पहुँच गए। एक दिन सभी को बुलाकर, उसने जेवर का डिब्बा सबके हिस्से का सामान देने के लिए खुलवाया।
“माँ! अभी नहीं... अभी तो जीवित हो न। आपने सबकुछ लिखा हुआ भी है।”
ज्योंही चंदा अपनी बात बोलकर कमरे से सुबकते हुए निकली, उसे बड़ी भाभी की आवाज सुनाई दी- "बैठी रहो चंदा। माँ सबको साथ बैठाकर जो कर रही हैं, सही है। नहीं तो बाद में लगेगा कि इसको कम दिया, उसको ज्यादा!"
बड़ी बहू की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि छोटी बहू बोली-"बहनजी! तो माँझी के पास आती-जाती रहीं हैं, उन्हें तो माँझी ने पहले ही बहुत कुछ..”
एकाएक कृष्णा ने छोटे बेटे को घूरा। उसके आँख दिखाने से छोटी बहू चुप हो गई थी। कृष्णा ने सबका सामान सौंपने के बाद चंदा को वापस कमरे में बुलवाया, वह अपने आँसू पोंछते हुए बोली-"माँ! मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस नानी वाली अंगूठी जिसे आपने ताउम्र पहने रखा, दे दो। यह मेरे लिए भी रक्षा-कवच का काम करेगी।"
चंदा की बात सुनकर कृष्णा डूबती आवाज़ में बोली-"बस यही चाहिए तुझे!"
"मुझे आपकी अधफटी डायरी भी चाहिए। मैं नहीं चाहती वह किसी के हाथ लगे। अब आप उसके पन्ने नहीं फाड़ पाओगी। मैं आपकी पीड़ाओं को महसूस करना चाहती हूँ माँ... ताकि... प्लीज माँ!"
चंदा तो उसके प्रस्थान से पहले, उसकी सभी पीड़ाएँ समेट लेना चाहती थी। वह उसका ही प्रतिरूप हो गई थी। जैसे ही चंदा ने कृष्णा की बंद आँखों से ढलकते हुए आँसुओं को पोंछा, उसने गहरी साँस साथ शरीर छोड़ दिया।
चंदा ने एकाएक माँ के शरीर में पसरते ठंडेपन को, अपने स्पर्श से थाम लिया।।
सम्पर्कः 58,सरदार क्लब स्कीम, जोधपुर -342011, pragatigupta.raj@gmail.com
8 comments:
बहुत बहुत आभार रत्ना जी
प्रगति गुप्ता
नानी वाली अंगूठी बेटी को चाहिए... माँ की परम्परा और विरासत को बेटियाँ हीं सहेज कर चलती हैं, संवेदना को स्पर्श करती प्रभावी लघुकथा
मार्मिक
अत्यंत मार्मिक । रेणु चन्द्रा
मार्मिक एवम् सत्य । अक्सर ऐसा ही होता है बेटी माँ की सेवा करें तो भी कोपित होती है । हमने साक्षात देखा है
आपने सशक्त शब्दों में रचना की । बहुत बधाई
उपरोक्त कमेंट मधु गुप्ता अहमदाबाद ने किया है
मार्मिक अभिव्यक्ति
अत्यन्त मार्मिक।आपकी हर कथा, लघुकथा अपने भीतर एक गहरी संवेदना, चिन्तन और सबक भी लिए हुए होती है, दीदी। इसलिए अभी मोबाईल का उपयोग न के बराबर करते हुए भी आज आपकी ये लघुकथा पढ़ें बिना रह ना सकी।सच है,एक स्त्री की पीड़ा को बढ़ाने का कार्य अगर उसके निकट की स्त्रियों द्वारा किया जाता है तो उस पीड़ा पर मरहम लगाने का कार्य भी एक स्त्री ही कर सकती है।
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