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Dec 1, 2024

लघुकथाः जूते और कालीन

  - चैतन्य त्रिवेदी

“जब भी वे कालीन देखते हैं तो कोफ्त से भर जाते हैं । कालीन बुने जाने के उन कसैले दिनों की याद में । कुछ आँसू पी जाते हैं और गम खा लेते हैं । ’’

“ क्यों भला , हमने उनका क्या बिगाड़ा ?’’

“यह कालीन जो आपने अपनी बिरादरी के चंद लोगों की कदमबोसी के लिए बिछाया है, उसके रेशे – रेशे में पल – पल के कई अफसोस भी बुनें हुए हैं , जिसे आप नहीं जानते । ’’

“हमने दाम चुका दिए । उसके बाद हम चाहे जो करें कालीन का । ’’ उन्होनें कहा । 

“ नहीं श्रीमान, दाम चीजों के हो सकते हैं, लेकिन कुछ कलात्मक बुनावटें बड़े जतन से बनती है । उसके लिए हुनर लगता है । धैर्य लगता है, परिश्रम लगता है दाम चुकाने के बाद भी उनकी कद्र होती है, क्योंकि उसकी रचना के पीछे एक खास कलात्मकता काम कर रही होती हैं ’’ 

“ आप क्या चाहते है ?’’

“आप जानते हैं कि इस कालीन के रेशें – रेशें में नन्हीं लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है । स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम गर्म स्पर्श, जिनसे भरी ठंड में उनके बच्चे वंचित रह गए । इसके कसीदे देखिए श्रीमान, ये सुन्दर – सलोने कसीदे, जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया में चलने का मन बना देते हैं, उन कसीदों के लिए उन लोगों ने अपनी आँखें गड़ाई रात – रात, मन मारा जिनके लिए । उन्हें क्या मिला मजूरी में, सिर्फ़ रोटी ही तो खाई, लेकिन अपना आसमान निगल गये ।”

“कुछ पैसे और ले लो यार, लेकिन इतनी गहराई से कौन सोचता है!’’ वह बोले । 

“बात पैसों की नहीं है । उन लोगों की तो बस इतनी गुजारिश भर है कि जिस कालीन को बुनने के लिए उन लोगों ने क्या – क्या नहीं बिछा दिया, उस पर पैर तो रख लें, लेकिन जूते नहीं रखें श्रीमान ।”


1 comment:

भीकम सिंह said...

बेहतरीन।