कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में एक ट्रेनी डॉक्टर के बलात्कार और फिर हत्या का मामला पिछले एक माह से पूरे भारत वर्ष में चर्चा का विषय बना हुआ है। यह बहुत अफसोस की बात है कि समाज में नासूर बन चुके इस तरह के घिनौने कृत्य पर आवाज तभी उठती है, जब एक बार फिर कोई दरिंदा अपनी दरिंदगी दिखाकर हमें शर्मसार कर जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर महिला सुरक्षा के मुद्दे को केंद्र में ला दिया है। महिला देश के किसी भी कोने में, किसी भी संस्थान में, किसी भी दल या कार्यालय में क्यों सुरक्षित नहीं ? महिला सुरक्षा के मामले में आख़िर कहाँ चूक हो जाती है? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है और इसके लिए क्या क़दम उठाए जा रहे हैं? ऐसे कई सवाल निर्भया से लेकर, अब तक सिर्फ सवाल ही बने हुए हैं।
पिछले कुछ बरसों में हमारी सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ नियम- कानून अवश्य बनाए हैं; विशेषकर निर्भया मामले के बाद तो कई नियम कानून और सुरक्षा के उपाय किए गए। जैसे, गृह मंत्रालय द्वारा विकसित निर्भया मोबाइल एप्लिकेशन- जो आपात्काकालीन सम्पर्कों और पुलिस को एसओएस अलर्ट भेजने की अनुमति देता है। एप में स्थान ट्रैकिंग और घटनाओं की ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग जैसी सुविधाएँ भी शामिल हैं। यही नहीं, भारत में कई कंपनियों ने पैनिक बटन, पहनने योग्य ट्रैकर और जीपीएस और जीएसएम तकनीक से लैस पेपर स्प्रे जैसे स्मार्ट सुरक्षा उपकरण आदि आदि... पर ऐसे उपायों के क्या मायने जो समय पर उनकी रक्षा न कर सके।
प्रश्न तो वहीं का वहीं है न, कि जब इतने सुरक्षात्मक उपाय हमारे पास हैं, तो फिर एक युवा डॉक्टर क्यों अपनी सुरक्षा नहीं कर पाई? जाहिर है- ये उपाय पर्याप्त नहीं हैं। हमारे देश के वे संस्थान तो बिल्कुल भी सुरक्षित हैं, जहाँ, लड़कियाँ रात की पारी में काम करने जाती हैं? अब जब यह दुर्घटना हो गई है, तो अब रातों- रात नियम में बदलाव किया गया। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ (आईएमए) ने भी सुरक्षा मामलों को लेकर हाल ही में एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया, जिसमें पाया गया कि एक तिहाई डॉक्टर, जिनमें से अधिकतर महिलाएँ थीं, अपनी रात्रि पाली के दौरान ‘असुरक्षित’ महसूस करती हैं। इतनी असुरक्षित कि कुछ ने आत्मरक्षा के लिए हथियार रखने की आवश्यकता भी महसूस की है।
यह सर्वविदित है कि आज लड़कियाँ हर क्षेत्र में बराबरी से आगे बढ़ रही हैं और काम कर रही हैं। जब भी इस तरह की घटना घटती हैं, तो समाज में एक भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है । बेटियों के माता - पिता डर जाते हैं। चाहे वह स्कूल या कॉलेज जा रही हो अथवा नौकरी के लिए बस या मेट्रो में सफर कर रही हो, जब तक वह सही- सलामत घर नहीं आ जाती, वे चिंतित रहते हैं। ऐसे में रात की पारी में काम करने वाली बेटियों के अभिभावकों का भय कितना भयावह होगा, यह हम और आप अंदाजा लगा ही सकते हैं।
पुरानी सोच रही है कि घर में लड़कियों को ही टोका जाता रहा है कि ऐसे कपड़े मत पहनो, देर रात बाहर मत रहो, धीरे बात करो। ज्यादा हँसो मत, बड़ों की बात मानो, घर के काम सीखो.... आदि- आदि। यानी हर रोक- टोकी लड़की के लिए। बराबरी के इस दौर में यह बात सब लड़कों के लिए लागू नहीं होती। वे देर रात पार्टी करें, कोई बात नहीं, वे देर से घर लौटे, कोई बात नहीं । उनकी आजादी पर रोक- टोक करने से उनके अहं पर जोट लगती है। परिणामस्वरूप, आज चारों ओर अराजकता का माहौल है। अपराध बढ़ रहे हैं, मानसिक विकृतियाँ बढ़ रही हैं। कितना अच्छा होता कि हमारे परिवारों में बचपन से ही लड़कों को भी वही संस्कार दिए जाते, जो लड़कियों को दिए जाते हैं, तो समाज की सूरत कुछ और ही होती।
इन सब सवालों से अलग कुछ और बातें हैं, जो महिलाओं पर होने वाले इस तरह के अपराधों को लेकर हमेशा से ही उठती रही हैं- ऐसी कौन सी पाशविक प्रवृत्ति है, जो एक इंसान से इतना वीभत्स और दिल दहला देने वाला कृत्य करवाती है। ऐसी राक्षसी प्रवृत्ति के पीछे कौन- सी मानसिकता काम करती है? क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था, हमारी परम्पराएँ, हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार इसके लिए जिम्मेदार हैं?
दरअसल हमारी सम्पूर्ण शिक्षा- व्यवस्था भी आज उथली हो गई है। वहाँ से बच्चे आज पैसा कमाने की मशीन बनकर निकलते हैं। गुरुकुल और गुरु -शिष्य की परंपरा तो बीते जमाने की बात हो गई है। अब तो शिक्षा व्यापार बन गया है, तो ऐसे व्यापारिक क्षेत्र में नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जाए। अब तो न वैसे शिक्षक रहे, न वैसे छात्र। एक समय था, जब बच्चों के लिए परिवार को उनकी पहली पाठशाला माना जाता था, जहाँ उन्हें माता- पिता के रूप में प्रथम गुरु मिलते थे। आजकल उनके पास भी बच्चों के लिए समय नहीं है। वे भी आधुनिकता की इस दौड़ के एक धावक हैं । अब तो संयुक्त परिवार भी समाप्त हो गए, जहाँ कभी बच्चों को उनके दादा- दादी, नाना- नानी से नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्राप्त होती थी।करोना के दौर में अवश्य ऐसा लगने लगा था कि हमारी परम्पराएँ , हमारी संस्कृति, हमारे रीति रिवाज लौट रहे हैं; परंतु वह दौर खत्म होते ही सब पुनः पूर्ववत् हो गया। ऐसे में युवाओं में संस्कारों की कमी, चिंता का विषय है। संस्कारों के अभाव का ही परिणाम है कि आज युवा पीढ़ी नशे और अपराधों में घिरती जा रही है। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ में यह पीढ़ी खुद के साथ समाज को भी अंधकार के गर्त में धकेल रही है। यहाँ सिर्फ युवा पीढ़ी को ही दोष देना गलत होगा; क्योंकि आज जो युवा हैं, वे कल बड़े होंगे। मानसिक विकृति वाला एक बहुत पड़ा वर्ग जिसमें बड़े-बूढ़े भी शामिल है, ऐसे दुष्कर्म करने में पीछे नहीं हैं।
जब भी इस तरह का गम्भीर मामला न्यायालय में जाता है, तो पैसे के लोभ में, स्थापित वकील छल-छद्म और ओछे हथकण्डे अपनाकर न्याय में बाधा पहुँचाते हैं। मीडिया भी कम गुनहगार नहीं। वे ऐसी घटनाओं को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। जनता मूर्ख नहीं, वह सारे खेल को समझती है। कुछ राजनैतिक दल इतने निर्लज्ज हैं कि जिस दुर्घटना पर उन्हें लाभ मिलेगा, उस पर हल्ला मचाएँगे, जिस पर कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिलेगा या उनके दल का ही कोई राक्षस पकड़ में आएगा, तो उस पर चुप रह जाएँगे। अपराधी पैसे के बल पर कानून की भूल भुलैया में पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार को फँसाकर हतोत्साह और पराजित कर देते हैं। न्याय पाने के रास्ते में इतनी बधाएँ हैं कि विवश होकर परिवार चुप होकर बैठ जाता है।
अतः महिलाएँ सुरक्षित महसूस करें, इसके लिए कानून ज़रूरी है, तो उससे अधिक ज़रूरी है- कानून का कठोरता से पालन करना। यह कार्य राजनैतिक इच्छा शक्ति के बिना सम्भव नहीं। यह एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है, जिसपर ईमानदारी से चिंतन- मनन करने की आवश्यकता है।
15 comments:
आदरणीया 🌷🙏🏽
बहुत संवेदनशील एवं मार्मिक विषय को छुआ है आपने। आज़ादी के आरंभिक दौर की जान बूझकर की गई गलतियों को देश आज तक भुगत रहा हैं। उदाहरणार्थ देश नायक का कथन कि चीन ने जो भूमि हड़पी वहां घास का एक तिनका तक नहीं उगता या फिर कश्मीर मुक्ति अभियान के नायक फील्ड मार्शल करिअप्पा को वापस बुला लेना आदि आदि... अंतहीन सूची
--- मुझे भी कभी कभी लगने लगता है कि शायद विंस्टन चर्चिल ने ठीक ही कहा था कि भारतीय प्रजातंत्र को धूर्त नेताओं द्वारा अगवा कर लिया जाएगा :
- ख़िज़ां का उस पे मुसलसल इताब* लगता था
- वो शख़्स फिर भी शगुफ़्ता गुलाब लगता था
- खुला तो उस में गुनाहों के कितने किस्से मिले
- जो बंद था तो मुक़द्दस किताब लगता था (*प्रकोप)
-- फिर भी मन में एक आस शेष है कि प्रलय के बाद सृजन का आगमन होता ही है। जब नहीं रहे हैं सुख के दिन तो नहीं रहेंगे दुख के भी दिन।
-- जोखिम भरे विषय पर साहसिक कलम अभियान हेतु आपको हार्दिक बधाई। सादर 🙏🏽
यह पाशविक वृत्ति नहीं है। यह तो राक्षसी दुष्टता है। नीचता है। क्योंकि पशुओं के फिर भी कुछ अनुशासन होते हैं। हम प्रकाश की आशा तो कर सकते हैं लेकिन अभी तो प्रलय निकट दिखाई देता है। आपने विंस्टन चर्चिल की उक्ति को सही उद्धृत किया है। अविश्वास का अन्धकार चारों ओर है। नाव में एक दो छेद हों तो बन्द करने का भरोसा ह9 यहां तो नाव में पानी भर चुका है।
आपने निश्चय ही बहुत संवेदनशील एवं गंभीर विषय उठाया हैl लेकिन इस समस्या का हल क़ानून से नहीं निकल सकता हैl भपान से ही बच्चों को स्वतंत्रता एवं स्वच्छन्दता का अंतर समझा कर अपने आचरण पर नियंत्रण सीखना आवश्यक हैl
बहुत ही ज्वलंत विषय पर आपने लेख लिखा है।
कभी कभी तो ऐसा लगता है की शायद हमारी न्याय व्यवस्था में ही कोई कमी हैं । जितने नजदीक से आप इसे देखेंगे और परखेंगे उतनी ही आपको यह अपराधी फ्रेंडली लगेगी ।
शायद यही कारण है की अपराधियों के हौसले बुलंद है ।
और ज्यादा विस्तार से सोचने पर यकीनन आपको भी ऐसा लगेगा की किसी भी प्रकार के अपराध को रोकने के लिए कठोर कानून व्यवस्था का होना बहुत जरूरी है, शायद शरिया कानून जैसा । माना की वैसी व्यवस्था बर्बर हो सकती है, परंतु जिस प्रकार कांटे से ही कांटा निकाला जा सकता है उसी प्रकार बर्बर कानून व्यवस्था से ही बर्बर अपराधियों पर काबू पाया जा सकता है ।
प्रिय शरद
बहुत सटीक बात कही है। सच बोलने का अहंकार नहीं साहस होना ही चाहिए। गांधी की सरज़मीं गुजरात से साहस समाहित तुम्हारी लेखनी का अभिनंदन। सस्नेह
आपने इस चिर परिचीत समस्या पर जो लिखा है उसमे कारण और समाधान दोनो समाहित है। मेरी समझ मे इस समस्या के मूल मे है नैतिक शिक्षा का आभाव और पश्चिमी सभ्यता का अंध अनुसरण जिसने हमारी सांस्कृतिक विरासत को छिन्न भिन्न करके रख दिया है। यह आवश्यक है गया है कि इस पर काबू पाने हेतु सार्वजनिक रूप से कठोरतम सजा और पुरुष वर्ग पर लगाम लगे उनके शैशव काल से ही।
श्रद्धेय रत्ना जी !
कितनी पीड़ा से एक महिला होकर आपने यह संपादकीय लिखा होगा !
हमारे तो पहली बार बोलते हुए लफ़्ज़ बंद हुये हैं !
इस नृशंस विभत्स क्रूरतम
घिनौने केस पर
मुझे पहली बार लगा कि
क्या स्त्री एक राजनीतिक मुद्दा है ?
वोह संदेशखाली हो
या
डॉक्टर रेप केस !
‘यह बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ है’या ‘बेटी पढ़ाओ बेटी गवाँओं’ है ?
क्यों नहीं सागरिका घोष, जया बच्चन, प्रियंका चतुर्वेदी, प्रियंका बाड्रा , डिंपल यादव, सोनिया गाँधी, सुप्रिया सुले जैसी एक भी ज़िम्मेदार औरत उस हिंदू डॉक्टर बेटी के लिए सड़कों नहीं उतरीं !
कैसे वकीलों की फ़ौज को अपने परिवार की महिलाओं का चेहरा याद नहीं आया, हैरान हूँ !
सादर !
डॉ दीपेन्द्र कमथान
इस लेख में आज देश की एक ज्वलंत समस्या को उठाया है।वैसे ,जब जब बलात्कार की खबर आती है , दुष्कर्मी को कड़ी से कड़ी सजा देने की और पिडिता को न्याय दिलाने की मांग भी उठती रहती है।मानो दुष्कर्मी को फांसी मिल फांसी की सजा हो गई तो पीड़िता को न्याय मिल गया और बात खत्म हो गई।और हमारी न्याय व्यवस्था के क्या कहने। कोर्ट में केस 10/20 साल चलते रहेंगे।कुछ दिन पहले ही खबर आई अजमेर में ऐसे ही एक केस में 32 वर्ष पश्चात कोर्ट ने दरिंदों को सजा सुनाई।
हमारे देश में औसत 90 दुष्कर्म की घटनाएं हर रोज घटित होती है, छोटे-मोटे यौन उत्पीड़न छेड़छाड़ के मामले अनगिनत होते रहते हैं। ऐसे भी कई मामले होंगे जो रिपोर्ट ही नहीं होते। दुष्कर्म करने वालों में नेता, अभिनेता, शिक्षक,धर्मगुरु, सभी धर्म के, जाति के लोग तथा नाबालिक छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल होते हैं। कुछ नरपिशाच तो नन्ही नन्ही, दुधमुंही बालिका को भी अपनी हवस का शिकार बनाते है। तब मालूम पड़ता है कि यह घिनौनी मानसिकता किस हदतक समाजजीवन में गहराई से फैली है। हम गर्व करते हैं कि हमारी दुनिया में सबसे पुरानी महान संस्कृति है तथा हम देश को विश्व गुरु बनाने की आकांक्षा रखते हैं। क्या कारण है की देश में इतना गहरा नैतिक पतन देखने को मिल रहा है।क्या सिर्फ कड़ी सजा के प्रावधान से ही स्थिति बदलेगी। मेरा मानना है कि हमारे देश के कर्णधार, धर्मगुरु, समाज सुधारक, चिंतक इस बात पर विचार करें और देश के नागरिकों में नैतिकता और सद् चरित्र की पुनर्स्थापना के लिए उपाय सुझाए। नागरिकों में बचपन से ही सु संस्कार मिले इसके लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था , विशेष कर प्राथमिक शिक्षा को भी काफी बदलना पड़ेगा। यह बेहद गंभीर मसला है और राजनेताओं को इसमें सियासत करने से बचना चाहिए।
सुरेश कासलीवाल
आदरणीय कासलीवाल
आपने कितनी साफ़गोई से विषय की विस्तृत विवेचना करते हुए सारगर्भित तरीके से भारतीय जन मानस की मानसिकता एवं न्याय प्रणाली की सच्चाई को उजागर किया जो आतंकवादियों के हित में तो रात दो बजे भी ताले खोलकर न केवल बैठ जाती है, बल्कि कपिल सिब्बल, मनु सिंघवी जैसे कुटिल कपटी वकीलों के हित साधती नज़र आती है।
जबकि आम आदमी वर्षों दस्तक देता मिलेगा। मैं तो अब डॉक्टरों से भी निवेदन करूंगा कि जब इनके प्रतिनिधि इलाज के लिए आएं तो अगली तारीख दे दिया करें। सादर
शरद जी मैं आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ । अभी देश के लिए जब तक सुधार ना जाए एक हिटलर की आवश्यकता है। सुनने में बुरा लग सकता है लेकिन जिस तरह लोगों का नैतिक पतन हो रहा है उसके लिए ज़रूरी है।हमारे लचर क़ानून व्यवस्था की वजह से लोगों में डर समाप्त हो गया है।साथ ही हमारी शिक्षा में भी सुधार की ज़रूरत है जिससे बच्चे जीवन का नैतिक मूल्य समझें।
श्रीमान आपने जो प्रश्न उठाया है वह बिलकुल सटीक है इससे नेहरू जी की मानसिकता का पता चलता है की उनमें राष्ट्र के प्रति कोई लगाव नहीं था वह मातृभूमि को उपजाऊ और बंजर भूमि से तुलना कर रहे थे। लेकिन उनको पीएम बनाने में गांधी जी का पूर्ण सहयोग था। पता नहीं गोडसे की नींद पहले क्यों नहीं खुली? उनके आचरण को यदि सूचीबद्ध करें तो ये सिद्ध होता है कि क्या वह भी हिंदुस्तान को इस्लामिक देश बनाना चाहते थे? क्योंकि उन्होंने बहुत सारे क़ानून हिंदुओं के ख़िलाफ़ बनाएँ हैं । और उनके हित में एक भी नहीं?
ज्वलंत एवं महत्वपूर्ण विषय पर आपने बेबाक़ लेखनी चलाई हैँ रत्ना जी। साधुवाद । जब तक हम इस वीभत्स कृत्य के विरोध में सड़कों पर मोमबत्तियाँ जलाते हैं तब तक देश के किसी दूसरे कोने से फिर से बलात्कार की कोई खबर आ जाती है। जब तक नियम कठोर नहीं होंगे पता नहीं कितनी गुमनाम युवतियाँ इस कुत्सित मानसिकता का शिकार होती रहेंगी। कठोर नियमों के साथ, शिक्षा में बदलाव, नैतिक शिक्षा और युवा पीढ़ी को सुसंस्कारित करना उनकी मानसिकता को बदलना बहुत आवश्यक है। इसमें सभी की भागीदारी हो तभी सम्भव हो पाएगा ।
हर बार की तरह आपके सम्पादकीय ने प्रभावित किया है। अशेष शुभकामनाएँ । सुदर्शन रत्नाकर
अशोक मिश्रा ५/९/२४
आदरणीय आपने जो मुद्दा उठाया है वह हमारे नैतिक पतन का एक उदाहरण है। साथ ही बच्चों को मिलने वाले घरेलू संस्कार और हमारी शिक्षा प्रणाली भी ज़िम्मेवार है। यही नहीं आज कल जो सोशल मीडिया परोस रही ही उसका भी बहुत बड़ा हाथ है। लेकिन यही तो फर्क हमे नई पीढ़ी को समझाना है कि समाज की गंदगी तो एक दिन में ख़त्म होने से रही लेकिन उन्हें क्या चुनना है क्या नहीं। ठीक वैसे ही जैसे चंदन के पेड़ में साँप लिपटे रहने से भी चंदन की सुगंध में कोई फर्क नहीं पड़ता।
रत्नाकर जी आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ इसके दो हो हल है एक प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में सुधार और कठोर दंड। इसके बावजूद भी हो सकता है कि लोग कुकर्म करते रहें लेकिन धीरे धीरे ये बंद अवश्य हो जाएगा।
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