एक साधु ने अपने आश्रम के अंत:वासियों को जगत् के विराट विद्यालय में अध्ययन के लिए यात्रा को भेजा था। समय पूरा होने पर उनमें से एक को छोड़कर अन्य लौट आए थे। उनके ज्ञानार्जन और उपलब्धियों को देखकर गुरु बहुत प्रसन्न हुआ। वे बहुत कुछ सीखकर वापस आए थे। फिर अंत में पीछे छूट गया युवक भी लौट आया। गुरु ने उससे कहा, “निश्चय ही तुम सबसे बाद में लौटे हो, इसलिए सर्वाधिक सीखकर लौटे होगे।”
उस युवक ने कहा, “मैं कुछ सीखकर नहीं लौटा हूँ, उलटा जो आपने सिखाया था, वह भी भूल आया हूँ।” इससे अधिक निराशाजनक उत्तर और क्या हो सकता था?
फिर एक दिन वह युवक गुरु की मालिश कर रहा था। गुरु की पीठ को मलते हुए उसने स्वगत ही कहा, “मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है।” गुरु ने सुना, तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। निश्चय ही वे शब्द उनसे ही कहे गए थे। उनके ही सुंदर शरीर को उसने मंदिर कहा था। गुरु के क्रोध को देखकर वह युवक हँसने लगा। यह ऐसा था, जैसे कोई जलती अग्नि पर और घी डाल दे। गुरु ने उसे आश्रम से अलग कर दिया।
फिर एक सुबह जब गुरु अपने धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहे थे, वह युवक अनायास कहीं से आकर पास बैठ गया। वह बैठा रहा, गुरु पढ़ते रहे। तभी एक जंगली मधुमक्खी कक्ष में आकर बाहर जाने का मार्ग खोजने लगी। द्वार तो खुला ही था – वही द्वार, जिससे वह भीतर आई थी; पर वह बिलकुल अँधी होकर बंद खिड़की से निकलने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी। उसकी भिनभिनाहट मंदिर के सन्नाटे में गूँज रही थी। उस युवक ने खड़े होकर जोर से उस मधुमक्खी से कहा, “ओ, नासमझ! वह द्वार नहीं, दीवार है। रुक और पीछे देख, जहाँ से तेरा आना हुआ है, द्वार वही है।”
मधुमक्खी ने तो नहीं, पर गुरु ने ये शब्द अवश्य सुने और उसे द्वार मिल गया। उन्होंने युवक की आँखों में पहली बार देखा। वह, वह नहीं था, जो यात्रा पर गया था। ये आँखें दूसरी ही थीं। गुरु ने उस दिन जाना कि वह जो सीखकर आया है, वह कोई साधारण सीखना नहीं है।
वह सीखकर नहीं, कुछ जानकर आया था।
गुरु ने उससे कहा, “मैं आज जान रहा हूँ कि मेरा मंदिर भगवान से खाली है और मैं आज जान रहा हूँ कि मैं आज तक दीवार से ही सिर मारता रहा; पर मुझे द्वार नहीं मिला। लेकिन अब मैं द्वार को पाने के लिए क्या करूँ? क्या करूँ कि मेरा मंदिर भगवान से खाली न रहे?”
उस युवक ने कहा, “भगवान को चाहते हो, तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं भरा है, वही भगवान से खाली है। जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान से भरा हुआ था। और इस सत्य तक द्वार पाना चाहते हो, तो वही करो, जो वह अब मधुमक्खी कर रही है।”
गुरु ने देखा मधुमक्खी अब कुछ नहीं कर रही है। वह दीवार पर बैठी है और बस बैठी है। उसने समझा, वह जागा। जैसे अँधेरे में बिजली कौंध गई हो, ऐसा उसने जाना और उसने देखा कि मधुमक्खी द्वार से बाहर जा रही है।
यह कथा मेरा पूरा संदेश है। यही मैं कह रहा हूँ। भगवान को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है, तो द्वार मिल जाता है। शांत और शून्य चित्त ही द्वार है। उस शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण है। वह आमंत्रण धर्म का ही है। उस आमंत्रण को स्वीकार कर लेना ही धार्मिक होना है। (ओशो के पत्रों के संकलन ‘क्रांतिबीज’ से) ■ साभार हिन्दी ज़ेन से
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