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Sep 1, 2024

आलेखः हिन्दी के विकास में ख़तरे

  - सीताराम गुप्ता

हिन्दी हमारी संस्कृति की पहचान व वाहक है, इसमें संदेह नहीं; लेकिन हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है अथवा नहीं, यह विवाद का मुद्दा है। संवैधानिक दृष्टि से हिन्दी भाषा आज हमारे देश की राजभाषा तो है; लेकिन राष्ट्रभाषा नहीं। हम हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की माँग को लेकर काफी उत्साहित रहते हैं और इसके लिए संघर्ष भी कम नहीं करते; लेकिन समस्या ये है कि हिन्दी के उन्नयन अथवा विकास के संदर्भ में हमारी कथनी व करनी में दिन-रात का अंतर है। हम हिन्दी की बात ज़्यादा करते हैं; हिन्दी में अथवा हिन्दी के बारे में सही बात कम करते हैं। कुछ लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि दुनिया की सभी भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं और देवनागरी ही एक ऐसी लिपि है, जो पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि है, जो पूर्ण सत्य नहीं है। कुछ महाशय देवनागरी के वर्णिक लिपि होने को ही एक बड़ी उपलब्धि मानकर इसकी प्रशंसा में लगे रहते हैं; लेकिन क्या सिर्फ संस्कृत व हिन्दी भाषा व देवनागरी लिपि की शान में कसीदे पढ़ने से हिन्दी का वास्तविक विकास संभव है?

     जहाँ तक समय, श्रम व संसाधनों को लगाने की बात है, हिन्दी के लिए हमारे पास न तो समय ही है ओर न इसके लिए हम विशेष परिश्रम करने को ही तैयार हैं। हिन्दी के उन्नयन व विकास के लिए व्यक्तिगत स्तर पर संसाधनों को लगाने अथवा पैसा ख़र्च करने की बात करना तो बेमानी ही होगा। अंग्रेज़ी भाषा में दक्षता प्राप्त करने के लिए इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स करते हैं, अच्छी बात है; लेकिन हिन्दी के लिए थोड़ा-सा भी अतिरिक्त प्रयास क्यों नहीं करते? अंग्रेज़ी भाषा में न केवल सही स्पैलिंग लिखने के लिए पूरा प्रयास करते हैं; अपितु सही उच्चारण के साथ बोलने के अभ्यास में भी कोई कसर नहीं रख छोड़ते। फिर हिन्दी के प्रति ऐसी उपेक्षा व दोगलापन क्यों? क्या इसीलिए कि ये मातृभाषा के रूप में हमें विरासत में बिना किसी प्रयास के प्राप्त हो गई है? ऐसी स्थिति में केवल इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दे देने से इसका विकास व राष्ट्रभाषा के पद पर इसकी प्रतिष्ठा बने रहने में संदेह है। हिन्दी के लिए समय और श्रम ही नहीं; इसमें निवेश करने की भी ज़रूरत है।

 अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों की अंग्रेज़ी की वर्तनी व उच्चारण दुरुस्त करवाने के लिए पूरी तरह से तत्पर व सतर्क रहते हैं। कितने माता-पिता हैं, जो अपने बच्चों की हिन्दी की वर्तनी (स्पैलिंग) व उच्चारण दुरुस्त करवाने के लिए कोशिश करते हैं? नगण्य अथवा बहुत कम। बच्चों के पैदा होते ही उन्हें अंग्रेज़ी गीत रटवाना शुरू कर देते हैं? हिन्दी के शिशुगीत अथवा कविताएँ क्यों नहीं? अंग्रेज़ी पढ़ाइए और खूब पढ़ाइए; पर हिन्दी की क़ीमत पर नहीं। हिन्दी भी ख़ूब पढ़ने व पढ़ाने की ज़रूरत है। हम सब लोगों के घरों में अंग्रेज़ी के मोटे-मोटे कई शब्दकोश, थिसॉरस व एंसाइक्लोपीडिया मिलेंगे; लेकिन हममें से कितने लोग हैं; जिन्होंने अपने बच्चों के लिए हिन्दी के शब्दकोश, थिसॉरस अथवा विश्वकोश या ज्ञानकोश लाकर दिए हैं? क्या हिन्दीवालों के लिए हिन्दी के शब्दकोशों का महत्त्व नहीं? हमें चाहिए कि हम अपने बच्चों के लिए न केवल अंग्रेज़ी-हिन्दी के अच्छे शब्दकोश लाकर दें; अपितु हिन्दी व हिन्दी-अंग्रेज़ी द्विभाषी कोश भी अवश्य लाकर दें।  

     एक बार एक संस्कृताचार्य से मिलने जाना हुआ। हिन्दी व संस्कृत के मूर्द्धन्य विद्वान हैं। उनके पुत्र की एक कैमिस्ट शॉप है। उनकी दुकान पर मुख्य बोर्ड के सामने एक छोटे बोर्ड पर रेड क्रॉस का चिह्न बना था और लिखा था ‘दवाईयाँ’। यह सही वर्तनी नहीं है। सही वर्तनी ‘दवाईयाँ’ नहीं ‘दवाइयाँ’ है। मैंने जब संस्कृताचार्य महोदय का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया, तो उन्होंने कहा, ‘‘लोगों को क्या फ़र्क़ पड़ता है इससे?’’ 

‘‘लेकिन इसका भाषा के विकास पर तो ग़लत असर पड़ता है न,’’ मैंने प्रतिवाद किया। 

‘‘कौन ध्यान देता है इन छोटी-मोटी बातों पर?’’ वे पूरी तरह से डिफेंसिव थे। क्या हिन्दी भाषा को सही-सही लिखने के लिए ज़्यादा मेहनत लगती है या कुछ ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है? हमें चाहिए कि सार्वजनिक स्थलों पर हिन्दी भाषा की वर्तनी की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें।

एक साधारण- सा नियम है कि जिस एकवचन ईकारांत शब्द के अंत में दीर्घ ई लगती है (बड़ी ई की मात्रा लगती है) बहुवचन में वह ह्रस्व हो जाती है, अर्थात् उसमें छोटी इ की मात्रा लगती है, जैसे- नदी-नदियाँ, रोटी-रोटियाँ, सदी-सदियाँ, कमी-कमियाँ, मिठाई-मिठाइयाँ, लड़ाई-लड़ाइयाँ व दवाई-दवाइयाँ आदि। इसी शृंखला में एक शब्द शृंखला अथवा शृ से प्रारंभ होने वाले कुछ अन्य शब्द हैं जो हम प्रायः श्रृ से लिखते हैं जैसे श्रृंग, श्रृंगार, श्रृगाल आदि। शृ एक संयुक्त वर्ण है, जो श् एवं ऋ के मेल से बनता है। जब हम श् एवं र को संयुक्त रूप से लिखते हैं, तो उसका रूप श्र होता है, जैसे- श्रद्धा, श्राद्ध, श्रावण, श्रीमान, श्रीमती श्रेणी आदि। श् में या तो ऋ जोड़कर संयुक्त वर्ण शृ बनाएँगे या श् में र जोड़कर श्र बनाएँगे। श् में र एवं ऋ एक साथ कैसे जोड़ सकते हैं? अतः श्रृंग, श्रृंगार, श्रृगाल आदि सभी वर्तनियाँ अशुद्ध हैं। इनकी सही वर्तनियाँ शृंग, शृंगार व शृगाल ही लिखनी होंगी।

     एक शब्द है- उज्ज्वल जिसे  अधिकतर व्यक्ति उज्जवल लिखते हैं; क्योंकि अधिकतर ऐसे शब्दों में, जहाँ दो ध्वनियाँ एक साथ आती हैं; प्रायः पहली ध्वनि स्वर-रहित होती है और बाद वाली सस्वर जैसे बच्चन, चप्पल, खद्दर, चद्दर, उद्देश्य, लट्टू, गुड्डू आदि; लेकिन उज्ज्वल में ऐसा नहीं है। इसमें दोनों ही ‘ज’ न केवल स्वररहित हैं; अपितु साथ-साथ भी आते हैं। इसका यह रूप संधि के नियम के प्रभाव से बना है। उत् एवं ज्वल की जब संधि की गई, तो उत् में जो त् की ध्वनि है, वह ज्वल में ज् की ध्वनि के प्रभाव से ज् हो जाती है और संधि से नया शब्द बनता है उज्ज्वल। कुछ लोग उज्ज्वल तो ठीक लिखते हैं; लेकिन जिन शब्दों में भी ज्वल आता है, उन सभी को भी ज्ज् से लिखते हैं- जैसे प्रज्ज्वल। यहाँ प्र एवं ज्वल के मेल से नया शब्द प्रज्वल बनेगा, न कि प्रज्ज्वल। प्रज्ज्वल अथवा प्रज्ज्वलित, दोनों ही अशुद्ध हैं। सही शब्द हैं प्रज्वल व प्रज्वलित। 

भाषा के विकास पर इन छोटी-छोटी अशुद्धियों का बहुत ग़लत असर पड़ता है। यदि आप सर्वेक्षण करें, तो पाएँगे कि दवाविक्रेताओं की दुकान पर दवाइयाँ शब्द प्रायः ग़लत लिखा मिलेगा। मैंने तो आज तक एक भी ऐसी कैमिस्ट शॉप नहीं देखी जिस पर दवाइयाँ शब्द ठीक लिखा हो। क्या ये बहुत कठिन शब्द है? बिलकुल नहीं। यदि ये त्रुटियाँ सार्वजनिक स्थानों पर दिखलाई देंगी, तो पूरे समाज की भाषा विकृत होने का खतरा बना रहता है। हम प्रायः काग़ज़ पर छपे या किसी बोर्ड पर लिखे अक्षरों अथवा शब्दों को सही मान लेते हैं, अतः ऐसे में कोई भी अशुद्धि पूरे समाज को प्रभावित करेगी। हिन्दी के विकास से जुड़ी सरकारी-ग़ैरसरकारी संस्थाओं व अकादमियों को भी इस संबंध में अपेक्षित क़दम उठाने चाहिए। आज सोशल मीडिया भी भाषाओं विशेष रूप से हिन्दी के विकास में बहुत बड़ा ख़तरा बन गया है। सोशल मीडिया पर जिस प्रकार की सामग्री व भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, उससे बचना भी अनिवार्य है। ■

सम्पर्कः ए.डी. 106 सी., पीतम पुरा, दिल्ली- 110034, मो. 9555622323, Email :  srgupta54@yahoo.co.in


1 comment:

Anonymous said...

छोटी-छोटी अशुद्धियों की ओर ध्यान देना आवश्यक हैं नहीं तो वही प्रचलित होता जाती हैं ।महत्वपूर्ण आलेख ।सुदर्शन रत्नाकर