- रश्मि विभा त्रिपाठी
‘गाएगी सदी’ (हाइकु- संग्रह) : डॉ. सुरंगमा यादव, पृष्ठ: 112, मूल्य: 320 रुपये, आईएसबीएन: 978-81-968022-9-5, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे- 19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059
जिस साहित्य में पावन भावों के चन्दन की चौकी पर आदर्शों की प्राण प्रतिष्ठा हो, आशा का घट स्थापन हो, अमंगल के नाश का आह्वान हो, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की स्तुति हो, मन्थन का मंत्रोच्चार हो, जागृति की जोत जगे, नैतिकता का नीराजन हो और पूरे विश्व के कल्याण की प्रार्थना हो, रचना रचने के व्रत को धारण करने से पूर्व लिया गया यह शुभ संकल्प ही संवेदना है।
डॉ. सुरंगमा यादव पुस्तक ने भूमिका में काव्य- संवेदना का महत्त्व रेखांकित किया है- “जीवन हो या काव्य, संवेदनायुक्त होने पर ही सार्थक है। संवेदनायुक्त काव्य ही जनवादी काव्य कहलाता है।”
उनकी इसी संवेदना का राग है- ‘गाएगी सदी’ हाइकु- संग्रह। इस संग्रह के पाँच उपशीर्षक हैं- ढाई आखर, वक्त की धूप, हरित कथा, जग की रीत एवं सुधियों की सुरभि।
जगत् एक स्वर्णमृग के समान है, जिसकी छलना में व्यक्ति उम्रभर इधर- उधर भटकाता रहता है और अपने ही भीतर की छिपी हुई कस्तूरी को कभी ढूँढ नहीं पाता।
ढूँढी कस्तूरी/ निज अंतर छोड़/ दुनिया पूरी। (पृष्ठ 17)
जीवन की माला में जहाँ सुख के मोती की चमक मन को खूब जुड़ाती है, वहीं दुख के मोती पर नजर पड़ते ही उसकी चौंध मन को दुखाती है, रुलाती है कि मन टूटकर बिखर जाता है। बिखराव से बचाने के लिए डॉ. सुरंगमा यादव धीरज के धागे में मन को पिरोने की युक्ति बताती हैं-
जब भी रोया/ धीरज के धागे में/ मन पिरोया। (पृष्ठ 17)
जीवन भी रेत पर लिखे नाम की तरह है जिसका अस्तित्व केवल तभी तक है, जब तक कोई लहर उस तक नहीं आती! उस लहर के आने तक भवसागर के तट पर जीवन को जीभर जी लें।
रुक लहर/ रेत पर लिखा नाम/ देखूँ जीभर। (पृष्ठ 17)
तृप्ति का बादल उमड़ उमड़कर रोम- रोम को पुलकित करता है और बरसकर तपते मन को ठहराव देता है-
तुम्हें जो पाया/ झील- सा ठहराव/ मन में आया। पृष्ठ (18)
हम प्राय: अपनी सोच के साँचे में जीवन को ढालने का प्रयास करते हैं, परन्तु जीवन उस साँचे में पूरी तरह कभी नहीं ढल पाता!
कितना सींचे/ पत्थरों पर कब/ उगे बगीचे। (पृष्ठ 21)
कवयित्री ने चाँद का मानवीकरण एक नए ढंग से करके हाइकु की सुन्दरता में चार चाँद लगा दिए हैं। नवीन भावबोध के इस हाइकु की चमक देखिए-
पूनो को देख/ दे रहा क्लोजअप/ चाँद सलोना। (पृष्ठ 23)
इस क्लोजअप शब्द के प्रयोग से चाँद के फोटोजेनिक फेस पर अपनी अंतर्दृष्टि का कैमरा फोकस कर पूनो की रात में बादल की ओट से निकलकर आए चाँद का एक सुन्दर चित्र सुरंगमा जी ने क्लिक किया है।
मन की पीर/ संवेदना की ऊष्मा/ मिली, पिघली। (पृष्ठ 29)
संवेदना की ऊष्मा मिलते ही मन की पीर पिघल जाती है। आज इसी संवेदना के अभाव में जीव जगत जल रहा है।
धूप जब ढलती है, तो झुलसे हुए तन- मन को साँझ की बेला में राहत मिलती है; लेकिन वक्त की यह धूप जब ढलती है तो संवेदनहीनता की काली छाया आकर डराने लगती है-
साँझ की बेला/ नीड़ निहारे पंक्षी/ बैठ अकेला। (पृष्ठ 31)
जीवन की साँझ में मनुष्य पक्षी की तरह अकेला बैठा अपना नीड़ ताकता रह जाता है और जिनके लिए तिनका- तिनका चुनकर नीड़ बनाया था, वे चूजे पंख निकलते ही उसे छोड़कर उड़कर दूर चले जाते हैं।
आज के नारी सशक्तीकरण के युग में नारी की वास्तविक स्थिति का आंकलन कवयित्री ने अपने हाइकु में किया है-
चाँद को छुआ/ भू पे नारी संघर्ष/ कम न हुआ। (पृष्ठ 40)
दुर्भाग्य यह है कि धरती पर आज भी नारी का शोषण जारी है-
नन्ही- सी कली/ वासना की सेज पे/ गई मसली। (पृष्ठ 32)
नारी की स्थिति में आज भी कोई बदलाव नहीं! उसका जीवन पीड़ा का एक शपथ- पत्र है-
नारी जीवन/ एक शपथ-पत्र/ पीड़ा के नाम। (पृष्ठ 39)
इसलिए कवयित्री का नारी जाति के लिए आह्वान है-
नारी कहो न!/ क्या लता ही रहोगी?/ वृक्ष बनो ना। (पृष्ठ 42)
वह नारी को वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी होने वाली लता बनते नहीं देखना चाहतीं बल्कि वे चाहती हैं कि नारी स्वयं एक मजबूत वृक्ष बने, जिसकी जड़ें कोई हिला न पाए।
कवयित्री ने अपने हाइकु में अपने पर्यावरण के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की है। लोलुप दृष्टि के वनों पर गहराने से वृष्टि लगातार घट रही है। इसका परिणाम कितना विनाशकारी होगा?
घटती वृष्टि/ वनों पे गहराई/ लोलुप दृष्टि। (पृष्ठ 44)
पाँव पसारे/ कंक्रीट आ पहुँचा/ वन के द्वारे। (पृष्ठ 59)
कंक्रीट अपने पाँव पसारते हुए वन के द्वारे तक पहुँच गया है। इसे देखकर पंक्षी व्यथित हैं। पंक्षी की व्यथा बताते अत्यंत मार्मिक हाइकु-
लेकर तृण/ कंक्रीट के वन में/ भटकें पंछी। (पृष्ठ 45)
खंभे से पूछे/ हाँफता हुआ पक्षी/ छाँव का पता। (पृष्ठ 49)
उन्हें घने कोहरे में भी सर्दी की धूप के व्यवहार में अनियमितता दिखी है। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने लिखा है कि सर्दी की धूप एक कामचोर कर्मचारी की तरह है-
सर्दी की धूप/ उपस्थिति लगाके/ चली झट से। (पृष्ठ 46)
सूरज क्वारंटीन है और उसका अपने स्वभाव के विपरीत व्यवहार है-
नभ में मेघ/ क्वारंटीन सूरज/ हुआ निस्तेज। (पृष्ठ 54)
बादलों को उन्होंने नभ का सर्वे करते हुए पाया है-
बादल छाए/ नभ का सर्वे कर/ वापस चले। (पृष्ठ 58)
जीवन के तूफान से लड़ने के लिए मनुष्य को सदैव एक वृक्ष की भाँति डटकर खड़े होना चाहिए और इस तूफान में अपनी जिजीविषा का दीप कभी बुझने नहीं देना चाहिए क्योंकि जिजीविषा वह वृक्ष है जिसके ठूँठ होने पर भी उसमें फिर से नई कोंपलें निकल आती हैं और वह हरा हो जाता है-
वृक्ष हैं वही/ जो तूफान से लड़े/ आज हैं खड़े (पृष्ठ 54)
जिजीविषाएँ/ ठूँठ पर कोंपल/ निकल आए। (पृष्ठ 71)
आज के युग में रिश्तों में कुछ बचा है, तो केवल संवादहीनता, उदासीनता, तनाव और स्वार्थ-
एक ही घर/ छत और फर्श- सी/ दूरी हममें। (पृष्ठ 33)
संवादहीनता में हाइकुकार ने एक धीमे जहर की पुष्टि की है जो धीरे- धीरे रिश्तों का दम घोंट रहा है। उदासीनता ने रिश्तों की तरलता को सोखकर उन्हें बेजान बना दिया वृद्धों के प्रति नई पीढ़ी की उदासीनता इस हाइकु में झलकती है-
वृद्ध लाचार/ अपनों की उपेक्षा/ देह भी भार। (पृष्ठ 33)
धुँधली आँखें/ कर गया किनारा/ आँख का तारा। (पृष्ठ 34)
भाव, भाषा, छन्द की कसौटी पर कसे बिम्ब योजना, सादृश्य विधान एवं प्रतीकात्मक शैली में संवेदना के स्वर इन हाइकु की शक्ति है। ‘गाएगी सदी’ में संवेदना के ये गीत निस्संदेह सुर, लय, ताल से प्रबुद्ध पाठक की भावनाओं को झंकृत करेंगे। ■
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