सनातन संस्कृति का मूल मन्त्र है ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जहाँ विविध भाषाएँ धर्म और संस्कृतियाँ एक परिवार की भांति समाविष्ट होकर पुष्ट होती हैं, और सह-अस्तित्व में ही अपनी परिणति पाती हैं । भारत बहुभाषी राष्ट्र है जहाँ औदार्य और सहिष्णुता का गुण आत्मसात् कर भाषायी समन्वय सद्भावना पूरित समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करता है । भारोपीय भाषाओं के इतिहास को अगर हम देखें, तो इनका मूल स्रोत संस्कृत में ही मिलेगा और भाषाओं का पारस्परिक सहकार केवल उनके शब्द- भंडार को ही पुष्ट नहीं करता; बल्कि उन्हें विस्तार भी देता है । हमारे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा हिन्दी भी ऐसी समावेशी भाषा है, जिसने प्राकृत तत्सम, तद्भव, प्रांतीय, देशी, विदेशी सभी शब्दों को अपनाकर अपना क्षितिज विस्तृत कर लिया है; क्योंकि यह एक अविवादित सत्य हैं कि हिंदी स्थानीय और प्रांतीय भाषाओं को साथ लेकर ही वैश्विक भाषा बन सकती है ।
आज यह एक गंभीर सामयिक चिंतन का विषय है कि भाषायी सहकार में वर्चस्वता के विषैले बीज बो दिए जा रहे है। भाषायी विरोध तो अपरिपक्व मानसिकता का ही परिचायक है । कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आज हमारी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने में भाषायी सहकार अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है । हिन्दी को राष्ट्रीय फलक से ऊपर उठाकर वैश्विक क्षितिज पर स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण मानदंड भाषायी समन्वय को माना जाना चाहिए ।
अगर साहित्य की बात करें, तो साहित्य समाज की वैचारिकता से प्रभावित भी होता है और उसे प्रभावित भी करता है । समाज से दिशा भी पाता है और उसे दिशा भी देता है । इसी कारण उसे समाज का दर्पण माना जाता है । और पत्रकारिता- पत्रकारिता का लक्ष्य - सच से दुनिया को रूबरु कराना है । साहित्य और पत्रकारिता में एक मूलभूत अंतर यह है कि साहित्य भले ही कितना भी यथार्थवादी क्यों न हो, वह यथार्थ की तर्ज पर स्थापित सामाजिक और पारंपरिक मूल्यों को विस्थापित करने का जोखिम कभी नहीं उठा सकता । इस तरह से वह तो यथार्थवादी होता हुआ भी आदर्शों की नींव पर ही भवन निर्माण करता है और जहाँ तक पत्रकारिता का सवाल है, वे उस सच को परोसते है, जो या तो घट चुका होता है या संभावित होता है और वह भी यथासंभव ईमानदारी के साथ । हाँ, जब ध्येय विस्तार है, तो आम जनता की ज़ुबान तक पहुँचना अवश्यम्भावी बन जाता है । स्थानीय बोध अर्थात् प्रांत विशेष की भाषा के शब्दों का सम्मिश्रण ! वे शब्द, जो उस बोली विशेष के लोगों में प्रचलित हैं । भाषा में लचीलापन एक अनिवार्य गुण है और हिन्दी तो ऐसी भाषा है, जिसने सभी भाषाओं और बोलियों को अपने में समा लिया है ।यहाँ ‘स्कूल’ शब्द भी उसी तरह व्यवहृत है, जैसे विद्यालय शब्द और पाठशाला शब्द । आज देखा जाए, तो ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में हर वर्ष सैकड़ों हिन्दी के शब्द जोड़े जा रहे हैं, तो हिन्दी का अंग्रेज़ी से भी विरोध क्यों ? हाँ वर्चस्व की सनक अवश्य नकारात्मक परिणाम दे सकती है; लेकिन समावेशी सोच का स्वागत हमेशा होना चाहिए ! जो जितना मूल से जुड़ा रहेगा, उतना पुष्पित और पल्लवित होगा। भाषा की सर्वग्राह्यता उसे जीवंत बनाए रखती है। हिंदी की महानदी में प्रांतीय भाषाओं की उप-नदियाँ अनादि काल से मिलती आ रही हैं; लेकिन यह भी एक सच है कि जब तक भाषा को जीविका का माध्यम न बनाया जाए, तो वह धीरे- धीरे वह विलुप्त होने के कगार पर चली जाती है और यही अंजाम हुआ कई भारतीय भाषाओं का । ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, व्यवहार, साहित्य, पत्रकारिता में स्थानीय भाषा का प्रयोग राष्ट्र की असीमित प्रगति का सोपान बन सकता है ।
एक ओर यह भी सत्य हैं कि आज अंग्रेजी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीविकोपार्जन की मान्य प्रचलित भाषा है, जिसने देशी गुणवत्ता को निर्यात करने में घातक भूमिका निभाई है । हाँ, हर राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी राष्ट्रभाषा होती है, होनी चाहिए; लेकिन दुर्भाग्यवश, कारण कुछ भी हो, आज तक हिन्दी हमारी राष्ट्र की घोषित राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर पाई है । जब तक यह क़दम न उठाया जाएगा, इससे पहले राष्ट्रीय स्तर पर मान्य न बनाया जाएगा, इसकी दशा- दिशा में सुधार न किया जाएगा, तो यह केवल धीरे- धीरे एक सम्पर्क भाषा मात्र बनकर रह जाएगी । और देखा जाए, तो प्रशासनिक भाषा, जो राजभाषा के रूप में आज सरकारी कार्यालयों में व्यवह्रत है, उसे दुर्भाग्य से अधिक से अधिक दुरूह बना दिया गया है, जो सामान्य जन तो क्या, शिक्षित बुद्धिजीवियों के लिए भी अग्राह्य बनकर रह गई है । जब भाषा की बोधगम्यता बाधित हो जाती है, तो उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है । आज वैश्विक बाज़ार की अवधारणा ने भाषायी सौहार्द को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
भारत एक सशक्त संभावित बाज़ार है । आज हिन्दी को अपनाना बहु राष्ट्रीय कम्पनियों की अनिवार्यता बन गई है। उसी प्रकार स्थानीय पहुँच हर व्यापारिक प्रतिष्ठान की सफलता का रहस्य टिका हुआ है । आज बड़े से बड़े व्यापारिक समुदाय अपने उत्पाद की खपत बढ़ाने के लिए आम जन की आर्थिकी को केंद्र में रखकर उत्पाद संकुलित कर रहे हैं । जो जितना आम जन तक पहुँचेगा, वह उतनी सफलता पाएगा । अब क्षेत्र जो भी हो, आम व्यक्ति तक पहुँच अवश्यंभावी है ।
साहित्य, व्यापार और पत्रकारिता भी इसका अपवाद नहीं । कथ्य संप्रेषणीय तभी होता है, जब अपनी बोली में बोला गया हो । शिक्षा तभी सुलभ ग्राह्य हो जाती है, जब मातृभाषा में हो । साहित्य तभी बोधगम्य होगा, जब स्थानीय भाषा में हो । इस तथ्य को जिसने जितना ग्रहण किया, उतनी सफलता पाई है। इसलिए साहित्य हो या पत्रकारिता, स्थानीय भाषा उसे लोकप्रियता ही नहीं देती; बल्कि व्यापक विस्तार भी देती है । ■
सम्पर्कः सह-आचार्य, आसन महाविद्यालय, चेन्नई
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