7 अक्टूबर- जन्म दिवस: बेगम अख्तर की खनकती यादें
- प्रताप
सिंह राठौर
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे,
तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे
जिन चुनिन्दा ग़ज़ल गायक- गायिकाओं ने भारत में ग़ज़ल गायन
की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए बहुत शोहरत पाई, उनमें पद्यभूषण की उपाधि से विभूषित बेगम
अख्तर का नाम बड़े ही सम्मान से साथ लिया जाता है। लगभग 50 वर्षों
तक गायन के द्वारा वे अपार जन समूह का
मनोरंजन करती रहीं। बेगम अख्तर के गले में वह हुनर था कि वे महफिल में बैठे हजारों
का मन मोह लेती थीं। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि उनके अनगिनत प्रशंसकों में से कुछ
मर्द बेगम का भी मन मोह लें। जब तक आजाद परी की तरह अख्तरी बाई फैजाबादी कभी इस
डार पर तो कभी उस डार पर बैठ कर अपनी सुरीली तान छेड़ती रहीं, उनकी
ख्याति दिन दूरी रात चौगुनी बढ़ती गई।
7
अक्टूबर 1914
को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में जन्म लेने के कारण वे गायन क्षेत्र में
अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से मशहूर हुई। अता मोहम्मद खाँ तथा अब्दुल वहीद खाँ से
संगीत शिक्षा प्राप्त की। बाद में झंडे खाँ उनके गुरु बने नरगिस की संगीत प्रवीण
माँ जद्दन बाई से प्रभावित हो कर ठुमरी गायन की ओर आकर्षित हुई। परिवार बिखरा तो
वे कलकत्ता पहुँच गई। कड़ी दिनचर्या और सतत कठिन साधना रंग लाई। पहली बार जब बिहार
भूकंप पीडि़त सहायता कोष के लिए आयोजित कार्यक्रम में एकत्र अपार जन समूह के सामने
उपस्थित हुई, तो
घबरा गई; लेकिन
हिम्मत करके आलाप लेते हुए- तूने बुते हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई, तकता है
तेरी सूरत हर एक तमाशाई .... ग़ज़ल पेश की तो वाह-वाह और तालियों से जनता ने भरपूर
स्वागत किया। उनके गायन से प्रभावित होकर श्रोताओं के हुजूम से उठकर आने वाली
श्रीमती सरोजिनी नायडू ने प्रशंसा करते हुए उन्हें खादी की साड़ी भेंट की। कठोर और
नियमित संगीत साधना से उनका आत्मविश्वास बढ़ता रहा। उनके गायन की लोकप्रियता से
प्रभावित होकर मेगाफोन रिकार्ड कंपनी ने उनका पहला रेकार्ड 'वह असीरे-
बला हूँ मैं...’
जारी किया। अख्तरी बाई के गायन-गज़ल, दादरा एवं
ठुमरी के अनेकों रिकार्ड मेगाफोन कंपनी ने जारी किए जो बहुत मशहूर हुए। बाद में
उन्होंने बहजाद लखनवी की ग़ज़ल 'दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, वर्ना
तकदीर कहीं तमाशा न बना दे...’ गाई।
इसकी रिकार्डिंग में उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ ने सारंगी पर संगत की थी। मेगाफोन
ने दुर्गा पूजा के अवसर पर कलकत्ता में जब इस रिकार्ड को प्रस्तुत किया तो इसने
बिक्री के सारे रिकार्ड तोड़ दिए और इसे प्लेटिनम डिस्क की पदवी मिली। अख्तरी बाई
फैजाबादी का नाम संगीत प्रेमियों की जबान पर चढ़ गया। यहीं से अख्तरी बाई सफलता की
सीढिय़ाँ तेजी से चढऩे लगीं। थियेटर और सिनेमा के साथ-साथ राज दरबारों में मुजरा
करके धन-दौलत और हीरे जवाहरात से आभूषित होने लगीं। साथ ही सिगरेट और शराब भी उनकी
जीवनचर्या के अनिवार्य अंग बन गए।
अख्तरी बाई के सुरीले गले ने थियेटर वालों को भी आकर्षित
किया और कलकत्ता के कोरिन्थियन थियेटर ने उन्हें 300/- रुपए
प्रतिमाह पर अनुबन्धित कर लिया। अख्तरी बाई पहली बार 'नई दुल्हन’ नाटक में
एक परी के रोल में प्रगट हुई। इस नाटक में
उस समय के सबसे प्रसिद्ध मंच कलाकार मास्टर फिदा हुसैन 'नरसी’ हीरो थे। इस नाटक में अख्तरी बाई ने
उस्ताद झंडे खाँ के संगीत निर्देशन में 7 गाने गाए थे। दर्शकों ने अख्तरी बाई के
अभिनय और गायन को इतना पसंद किया कि वे प्रत्येक शो में उनके गानों को बार-बार
सुनने की फरमाइश करते थे जिसके कारण प्रत्येक शो का समय निर्धारित समय से ज्यादा
देर तक चलता था। पहले नाटक से ही अख्तरी बाई ने धूम मचा दी। इसके बाद तो अख्तरी
बाई ने उस समय के उर्दू शेक्सपियर कहे जाने वाले गीतकार, नाटककार
आगा हश्र कश्मीरी लिखित अनेक नाटकों, जैसे शीरीं फरहाद, नल
दमयन्ती, मेनका
अप्सरा, लैला
मजनूं, श्रवण
कुमार, नूरे-
वतन, इत्यादि
में काम किया। अख्तरी बाई अभिनेत्री के रूप में भी मशहूर हो गई।
यही वह दशक था जिसमें भारत में सवाक् फिल्मों का
आविर्भाव हुआ था। तुरंत ही कलकत्ता की ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी ने इस मशहूर गायिका
अभिनेत्री को 500/-
रुपए प्रतिमाह पर अनुबन्धित कर लिया और उनकी पहली फिल्म आई एक
दिन का बादशाह (1933)
समझा जाता है कि इस फिल्म में 7 गाने थे जो सभी अख्तरी बाई ने गाए थे। इन
गानों के रेकार्ड मेगाफोन ने जारी किए थे। फिल्म तो नहीं चली परंतु मेगाफोन के
रेकार्ड खूब बिके और अख्तरी बाई को रायल्टी के रूप में बड़ी रकम मिली। इसके बाद 1933 से 1940 के बीच
अख्तरी बाई की अनेक फिल्में जैसे- नल दमयन्ती (33), अमीना (34), मुमताज
बेगम (34), रूप
कुमारी (34) जवानी
का नशा (35, नसीब
का चक्कर(36) और
अनारबाला(40) एक
के बाद एक आई और बॉक्स ऑफिस पर भी सफल
सिद्ध हुई।
अब तक अख्तरी बाई फैजाबादी शोहरत और समृद्धि के चरम शिखर
पर पहुँच चुकी थीं। इसीलिए महबूब खाँ ने सन् 1942 में उन्हें अपनी फिल्म रोटी के लिए
चंद्रमोहन, शेख
मुख्तार और सितारा देवी के साथ चुना। इस फिल्म के लिए संगीतकार अनिल बिस्वास ने
अख्तरी बाई के 6
गाने रिकार्ड किए। महबूब खाँ ने फिल्म के संगीत का अधिकार हिज मास्टर्स वायस यानी
एचएमवी को दे रखा था। परंतु अख्तरी बाई के गाए सभी गीतों को ग्रामोफोन रिकार्डों
पर जारी करने का अधिकार केवल मेगाफोन कंपनी के पास था। अत: मेगाफोन कंपनी ने
कानूनी दाँव चला। परिणामत: फिल्म से अख्तरी बाई के गाए सभी 6 गाने तो
काट दिए गए लेकिन इन्हें मेगाफोन कं. ने अपने द्वारा निर्मित 78 आरपीएम
रिकार्डों पर जारी कर दिया। रोटी (1942) अख्तरी बाई के साभिनय गायन की अंतिम हिन्दी
फिल्म थी। सन् 1945
में संगीतकार ज्ञानदत्त ने फिल्म पन्नादाई में उनके पार्श्वगायन की एक ग़ज़ल रिकार्ड
की थी- फसले- गुल आई, हमें याद तेरी सताने लगी... इसके बाद सिर्फ एक बार सत्यजीत रे
की बंगला फिल्म जलसाघर (1958) में अख्तरी बाई मुजरे में उस्ताद विलायत खाँ
के संगीत निर्देशन में कजरी गाती दिखाई दी थीं। कजरी के बोल थे 'भर आई
मोरी अँखियाँ’
पिया बिन, घिर-घिर
आई कारी बदरिया,
जरत मोरी छतियाँ’...’ पार्श्वगायिका के रूप में हिन्दी फिल्मों
में आखिरी बार फिल्म दाना पानी 'ऐ इश्क मुझे और तो कुछ याद नहीं...’ और एहसान 'हमें दिल
में बसा भी लो... यह कहती है जवाँ नजरें के
लिए अख्तरी फैजाबादी ने ग़ज़लें गाई थीं।
ख्याति के शिखर पर पहुँच कर अख्तरी बाई फैजाबादी ने महसूस
किया कि समाज, संगीत
के बाजार की मलिका को उसके रंग रूप और गले कि लिए सिर्फ सराहता है जबकि वास्तविक
सम्मान सिर्फ एक विवाहित महिला को ही देता है। अत: उन्होंने अख्तरी बाई फैजाबादी
से बेगम अख्तर बनने की सोची। इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए उन्होंने निकाह करने
का पैगाम मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी को भेजा। जिगर मुरादाबादी ने उनके पैगाम को
ठुकरा दिया। इसके बाद उन्होंने लखनऊ के बैरिस्टर इश्तियाक अहमद से निकाह कर लिया।
लेकिन धन दौलत की बौछार के साथ-साथ प्रशंसकों की तालियों की गडग़ड़ाहट के बल पर
शोहरत के आसमान में उडऩे वाले पंछी के सामाजिक सम्मान के ताने-बाने से बने घरेलू
पिंजड़े में बंद हो जाने के परिणाम अक्सर घातक होते हैं। समाज-स्वीकृत संतान की
चाहत में वर्षों तक असफल रहने के कारण बेगम अख्तर डिप्रेशन की शिकार होकर गंभीर
रूप से बीमार हो गईं। बेगम अख्तर की मानसिक स्थिति उन्हीं की गाई इस बेहद मशहूर ग़ज़ल
से समझी जा सकती है- 'हमने तो सोचा था बरसात में बरसेगी शराब, आई बरसात
तो बरसात ने दिल तोड़ दिया...।‘
डॉक्टरों ने सलाह दी कि बेगम साहिबा की जान बचाने के लिए
आवश्यक है कि इन्हें फिर जनता के बीच गाने का अवसर दिया जाए। लेकिन अब्बासी साहब
के परिवार में अवध के नवाबी खानदान के तौर तरीकों की मान्यता थी; जिसके
अनुसार परिवार की स्त्रियाँ परदे में रहती थीं, अत: यह निश्चित हुआ कि बेगम साहिबा उत्तर
प्रदेश में सिर्फ ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ से गाएँगी, वह भी
बेगम अख्तर के नाम से (जबकि बैरिस्टर
इश्तियाक अहमद अब्बासी की पत्नी होने के नाते उन्हें बेगम अब्बासी के नाम से
संबोधित किया जाना चाहिए था) और यह बंदिश भी कि वे स्टेज पर कभी नहीं गाएँगी।
इस प्रकार से अख्तरी बाई फैजाबादी से बेगम अख्तर बन कर
बेगम साहिबा के मलिका-ए- ग़ज़ल के रूप में भारतीय संगीत जगत में जगमगाने का दौर
शुरु हुआ। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ से नियमित रूप से सन् 1949 से गाना
शुरु किया। दिलचस्प बात यह है कि इसी समय मदन मोहन ( जो बाद में फिल्म जगत में
मशहूर संगीत निर्देशक बने) बेगम साहिबा के साथ हारमोनियम पर संगत करते थे। इसी के
साथ बेगम साहिबा ने मुम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, हैदराबाद इत्यादि बड़े शहरों में अपने गायन
के कार्यक्रम प्रस्तुत करना शुरू किया और एचएमवी के लिए गीतों के अनेक एलपी
रेकार्ड कराए। कराची में उनको प्रसिद्ध दादरा- 'आओ सजन तुम हमरे दुआरे, झगड़ा
सारा खत्म हुई जाय...’ जनता की फरमाइश पर बार- बार सुनाना पड़ा। इतना सब होते हुए भी
वह दिल से बेहद अकेलापन महसूस करती थीं। नि:संतान होने का दर्द उन्हें ताउम्र
सालता रहा। संगीत सभाओं के बाद लोगों ने उन्हें फूट- फूट कर रोते देखा था। वे सारी
जनता को, अपने
संगीत को, अपनी
संतान जितना प्यार देती रहीं लेकिन अपने दर्द को शराब के प्यालों में डुबोती रहीं।
उनका स्वर कानों में हमेशा गूँजता रहेगा-
तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे...’
सुश्री रीता गांगुली, जो पहले सिद्धेश्वरी बाई की शार्गिद थीं, 1967 में बेगम
अख्तर की शागिर्दा बनीं। बेगम साहिबा को भारत सरकार ने सन् 1968 में
पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया था। अक्टूबर 1974 में बेगम अख्तर अहमदाबाद में
कार्यक्रम करने के लिए पहुँची और वहीं एक होटल में 30 अक्टूबर 1974 को मात्र 60 वर्ष की
आयु में ही उन्होंने हृदय आघात से प्राण त्याग दिए। भारत सरकार ने बेगम साहिबा को 1975 में
पद्मभूषण (मरणोपरान्त) की उपाधि प्रदान की। मृत्यु से मात्र 8 दिन
पूर्व यानी 22 अक्टूबर 1974 को कैफी
आजमी की लिखी हुई ये गज़ल आखिरी बार उनकी आवाज में रिकार्ड की गई थी- 'सुना करो
मेरी जाँ उनसे उनके अफसाने, सब अजनबी हैं यहाँ किसको कौन पहचाने...’
ऐसी हस्तियाँ
मरा नहीं करतीं बल्कि अपने स्वरों द्वारा संगीत प्रेमियों के दिलों में
हमेशा जीवित रहती हैं।
बेगम अख्तर की शागिर्दा रीता गांगुली द्वारा अंग्रेजी
में लिखी पुस्तक ए मोहब्बत... वास्तव में 'टू इन वन’ सरंचना है, मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर की जीवनी के साथ-साथ यह रीता
गांगुली की आत्मकथा भी है जिसमें उन्होंने इस कलाकार के साथ बिताए कुछ वर्षों का
लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जन्मजात प्रतिभा के
धनी कलाकार असाधारण व्यक्तित्व वाले होते हैं, उन्हें मध्यमवर्गीय नैतिकता के तराजू पर
तौलना बेमानी है। बेगम अख्तर की जीवनी से यह स्पष्ट संदेश मिलता है कि सिर्फ
प्रतिभा से ही कोई कलाकर सफल नहीं हो सकता। प्रतिभा के साथ-साथ लगन और भरपूर
आत्मविश्वास का होना भी अनिवार्य है। जिस व्यक्ति में प्रतिभा के साथ लगन और
आत्मविश्वास भी समुचित मात्रा में मौजूद हो, वही कला के इतिहास में आकाश में सितारा बन
कर चमकता है। तवायफ अख्तरी बाई फैजाबादी के तेरह वर्ष की उमर में अविवाहित माँ
बनने से मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर बनने की कथा में रीता गांगुली ने बेगम के
जगमगाते कलात्मक व्यक्तित्व को मध्यमवर्गीय चाल चलन के कपड़े पहनाने का प्रयत्न
किया है।
वैसे तो इस पुस्तक में रीता गांगुली ने बेगम साहिबा से
ज्यादा स्वयं के जीवन के बारे में लिखा है, फिर भी यह पुस्तक बेगम अख्तर के कई दुर्लभ
चित्रों, संस्मरणों
आदि के कारण संगीत प्रेमियों के लिए संग्रहणीय है- Ae Mohabbat... Reminiscing begum Akhtar by Rita
Ganguly- pp 357 Rs. 695/- (Hard bound) stellar publishers, G-25, Vikas puri, New delhi 110018, phone- 01132001405
(लिस्नर्स बुलेटिन से साभार)
संपर्क: बी-403, सुमधुर-।। अपार्टमेन्ट्स, आजाद
सोसायटी के पीछे, अहमदाबाद- 380 015, मो. 09428813277,
Email- psrathaur@yahoo.com
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