- श्री देवी
कितना मुश्किल है,
स्त्री बनकर जीना।
हर बार प्रियतम की अपेक्षाओं में,
अपनी खुशियाँ ढूँढऩा।
जब वह चाहे तब प्यार करे,
जब वह चाहे तब बात करे।
एक कठपुतली जिसमें स्पंदन आये,
जब दुनिया चाहे।
कुछ भी उम्मीद न करे किसी से,
न साथी से न जिंदगी से ।
बस जीती रहे, उनकी उम्मीदों को।
जो उसके अपने नहीं है।
दूसरों की इच्छा पर निर्भर,
और इस इंतजार में,
एक नजर दुलार भरी।
गुजर जाती हैं रातें, और जिंदगी भी,
बिना किसी शिकायत के।
और फिर एक जनम,
इस बार भी 'स्त्री’।
3 comments:
स्त्री होने की त्रासदी का सुन्दर चित्रण्।
स्त्री होना त्रासद तो नहीं पर ज़्यादातर हमारी सामाजिक स्थितियाँ और अंतर्वैयक्तिक संबंधों की असफलताएँ ज़रूर हमें ऐसा अहसास करवाती हैं। कई बार सचमुच वह त्रासद भी हो जाता है। इससे भी इन्कार नहीं ।
सच जो यह है कि स्त्री को इतने संकुचित दायरे में देखना ठीक नहीं है। स्त्री केवल प्रियतम भर के लिए नहीं होती है। स्त्री का अपना अस्तित्व है। दिनेश जी बात से मैं सहमत हूं।
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यहां यह भी प्रतीत हो रहा है कि लेखिका जैसे कुछ कहते-कहते रूक गई है। कविता आरंभ तो हुई पर अपने चरम पर नहीं पहुंची।
श्री देवी को अपनी इस कविता पर फिर से काम करना चाहिए।
बहरहाल उनकी अभिव्यक्ति को आपने जगह दी। यह अच्छी बात है1
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