सभ्यता, संस्कृति एवं विरासत का प्रतिबिम्ब-
फिलेटली
- कृष्ण
कुमार यादव
डाक-टिकटों का व्यवस्थित संग्रह अर्थात 'फिलेटली’ मानव के
लोकप्रिय शौकों में से एक है । 'शौकों का राजा’ और 'राजाओं का
शौक’ कहे
जाने वाली इस विधा ने आज सामान्य जनजीवन में भी उतनी ही लोकप्रियता प्राप्त कर ली
है। सामान्यत: डाक टिकटों का संग्रह ही फिलेटली माना जाता है पर बदलते वक्त के साथ
फिलेटली डाक टिकटों, प्रथम दिवस आवरण, विशेष आवरण, पोस्ट मार्क, डाक स्टेशनरी एवं डाक सेवाओं से सम्बन्धित
साहित्य का व्यवस्थित संग्रह एवं अध्ययन बन गया है। रंग-बिरंगे डाक टिकटों में
निहित सौन्दर्य जहाँ इसका कलात्मक पक्ष है, वहीं इसका व्यवस्थित अध्ययन इसके वैज्ञानिक
पक्ष को प्रदर्शित करता है। डाक टिकट संग्रह के सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध संस्मरण
भी है कि इंग्लैण्ड के भूतपूर्व सम्राट जार्ज पंचम को किसी डाक टिकट विक्रेता के
यहाँ से डाक टिकट खरीदते उनके रिश्तेदार ने देख लिया और इसकी शिकायत उनकी पत्नी
महारानी मेरी से की। इसके उत्तर में महारानी मेरी ने कहा -'मुझे पता
है कि मेरे पति शौक हेतु डाक टिकट खरीदते हैं और यह अच्छा भी है, क्योंकि यह शौक उन्हें अन्य बुरी प्रवृतियों
से दूर रखता है।‘
नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी अर्नेस्ट
रदरफोर्ड ने कहा था कि 'All Science is either physics or stamp collecting.'
''फिलेटली” शब्द की
उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द 'फिलोस’ व 'एटलिया’ से
हुई। सन् 1864
में 24
वर्षीय फ्रांसीसी व्यक्ति जार्ज हॉर्पिन ने ''फिलेटली” शब्द का इजाद किया। इससे पूर्व इस विधा को ''टिम्बरोलॉजी” नाम से
जाना जाता था। फ्रेंच भाषा में टिम्बर का
अर्थ टिकट होता है। एडवर्ड लुइन्स पेम्बर्टन को 'साइन्टिफिक फिलेटली’ का जनक
माना जाता है। सामान्यत: डाक टिकट एक छोटा सा कागज का टुकड़ा दिखता है, पर इसका
महत्त्व और कीमत दोनों ही इससे काफी
ज्यादा है। डाक टिकट वास्तव में एक नन्हा राजदूत है, जो विभिन्न देशों का भ्रमण करता है एवम्
उन्हें अपनी सभ्यता, संस्कृति और विरासत से अवगत कराता है। यह किसी भी राष्ट्र के
लोगों, उनकी
आस्था व दर्शन, ऐतिहासिकता, संस्कृति, विरासत
एवं उनकी आकांक्षाओं व आशाओं का प्रतीक है। यह मन को मोह लेने वाली जीवन शक्ति से
भरपूर है।
फिलेटली अर्थात डाक-टिकटों के संग्रह की भी एक रोचक
कहानी है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में यूरोप में एक अंग्रेज महिला को अपने
श्रृंगार-कक्ष की दीवारों को डाक टिकटों से सजाने की सूझी और इस हेतु उसने सोलह
हजार डाक-टिकट परिचितों से एकत्र किए और शेष हेतु सन् 1841 में 'टाइम्स ऑफ लंदन’ समाचार
पत्र में विज्ञापन देकर पाठकों से इस्तेमाल किए जा चुके डाक टिकटों को भेजने की
प्रार्थना की। तब से डाक-टिकटों का संग्रह एक शौक के रूप में परवान चढ़ता गया।
दुनिया में डाक टिकटों का प्रथम एलबम 1862 में फ्रांस में जारी किया गया। आज
विश्व में डाक-टिकटों का सबसे बड़ा संग्रह ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के
पास है। भारत में भी करीब पचास लाख लोग व्यवस्थित रूप से डाक-टिकटों का संग्रह
करते हैं। भारत में डाक टिकट संग्रह को बढ़ावा देने के लिए प्रथम बार सन् 1954 में
प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय डाक टिकट प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। उसके पश्चात से अनेक
राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय
और क्षेत्रीय प्रदर्शनियों का आयोजन होता रहा है। वस्तुत: इन प्रदर्शनियों के
द्वारा जहाँ अनेकों समृद्ध संस्कृतियों वाले भारत राष्ट्र की गौरवशाली परम्परा को डाक टिकटों के द्वारा चित्रित करके
विभिन्न सामाजिक,
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सन्देशों को प्रसारित किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ
यह विभिन्न राष्ट्रों के मध्य सद्भावना एवं मित्रता में उत्साहजनक वृद्धि
का परिचायक है। इसी परम्परा में भारतीय डाक विभाग द्वारा 1968 में डाक
भवन नई दिल्ली में 'राष्ट्रीय फिलेटली संग्रहालय’ की स्थापना की और 1969 में मुम्बई
में प्रथम फिलेटलिक ब्यूरो की स्थापना की गई। डाक टिकटों के अलावा मिनिएचर शीट, सोवीनियर
शीट, स्टैम्प
शीटलैट, स्टैम्प
बुकलैट, कलैक्टर्स
पैक व थीमेटिक पैक के माध्यम से भी डाक टिकट संग्रह को रोचक बनाने का प्रयास किया
गया है।
सामान्यत: लोग डाक विभाग द्वारा जारी नियत डाक टिकटों के
बारे में ही जानते हैं। ये डाक टिकट विशेष रूप से दिन-प्रतिदिन की डाक-आवश्यकताओं
के लिए जारी किए जाते हैं पर इसके अलावा डाक विभाग किसी घटना, संस्थान, विषय-वस्तु, वनस्पति व
जीव-जन्तु तथा विभूतियों के स्मरण में भी डाक टिकट जारी करता है, जिन्हें
स्मारक/विशेष डाक टिकट कहा जाता है। सामान्यतया ये सीमित संख्या मे मुद्रित किये
जाते हैं और फिलेटलिक ब्यूरो/काउन्टर/प्राधिकृत डाकघरों से सीमित अवधि के लिये ही
बेचे जाते हैं। नियत डाक टिकटों के विपरीत ये केवल एक बार मुद्रित किये जाते हैं
ताकि पूरे विश्व में चल रही प्रथा के अनुसार संग्रहणीय वस्तु के तौर पर इनका मूल्य
सुनिश्चित हो सके।
जहाँ नियमित डाक टिकटों की छपाई बार-बार होती है, वहीं
स्मारक डाक टिकट सिर्फ एक बार छपते हैं।
यही कारण है कि वक्त बीतने के साथ अपनी दुर्लभता के चलते वे काफी मूल्यवान हो जाते
हैं। भारत में सन् 1852 में जारी प्रथम डाक टिकट (आधे आने का सिंदे डाक) की
कीमत आज करीब ढाई लाख रुपये आँकी जाती है। कभी-कभी कुछ डाक टिकट डिजाइन में
गड़़बड़ी पाये जाने पर बाजार से वापस ले किये जाते हैं, ऐसे में
उन दुर्लभ डाक टिकटों को फिलेटलिस्ट मुँहमाँगी रकम पर खरीदने को तैयार होते हैं।
विश्व का सबसे मँहगा और दुर्लभतम डाक-टिकट
ब्रिटिश गुयाना द्वारा सन् 1856 में जारी
किया गया एक सेण्ट का डाक-टिकट है। गुलाबी कागज पर काले रंग में छपे, विश्व में
एकमात्र उपलब्ध इस डाक-टिकट को ब्रिटिश गुयाना के डेमेरैरा नामक नगर में सन् 1873 में एक
अंग्रेज बालक एल.वॉघान ने रद्दी में पाया और छ: शिलिंग मे नील मिककिनॉन नामक
संग्रहकर्ता को बेच दिया । अन्तत: कई हाथों से गुजरते हुए इस डाक-टिकट को
न्यूयार्क की रॉबर्ट सैगल ऑक्शन गैलेरीज इन्क द्वारा सन् 1981 मे 9,35,000 अमेरिकी डॉलर (लगभग चार करोड़ रुपये) में नीलाम
कर दिया गया। खरीददार का नाम अभी भी गुप्त रखा गया है, क्योंकि
विश्व के इस दुर्लभतम डाक टिकट हेतु उसकी हत्या भी की जा सकती है। इसी प्रकार
भारत के डाक टिकटों में भी सन् 1854 में जारी
चार आने वाले लिथोग्राफ में एक शीट पर महारानी विक्टोरिया का सिर टिकटों में उल्टा
छप गया, इस
त्रुटि के चलते इसकी कीमत आज पाँच लाख रुपये से भी अधिक है। इस प्रकार के कुल
चौदह-पन्द्रह त्रुटिपूर्ण डाक टिकट ही अब उपलब्ध हैं। स्वतन्त्रता के बाद सन् 1948 में
महात्मा गाँधी पर डेढ़ आना, साढ़े तीन आना, बारह आना
और दस रुपए के मूल्यों में जारी डाक टिकटों पर तत्कालीन गर्वनर जनरल चक्रवर्ती
राजगोपालाचारी ने गवर्नमेण्ट हाउस में सरकारी काम में प्रयुक्त करने हेतु 'सर्विस’ शब्द छपवा
दिया। इन आलोचनाओं के बाद कि किसी की स्मृति में जारी डाक टिकटों के ऊपर 'सर्विस’ नहीं छापा
जाता, उन
टिकटों को तुरन्त नष्ट कर दिया गया। पर इन दो-तीन दिनों में जारी सर्विस छपे चार
डाक टिकटों के सेट का मूल्य आज तीन लाख रुपये से अधिक है। एक घटनाक्रम में ब्रिटेन
के न्यू ब्रेंजविक राज्य के पोस्टमास्टर जनरल ने डाक टिकट पर स्वयं अपना चित्र
छपवा दिया। ब्रिटेन में डाक टिकटों पर सिर्फ वहाँ के राजा और रानी के चित्र छपते
हैं, ऐसे
में तत्कालीन महारानी विक्टोरिया ने यह तथ्य संज्ञान में आते ही डाक टिकटों की
छपाई रुकवा दी पर तब तक पचास डाक टिकट जारी होकर बिक चुके थे। फलस्वरूप दुर्लभता
के चलते इन डाक टिकटों की कीमत आज लाखों में है।
कई देशों ने तो डाक टिकटों के क्षेत्र में नित नये अनूठे
प्रयोग करने की पहल की है। स्विटजरलैण्ड द्वारा जारी एक डाक-टिकट से चॉकलेट की
खुशबू आती है तो भूटान ने त्रिआयामी, उभरे हुये रिलीफ टिकट, इस्पात की
पतली पन्नियों, रेशम, प्लास्टिक
और सोने की चमकदार पन्नियों वाले डाक टिकट भी जारी किये हैं। यही नहीं, भूटान ने
सुगन्धित और बोलने वाले (छोटे रिकार्ड के रूप में) डाक टिकट भी निकालकर अपना
सिक्का जमाया है। सन् 1996 में विश्व के प्रथम डाक टिकट 'पेनी
ब्लैकÓ के
सम्मान में भूटान ने 140 न्यू मूल्य वर्ग में 22 कैरेट सोने के घोल के उपयोग वाला डाक टिकट
जारी किया था, जो
अब दुलर्भ टिकटों की श्रेणी में आता है। 10 अक्टूबर 1985 को भारतीय डाक विभाग ने अपना प्रथम
त्रिकोणीय डाक टिकट जारी किया तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शताब्दी पर 28 दिसम्बर 1985 को एक
ऐसा डाक टिकट जारी किया जिसमें कुल 61 विभूतियों
के चित्र अंकित हैं। 20 अगस्त 1991 को भारतीय डाक विभाग ने अब तक का
सबसे बड़ा डाक टिकट पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर जारी किया। भारतीय डाक
विभाग ने 13
दिसम्बर 2006
को चन्दन, 7
फरवरी 2007
को गुलाब और 26
अप्रैल 2008
को जूही की खुशबू वाले सुगंधित डाक टिकट जारी किये हैं, जो कि साल
भर तक सुगन्धित रहेंगे। भारत से पहले मात्र चार देशों ने सुगन्धित डाक टिकट जारी
किये हैं। इनमें स्विटजरलैण्ड, थाईलैण्ड व न्यूजीलैण्ड ने क्रमश: चाकलेट, गुलाब व
जैस्मीन की सुगन्ध वाले डाक टिकट जारी किये हैं तो भूटान ने भी सुगन्धित डाक टिकट
जारी किये हैं। एक रोचक घटनाक्रम में सन् 1965 में एक
सोलह वर्षीय किशोर ने गरीबी खत्म करने हेतु अमेरिका के पोस्टमास्टर जनरल को सुझाव
भेजा कि कुछ डाक-टिकट जानबूझ कर गलतियों
के साथ छापे जायें और उनको गरीबों को पाँच-पाँच सेण्ट में बेच दिया जाय। ये गरीब
इन टिकटों को संग्रहकर्ताओं को मुँहमाँगी
कीमतों पर बेचकर अपना जीवन सुधार सकेंगे। एक ब्रिटिश कहावत भी है- 'फिलेटली
टिकट एक ऐसे शेयर की भाँति हैं, जिनके मूल्य में कभी गिरावट नहीं आती वरन्
वृद्धि ही होती है।‘
यदि हम डाक टिकटों के इतिहास का अध्ययन करें तो पेशे से
अध्यापक सर रोलैण्ड हिल (1795-1879) को डाक टिकटों का जनक कहा जाता है।
जिस समय पत्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने का शुल्क तय किया गया और
वह गंतव्य पर लिखा जाने लगा तो उन्हीं दिनों इंगलैण्ड के एक स्कूल अध्यापक रोलैण्ड
हिल ने देखा कि बहुत से पत्र पाने वालों ने पत्रों को स्वीकार करने से इन्कार कर
दिया और पत्रों का ढेर लगा हुआ है, जिससे कि सरकारी निधि की क्षति हो रही है।
यह सब देख कर उन्होंने सन् 1837 में 'पोस्ट आफिस रिफार्म’ नामक पत्र
के माध्यम से बिना दूरी के हिसाब से डाक/टिकटों की दरों में एकरूपता लाने का सुझाव
दिया। उन्होंने चिपकाए जाने वाले 'लेबिल’ की बिक्री का सुझाव दिया ताकि लोग पत्र
भेजने के पहले उसे खरीदे और पत्र पर चिपका कर अपना पत्र भेजें। इन्हीं के सुझाव पर
6
मई 1840
को विश्व का प्रथम डाक टिकट 'पेनी ब्लैक’ ब्रिटेन द्वारा जारी किया गया। भारत में
प्रथमत: डाक टिकट 01 जुलाई 1852 को सिन्ध के मुख्य आयुक्त सर
बर्टलेफ्र्रोरे द्वारा जारी किए गए। आधे आने के इस टिकट को सिर्फ सिन्ध राज्य हेतु जारी करने के कारण 'सिंदे डाक’ कहा गया
एवं मात्र बम्बई-कराची मार्ग हेतु इसका प्रयोग होता था। सिंदे डाक को एशिया में
जारी प्रथम डाक टिकट एवं विश्व स्तर पर जारी प्रथम सर्कुलर डाक टिकट का स्थान
प्राप्त है । 01
अक्टूबर 1854
को पूरे भारत हेतु महारानी विक्टोरिया के चित्र वाले डाक टिकट जारी किये गये। 1926 में इण्डिया सिक्यूरिटी प्रेस नासिक में डाक
टिकटों की छपाई आरम्भ होने पर 1931 में प्रथम चित्रात्मक डाक टिकट नई दिल्ली
के उद्घाटन पर जारी किया गया। 1935 में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम की रजत
जयन्ती के अवसर पर प्रथम स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। स्वतन्त्रता पश्चात 21 नवम्बर 1947 को प्रथम
भारतीय डाक टिकट साढ़े तीन आने का 'जयहिन्द’ जारी किया गया। 21 फ रवरी 1911 को विश्व की प्रथम एयरमेल सेवा भारत
द्वारा इलाहाबाद से नैनी के बीच आरम्भ की गयी। राष्ट्रमण्डल देशों मे भारत पहला
देश है जिसने सन् 1929 में हवाई डाक टिकट का विशेष सेट जारी किया।
सभ्यता के बढ़ते कदमों के साथ फिलेटली मात्र एक भौतिक
तथ्य नहीं रहा बल्कि आज फिलेटली किसी भी राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति
एवं विरासत का प्रतिबिम्ब है। जिसके माध्यम से वहाँ के इतिहास, कला, विज्ञान, व्यक्तित्व, वनस्पति, जीव-जन्तु, राजनयिक
सम्बन्ध एवं जनजीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है। वर्षों से
फिलेटली महत्त्व पूर्ण घटनाओं के विश्वव्यापी प्रसार, महान
विभूतियों को सम्मानित करने एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित
करने हेतु कार्य कर रही है। इसने विभिन्न राष्ट्रों के बीच मैत्री की सेतु तैयार
करने के साथ-साथ परस्पर एक दूसरे को समझने में सहायता प्रदान की है और आज भी इस
दिशा में यह एक मील का पत्थर है।
फिलेटली को यूँ ही शौकों का राजा नहीं कहा जाता। वस्तुत:
यह चीज ही ऐसी है। एक तरफ फिलेटली के माध्यम से अपनी सभ्यता और संस्कृति के गुजरे वक्त
को आईने में देखा जा सकता है, वहीं इस नन्हें राजदूत का हाथ पकड़ कर नित
नई-नई बातें भी सीखने को मिलती हैं। निश्चितत: आज के व्यस्ततम जीवन एवं
प्रतिस्पर्धात्मक युग में फिलेटली से बढ़कर कोई भी रोचक और ज्ञानवद्र्धक शौक नहीं
हो सकता। व्यक्तित्व परिमार्जन के साथ-साथ यह ज्ञान के भण्डार में भी वृद्धि करता है।
संपर्क: निदेशक, डाक सेवाएँ, इलाहाबाद परिक्षेत्र, इलाहाबाद (उ. प्र.) 211001, मोबाइल-08004928599,
Email-
kkyadav.y@rediffmail.com
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