- रामस्वरूप
रावतसरे
कुछ दिनों पहले की बात है, जब सर्दी ने एक बार जाकर फिर से अपना रंग
दिखाना शुरू किया था। एक सुबह हम अपनी फटी रजाई में दुबके यह विचार कर रहे थे कि
किस प्रकार अचानक आई इस सर्दी से दो-दो हाथ किये जाएँ लेकिन प्रत्येक स्थिति तें
हम पिटते से लग रहे थे और इसी कारण से हमारी हड्डियाँ भरत मिलाप करने लगी थी ओर
दाँत स्वर देने लगे थे। हम बराबर रजाई को अपने चारों और मजबूती से लपेटते, फिर भी
लगता ना जाने कहाँ से कम्बख्त यह सर्दी आ रही है, लगता कहीं यह रजाई ही तो सर्दी नहीं उपजाती, क्योंकि
आज कल प्रत्येक जगह यही हो रहा है और जब तक यह नहीं होता तब तक यह कहावत चरितार्थ
नहीं होती कि 'घर
का भेदी लंका ढहावे'।
पहले के जमाने में एक लंका हुआ करती थी। एक अयोध्या थी, एक राम व
एक रावण हुआ करते थे, पर आज प्रत्येक जगह लंका है, कई-कई रावण हैं। उसी प्रकार विभीषण भी हैं
और राम कितने हैं कहा नहीं जाता। हर पल राम उत्पन्न होते हंै और लंका की ओर
प्रस्थान करते नजर आते हैं। लंका के नजदीक पहुँचने के बाद, उनका कोई
मालूम नहीं रहता,
उनके आदर्श का निशां नहीं दिखता, दिखाई
देता है तो सिर्फ रावण का अट्टहास करता विशाल रूप और खिसियाते विभीषण। जिनकी
संख्या व रूप कितने हैं कोई अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता, पर इसके
कुछ क्षणों के बाद एक और रावण का उत्पन्न होना सुना जाता है।
हर बार राम को लेकर समाज में एक नया विषय आता है। लोगों
की नजरें उसे प्रेम बिछाती स्वागत स्वरूप अपनाती हैं अपनी आशाओं व आकांक्षाओं का
बाना उसे पहनाती हैं चलने को पाँव, करने को हाथ सौंपकर अपनी आशाओं की पूर्ति का
इन्तजार करती है,
पर वह राम बना सजा सँवरा शक्ति व मंजिल के लिये साधन पाकर
लोगों की ओर से उन्मुख हो रावण का आदर्श अपना कर, अपने भविष्य को सँवारने लग जाता है और लोग
हताश फिर किसी राम की तलाश में लग जाते हैं।
खैर यह विषय तो इतना लम्बा है हम इसे पूरा नहीं कर
पाएँगे। यह राम व रावण की कहानी बड़े लोगों का मसला है, जो अन्दर
से ठगन और बाहर से भजन की कला में माहिर हैं, जिनके कभी दो हाथ थे आज हजार हाथ हंै और
हजारों की संख्या में पाँव भी हैं। हम इसी उधेड़ बुन में लगें थे कि हमारे
लँगोटिया ने धड़ाम से दरवाजा खोला। हम कुछ बोलते वे हाथ की छड़ी को बजाते हुए
हमारे सामने खड़े थे। वे अन्दर ही अन्दर कुछ बोल रहे थे यह उनके हिलते होठों से लग
रहा था। हमने उन्हें गौर से देखा तो पाया कि वे सर्दी से काँप रहे हंै। हमने
उन्हें तत्काल रजाई में घुसाया। उनके टेढें जबड़े व कटे होठ में से पान की पीक
अपने आप ही टपक रही थी।
जब वे कुछ नार्मल हुए तो बोले 'अमाँ
छुट्टन इस मँंहगाई के जमाने में किसी प्रकार रात तो गुजार ली पर ज्यों ही दिन
निकला हमसे रहा नहीं गया और हम तुम्हारे पास चले आए। कुछ देर चुप रहने के बाद
उन्होंने झट से मँुह खोला कि उनके कटे होंठ व टेढ़े जबडें़ से थूक के छींटे उछले
और ओस की तरह हमारे दागल चेहरे के गड्डों में छुटभैया नेताओं की तरह आकर बैठ गये।
हमें गुस्सा तो बहुत आया पर मौसम को देख कर गति नहीं पकड़ पाया। वे गम्भीर होकर
बोले छुट्टन तुम आज कल क्या कर रहे हो?
हमने अपने चेहरे को रजाई से पोंछा और बोले बड़े मियाँ
हमारा घर देश बन गया है और उसमें उसी के अनुरूप समस्याओं ने डेरा डाल रखा है। रसोई
गृहिणी को तरस रही है, घड़ों में पानी नहीं है, चिमनी में तेल नहीं है, माचिस में
तिली नहीं है, पीपे
में आटा नहीं है। इस पर चूहों की धमा-चौकड़ी, काकरोचों की बढ़ती तादाद। रहे सहे को दीमक
सफाचट किये दे रही है। रसोई खाली देख कर गृहिणी नहीं रुकती। कैसे इस गृहस्थी की गाड़ी को चलाया जाए।
वे चेहरे को गम्भीर करते हुए बोले छुट्टन तुम जीवन में
कुछ नहीं कर सकते,
तुम से एक घर नहीं सम्भलता। अरे मूर्ख यदि सही नहीं तो गलत
करो यह जमाना बड़ा सस्ता है। इसमें आगे आने के लिए आदर्श व कार्यकुशलता या अच्छाई
को दिखाने की आवश्यकता नहीं है। देखा नहीं जो कल तक गुनाहगार थे, जिन्होंने
देश व समाज को लूटा, गरीब लोगों का निवाला लूटा, वे ही आज आँंखों के तारे बने हुए हंै। लोग
नजरों में चढऩे के लिए अच्छे काम कम बुरे काम ज्यादा करते हंै। एक तुम हो जो आदर्श
का लबादा ओढ़ेे बैठे हो, कि सही काम ही किया जाए। राम जी के आदर्शो को ही ढोया जाय।
तुम्हें कितनी बार सलाह दी है कि तुम अच्छे के चक्कर में मत रहा करो। उलटा करने पर
लोगों में तुम्हारी सामथ्र्य बढ़ेगी। लोग तुम्हारे हौसले के कायल हो जायेंगे।
नपुंसकता को अपना चुके प्राणी तुम्हारी जय-जयकार करेंगे। बस यहीं से तुम्हारा
उन्नति का सफर शुरू हो जाएगा, हो सकता है आगामी चुनाव में तुम्हें टिकट भी
मिल जाए। यह कहते हुए वे उठ कर चल दिये।
हमने पुन: रजाई को अपने चारों ओर लपेटा और उनकी बातों पर
विचार करने लगे तो लगा कि हर बड़ा आदमी किसी ना किसी रंग में रंगा है उसने आगे आने
के लिए जायज कम नाजायज ज्यादा कार्य किये है। हमारा भी पुरुषार्थ जागा क्यों ना हम
भी इस घर तन्त्र के बिगड़े स्वरूप को पछाडऩे व अपनी बिगड़ी छवि को उघाडऩे के लिए
कुछ ऐसा ही तिकड़म करें। हमें लगा कि हर साल जो रावण का कद बढ़ रहा है उसके पीछे
यही कारण हो सकता है। यहाँ रावण की नीतियाँ अधिक प्रभावी है। राम का आदर्श तो
मात्र दूसरों को दिखाने और बताने के लिये ही रह गया है। करने के लिए नहीं।
(प्रवासी दुनिया से)
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